कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सिंह सरकार के लिए विकीलीक के भारतीय केबल राजनीतिक सिरदर्द बनते जा रहे हैं। इन केबलों का जनता पर कितना असर होगा यह कहना मुश्किल है । क्योंकि आम जनता में विदेश नीति कभी प्रौपेगैण्डा का बड़ा विषय नहीं रही है। यहां तक मासमीडिया में भी विदेश नीति बहुत ही सीमित दायरे में रही है। जो लोग विदेश नीति में दिलचस्पी लेते रहे हैं उनके लिए तो विकीलीक के विदेशनीति संबंधी केबल नवजागरण का काम करेंगे । इसके अलावा राजनीतिक दलों में विदेश नीति को लेकर सतर्कता बढ़ेगी। राजनयिक गलियारों में बातें करते समय भारतीय राजनयिक सतर्कता का पालन करेंगे।
लेकिन इस सबके अलावा जो चीज सबसे ज्यादा परेशान करने वाली है वह है मनमोहन सरकार में अमेरिकी घुसपैठ। विदेशनीति से लेकर अर्थनीति तक सभी मामलों में अमेरिका की गहरी दिलचस्पी है।यह हस्तक्षेप है। यह हमारी सार्वभौम संप्रभुता का अपमान है। आश्चर्य की बात है कि जो लोग भारत के संविधान और सार्वभौम संप्रभुता की शपथ खाकर सत्ता में बैठे हैं वे ही अमेरिकी गुलामी कर रहे हैं। अमेरिका के इशारों पर नाच रहे हैं।
विकीलीक केबल बताते हैं कि अमेरिकी प्रशासन हमारे देश की सामान्य से लेकर विशिष्ट सभी किस्म की राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यप्रणाली और नीति निर्धारण को कौशलपूर्ण ढ़ंग से प्रभावित करता रहा है। साथ ही पूरी केबीनेट में अमेरिकापरस्तों को सुचिंतित भाव से बिठाने का पर्दे के पीछे से अमेरिकी खेल चलता रहा है।
अंग्रेजी दैनिक हिन्दू ने विकीलीक से एक समझौते के तहत केबल हासिल किए हैं। भारत संबंधी केबल की संख्या 5100 है। इनमें से पहले मात्र 40 केबल पहले विभिन्न अखबारों में छपे हैं। बाकी सभी केबलों पर हिन्दू अपने विशेषज्ञ-पत्रकारों के जरिए व्याख्याएं लिखवाकर प्रकाशित कर रहा है।
हिन्दू के संपादक ने विकीलीक केबल हासिल करने की प्रक्रिया पर लिखा, "Hopes of getting our hands on the entire India Cache rose in the second half of December when Julian Assange spoke, in a newspaper interview, of “the incredible potential of the Indian media” in a context of “a lot of corruption” (waiting to be exposed), a rising middle class, and growing access to the internet – and specifically mentioned and praised The Hindu.
To cut the story short, our active contacts with WikiLeaks resumed in mid-February 2011. A breakthrough was achieved without any fuss, resulting in a detailed understanding on the terms and modus of publication, including redacting (where, and only where, necessary) and compliance with a security protocol for protecting and handling the sensitive material – and we had the whole cache of the India Cables in our hands in early March.
Unlike the experience of the five western newspapers, which were involved in a prolonged and complex collaborative venture even while making independent publication choices (described in two books published by The Guardian and The New York Times), The Hindu's receipt, processing, and publication of the cables is a standalone arrangement with WikiLeaks, which, as in the case of the five newspapers, has no say in the content of stories we publish based on the cables."
विकीलीक केबल में जिन अमेरिकी राजनयिकों की टिप्पणियां प्रकाशित हुई हैं वे कई रोचक चीजों पर रोशनी डालती हैं। पहली चीज यह कि अमेरिकी दूतावास भारत की दैनंदिन राजनीति में सीमा से ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। दूसरा ,भारत में किसी भी राजनेता को शासनारूढ़ करने के पहले अमेरिकी नजरिए पर पहले ध्यान दिया जाता है। मसलन किस आदमी को वित्तमंत्री बनाया जाए यह इस बात से तय होगा कि उसका अमेरिका के प्रति अनुकूल नजरिया है या नहीं ? कोई सक्षम है यही बड़ा आधार नहीं है वित्तमंत्री बनने का। बल्कि वित्तमंत्री बनने का मूलाधार है अमेरिका के प्रति उस सांसद की भक्तिभावना। तीसरा ,अमेरिकी राजनयिक अव्वल दर्जे के जनसंपर्क अधिकारी होते हैं और वे जनसंपर्क की कलाओं के जरिए नेताओं-राजनयिकों की राय को बदलने का काम करते हैं। चौथा ,अमेरिकी राजनयिकों को भारत की जमीनी राजनीतिक हकीकत का उतना ही ज्ञान है जितना वे मीडिया में पढ़ते हैं या विशेषज्ञों से सुन लेते हैं। वे अपनी कूटनीतिक चालों के जरिए सर्वज्ञ होने का दावा करते हैं लेकिन वे भारत की जमीनी वास्तविकता को कम से कम जानते हैं।
मसलन भारत के चुनावों में विदेशनीति और मध्यपूर्व नीति को लेकर कभी न तो वोट पड़े हैं और न जनता ने,खासकर मुसलमानों ने मध्यपू्र्व नीति को ध्यान में रखकर कभी वोट नहीं दिया। अतः मध्यपूर्व नीति के साथ स्थानीय मुसलमानों की नाराजगी को जोड़कर देखने का अमेरिकी राजनयिकों का नजरिया वास्तविकता से कोसों दूर है। असल में अमेरिकी राजनयिक न तो भारत को जानते हैं और न यहां के मुसलमानों को जानते हैं। वे अपने केबलों में अमेरिकी मुस्लिम स्टीरियोटाइप के आधार पर यहां मुसलमानों को देख रहे हैं।
भारत में मुसलमानों को जिस तरह सुचिंतित ढ़ंग से हाशिए पर डाला गया है उसने मुसलमानों के सामने अस्तित्व के सवालों को प्रमुख बनाया है । उनके लिए मध्यपूर्व, फिलीस्तीन, मिस्र, ईरान,इराक,अफगानिस्तान में मुसलमानों की दशा-दुर्दशा के सवाल प्रमुख तो छोड़ो हाशिए के सवाल भी नहीं हैं। भारत के मुसलमान 'विश्व के मुसलमानों एक हो' नारे में यकीन रही रखते।
विकीलीक के भारत संबंधी केबल एक तथ्य को बार-बार सामने ला रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सरकार का अमेरिका से गहरा याराना है। अमेरिका के इशारों पर मनमोहन सरकार काम करती रही है। यह मनमोहन सिंह और कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी की बात है। साथ ही यह तथ्य भी सामने आया है कि भाजपा को अमेरिकी राजनयिक दोगले स्टैंड वाली पार्टी के रूप में देखते हैं।
मुझे नाम याद नहीं आ रहा है कि किसने कहा था, १९९१ में जब मनमोहन वित्त मंत्री बने थे तब भी सवाल उठा था कि अमेरिका ने उन्हें वित्त मंत्री बनाये जाने की शर्त पर ही भारत को आर्थिक मदद की थी. अब तो स्पस्ट हो गया है कि अमेरिका ने ही प्रधानमंत्री भी बनवाया है!!
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शर्म कैसी????? कभी रूस के लिए काम करती रही तो कभी अमेरिका के लिए :)
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