भगवतीचरण वोहरा नेशनल कालेज में हम लोगों से दो वर्ष ऊपर थे। यों तो भगत सिंह का डीलडौल भी दो-तीन वर्ष में काफी पनप आया था परंतु भगवतीचरण की बराबरी वह भी न कर सकता था। कद छह फुट से कुछ ही कम, दोहरा, कसरती, चुस्त बदन। गोलसा गंभीर चेहरा, गंदमी रंग, जरा भारी होंठ, आंखें चश्मे के शीशों के पीछे छिपी हुर्इं। उनका जन्म लाहौर में ही हुआ था परंतु वंशक्रम से वे गुजराती ब्राह्मण थे।
भगवतीचरण अपने आप को पंजाबी ही कहते थे और इतना शुध्द पंजाबी उच्चारण करते थे कि उनके बहुत अंतरंग लोगों के सिवा दूसरे शायद ही जानते हों कि उनके पूर्वज गुजरात से आगरा और आगरे से लाहौर में आकर बसे थे।
इन दिनों गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्रा तैयार करने के लिए पंजाब में एच.आर.ए. का परचा आया तो जयचंद्रजी के सूत्राों से था परंतु रखा गया था गवालमंडी में भगवतीचरण के मकान पर ही। इसे बांटने के आयोजन में भी भगवतीचरण ने पूरा सहयोग दिया था।
'नौजवान भारत सभा' की स्थापना के लिए विचार और सूत्रपात से ही हम सब ने सहयोग दिया। उसके मुख्य सूत्राधार भगत सिंह और भगवतीचरण ही थे। भगत सिंह जनरल सेक्रेटरी और भगवतीचरण प्रोपेगेण्डा सेक्रेटरी थे। इनके साथ सार्वजनिक क्षेत्र से प्रमुख सहयोग देने वाले लोग थे, साथी धन्वन्तरी और एहसान इलाही। कुछ ही दिन में कांग्रेस में समाजवादी प्रवृत्ति रखने वाले सभी नौजवान 'नौजवान-भारत-सभा' के सहयोगी बन गए। यह संगठन भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रांतों में किस प्रकार फैल गया था, वह सभी लोग जानते हैं।
'नौजवान भारत सभा' का कार्यक्रम गांधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति कीआलोचना कर के जनता को उस राजनैतिक कार्र्यक्रम की प्रेरणा देना और जनता में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए सहानुभूति उत्पन्न करना था। सभा को उस समय के पंजाब कांग्रेस के वामपक्षी नेताओं उदाहरणत: डाक्टर सत्यपाल, डाक्टर किचलू, केदारनाथजी सहगल, पिंडीदासजी आदि का भी सहयोग मिल रहा था। लाला लाजपत रायजी इस समय पूर्णरूप से हिंदू महासभाई हो चुके थे और डाक्टर गोपीचंद भार्गव उनके अनन्य समर्थक बनकर राजनैतिक महत्व प्राप्त कर रहे थे। भगवतीचरण, भगत सिंह, सुखदेव, धन्वन्तरी, एहसान इलाही, पिंडीदास सोढ़ी और मैं सभा का कार्र्यक्रम निश्चित करने से लेकर जलसा करने के लिए दरियां ढोने और बिछाने का सभी काम करते थे। हम लोगों के फरार हो जाने के बाद हमारे कालेज के विद्यार्थी रामकृष्ण, धन्वन्तरी और एहसान इलाही सभा को चलाते रहे।
प्रकट आंदोलन से क्रांति का जितना प्रचार संभव था, नौजवान भारत सभा कर रही थी। यह सभा की ही हिम्मत थी कि 1914 के लाहौर षडयंत्र के मुकदमे में हंसते-हंसते फांसी चढ़ जाने वाले 18 वर्ष के नवयुवक कर्तारसिंह की बरसी 'ब्रैडला हाल' में सार्वजनिक रूप से मनाकर उसके चित्र का उद्धाटन किया गया था। यह उत्सव एक प्रकार से नौजवानों को सशस्त्र क्रांति की चेष्टा में सम्मिलित होने का निमंत्रण ही था। उत्सव का अनुष्ठान भी बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से किया गया। भगत सिंह ने शहीद कर्तारसिंह का एक छोटा सा चित्र खोज निकाला था। उस चित्र के आधार पर कर्तारसिंह का एक बहुत बड़ा चित्र भगवती भाई ने अपने खर्च पर बनवाया था। चित्र पर खूब श्वेत खद्दर का एक पर्दा लटका दिया गया था। दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी ने अपनी उंगलियों से रक्त निकाल कर इस पर्दे को छीटों से रंग दिया था। इस अवसर पर मुख्य भाषण भी भगवतीचरण ने ही दिया था।
नौजवान भारत सभा का क्रांतिकारी रूप उसके सामाजिक प्रयत्नों से भी प्रकट था। उग्र राजनैतिक व्याख्यानों के अतिरिक्त हम लोग सामाजिक भोजों का भी आयोजन करते थे। इन भोजों की विशेषता बहुमूल्य और स्वाद व्यंजन नहीं थी। इन भोजों में टाट बिछा लिए जाते। पत्तलों और सकोरों में खिचड़ी या चने का पुलाव और मठा ही परोसा जाता था। सभी संप्रदायों, वर्णों और जातियों के लोगों को इनमें सम्मिलित किया जाता था और सब लोग एक साथ बैठ कर एक दूसरे के हाथ से परोसा हुआ भोजन करते थे; एकअवसर पर तो कुछ दुस्साहसी नवयुवकों ने हलाल (मुसलमानों की सांप्रदायिक रूढ़ि के अनुसार काटे हुए पशु) और झटके (सिखों की सांप्रदायिक रूढ़ि द्वारा काटे हुए पशु) का मांस एक ही देग में पका कर गोश्त रोटी का भोज कर डाला जिसमें मुसलमान, हिंदू और सिख नौजवान काफी संख्या में सम्मिलित थे। यही गनीमत रही कि रूढ़िवाद से परेशान यह नवयुवक गाय और सुअर तक नहीं पहुंचे।
'नौजवान भारत सभा' सांप्रदायिक एकता को राजनैतिक कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग समझती थी परंतु इसकी दृष्टि में सांप्रदायिक एकता का मार्ग कांग्रेस के कार्यक्रम की तरह सभी सांप्रदायिक धारणाओं को फुसलाना नहीं था। अर्थात् हम लोग 'अल्ला हो अकबर', 'सत श्री अकाल' और 'वंदे मातरम्' के नारे एक साथ नहीं लगाते थे। इसके केवल दो नारे थे-'इंकलाब जिंदाबाद' और 'हिंदुस्तान जिंदाबाद'। इसके अतिरिक्त सभा रूढ़िवाद और सांप्रदायिकता के अंधविश्वास को दूर करना भी आवश्यक समझती थी। सभा की ओर से सार्वजनिक व्याख्यानों का भी प्रबंध किया जाता था; जिन में अन्धविश्वास और शब्द प्रमाण के आधार पर सांप्रदायिक आदर्शवाद का निराकरण करके वैज्ञानिक भौतिकवाद का परिचय लोगों को दिया जा सके। 'सर्वेंट्स आफ पीपुल्स सोसायटी' के प्रिन्सिपल छबीलदासजी का इस विषय में काफी सहयोग रहता था। अनेक मुसलमान साथी फजल, मन्सूर और एहसान इलाही भी खूब सरगरमी से भाग लेते थे।
एक दिन ऐसे ही व्याख्यान में छबीलदासजी के बाद मन्सूर या एहसान इलाही इस्लाम की अंधविश्वास की अतार्किक बातों का जिक्र कर रहे थे। हम यह उचित समझते कि प्रत्येक सम्प्रदाय की आलोचना यथासंभव उसी संप्रदाय के व्यक्ति से कराई जाय। उस समय श्रोताओं में से एक मुसलमान छुरा खींच बैठा कि वह वक्ता को कतल करेगा। इस धर्मांध भलेमानुस को पकड़ कर एक ओर ले जाकर समझाया गया कि इससे पहले वक्ता ने भी तो यही सब कहा था तब आप कैसे चुप बैठे थे? उसने आवेश में उत्तर दिया कि अगर कोई हिंदू या ईसाई इस्लाम की आलोचना करता है तो मैं सांप्रदायिक सहिष्णुता के नाते सहने के लिए तैयार हूं परंतु मुसलमान के मुख से इस्लाम की आलोचना सुनने के लिए तैयार नहीं हूं। उस समय व्याख्यान को समाप्त कर देना उचित न जंचा। इसका अर्थ होता भविष्य में हिंदू धर्मांध लोगों को भी इस प्रकार का फसाद खड़ा करने के लिए प्रोत्साहन देना। खैर, जैसे तैसे व्याख्यान पूरा हुआ। गड़बड़ की रिपोर्ट पुलिस में करने का परिणाम हमारे जलसों पर रोक लग जाना ही होता। इसलिए उन्हें चुनौती दी-''तुम्हें जो करना है, कर लो। अगर तुम अपने विश्वास के लिए मरने-मारने के लिए तैयार हो तो हम लोगों के भी दो-दो हाथ हैं और हमारी रोटी कौवा उठा कर नहीं ले जाता।'' सभा की चर्चा वास्तव में गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन के प्रकट रूप की ओर ध्यान दिलाने के लिऐ ही है क्योंकि आंदोलन की जड़ गुप्त क्रांतिकारी आंदोलन में ही थी। दल सभा द्वारा ही अपने ध्येय को एक सीमा तक जनता के सामने रख सकता था।
सन् 1926 की बात है; हम लोगों का जो कुछ थोड़ा बहुत संगठन उस समय तक बन पाया था उसके सब सूत्र जयचंद्रजी ही संभाले थे। दल नौजवान भारत सभा बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता था। हम लोगों को उससे कोई संतोष नहीं था। भगवतीचरण कुछ समय सभा के काम में लगाते, कुछ समय हिंदी साहित्य सम्मेलन में सहायता देते। इन कामों से संतोष न होता तो नौकरी तलाश करने की चेष्टा भी करते। भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण भाई भी बेचैनी अनुभव कर रहे थे। यह लोग क्रियात्मक कदम उठाना चाहते थे परंतु जयचंद्रजी व्यापक भौगोलिक और ऐतिहासिक शिक्षा और संगठन बढ़ाने और उसे फिर से छांट देने से आगे बढ़ना नहीं चाहते थे।
भगत सिंह ने पंजाब से दिल्ली और कानपुर जाकर दूसरे प्रांत के लोगों से संपर्क बनाने का निश्चय किया। भगत सिंह की लाहौर से बाहर जाने की इच्छा का एक कारण सरदार किशन सिंहजी की नाराजगी भी था। भगत सिंह घर के काम-काज की उपेक्षा कर केवल राजनैतिक कार्य में लगा रहता था। इस कारण उसके पिता उससे चिढे रहते और उस पर अपना अंकुश बढ़ा रहे थे।
भगत सिंह पिता को कोई सूचना दिए बिना लाहौर से दिल्ली पहुंच गया। दिल्ली से प्रकाशित 'अर्जुन' में पांव जमाने के लिए वह जयचंद्रजी का सिफारिशी पत्र लेता गया था। सिफारिश भी कैसी? कोई आदमी लगभग मुफ्त काम करने के लिए तैयार हो तो उसका स्वागत कौन नहीं करेगा। वह कुछ दिन 'अर्जुन' अखबार में काम करता रहा। अपनी निष्ठा और कठिन परिश्रम से उसने पंडित इंद्रजी विद्यावाचस्पति का विश्वास शीघ्र प्राप्त कर लिया था। अर्जुन में काम करते समय एक रोज अनुवाद करने के लिए एक तार दिया गया। तार था, 'चमनलाल, एडिटर डिफंक्ट नेशन ऐराइव्ड एट लाहौर'। भगत सिंह ने उसका अनुवाद किया, 'डिफंक्टनेशन के संपादक मिस्टर चमनलाल लाहौर पहुंच गए।' यह अनुवाद अर्जुन में छप भी गया।
इन्द्रजी ने अनुवाद की ओर भगत सिंह का ध्यान दिलाया परंतु भगत सिंह को इसमें कोई भूल दिखाई न दी। उसका ख्याल था कि चमनलाल 'डिफंक्टनेशन' नामक पत्र के सम्पादक हैं। इंद्रजी ने उसे डिफंक्ट शब्द का अर्थ डिक्शनरी में देखने का आदेश दिया और भगत सिंह को मालूम हुआ कि 'डिफंक्ट' का अर्थ 'बंद हो चुका हुआ' पत्र है। ऐसी ही एक और मजेदार बात भगत सिंह के उस समय के अंग्रेजी ज्ञान के बारे में याद है। सिनेमा देखने का शौक भगत सिंह को काफी था परंतु टिकट के लिए दामों की कठिनाई रहती थी। पिता से सिनेमा के लिए तो क्या जूता तक खरीदने के लिए दाम मांगना उसे गंवारा न था। घर के काम-काज के बारे में जब वह उन की बात मानने को तैयार नहीं था तो खर्चा कैसे मांगता। समस्या का एक ही हल था कि जरूरतों की परवाह न करना और कभी साथियों की जेब में पैसा देख लेने पर उसका उपयोग कर लेना। एक दिन जयदेव गुप्त ने उसे सिनेमा दिखाने का वायदा कर लिया था। तब हम लोग सिनेमा चवन्नी के टिकट में देखते थे परंतु चवन्नी का ही काफी मूल्य था! दो आने में तो घी चुपड़ी हुई तन्दूर की दो बड़ी-बड़ी रोटियां और मामूली छुंकी हुई दाल तरकारी का भोजन हो जाता था।
भगत सिंह को घी-दूध का शौक भी कम न था। अनारकली में कालू दूध-दही वाले के यहां सरदार किशन सिंहजी का उधार हिसाब चलता था। भगत सिंह जब चाहता वहां से दही-दूध खा पी सकता था और उसके साथ जो कोई हो, उसे भी खिला-पिला सकता था परंतु किसी तन्दूर या तबे पर उधार नहीं था। भगत सिंह सांडा(घर) जाने से कतराता था। रामकृष्ण ने ग्रेजुएट हो कर मोहनलाल रोड पर एक सुथरा सा होटल खोल लिया था। हम सब लोग खाने के लिए वहीं पहुंचने लगे थे। अपने लोगों में से कोई किसी समय खाना खा रहा हो तो वह होटल में चला आता। बिना किसी भूमिका के एक कुर्सी उठाकर वह सामने बैठ जाता और चपाती के बड़े से टुकड़े का दोना बना कर दाल के ऊपर तैरता हुआ घी एक ही बार में समेट मुंह में रख लेता। अगर राजाराम शास्त्री होटल में दिखाई दे जायें तो भगत सिंह जरूरी काम छोड़ कर, भूख न होने पर भी उन की कटोरी में से सब घी जरूर पी जाता। 'देखो, अरे देखो, क्या कर रहा है। अरे देखो तो इस जाट को'! शास्त्री जी हाथ फैलाये सहायता के लिए दुहाई देते रह जाते।
पंजाब में घी अधिक मात्रा में खाने का कुछ चलन था। उन लोगों को वह पच भी जाता था। एक दिन भगत सिंह से कुछ आवश्यक बात करते-करते मैं उसके गांव सांडा पहुंच गया भोजन का समय था। उसकी मां ने कहा पहले खा लो! एक बड़ीसी कटोरी में लौकी की तरकारी में घी इतना था कि भगत सिंह भी घबरा गया। वह झुंझला उठा-''मां इतना घी भी कोई खा सकता है? तुम तो तरकारी को बरबाद कर देती हो।''
भगत सिंह की मां ने गाल पर उंगली रख मुझ से शिकायत की, ''देख तो इस लड़के को; कुछ खाता ही नहीं। जरा सा घी भी इसे नहीं भाता। तभी तो सूख कर कांटा हो रहा है।''
भगत सिंह के लमतडंग़, हृष्ट-पुष्ट शरीर की ओर संकेत कर मैंने पूछा, ''अगर यह कांटा है तो फिर मैं तो हूं ही नहीं।''
मां को हंसी आई परंतु स्नेह की गाली दे मुझे डांट भी दिया, ''धत् नालायक। बात कहनी भी नहीं आती। बच्चों को ऐसे नजर लग जाती है।'' अस्तु !
मैं भगत सिंह के उस समय के अंग्रेजी ज्ञान का उदाहरण दे रहा था। जयदेव गुप्त ने संध्या समय भगत सिंह को साथ सिनेमा ले चलने का वायदा किया था। भगत सिंह जहां भी था, सिनेमा न चूकने के लिए भागा हुआ मकान पर लौट आया देखा कि जयदेव निश्चित लेटा हुआ कोई उपन्यास पढ़ रहा है। भगत सिंह ने अपने पांव से जयदेव के पांव पर ठोकर दे कर चेतावनी दी-''अबे उठ, सिनेमा का वायदा भूल गया?''
जयदेव ने लेटे ही लेटे चिढ़ कर कड़े स्वर में डांट दिया, ''अजीब जाहिल है, मेरी तबीयत खराब है इसे सिनेमा की पड़ी है। अभी डाक्टर के यहां से लौट रहा हूं। वह देख दवाई!'' उसने मेज़ पर पड़ी बोतल की ओर संकेत कर दिया।
भगत सिंह ने नरमी से पूछा-''क्या हो गया तुझे?''
जयदेव ने गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया, ''डाक्टर ने डिस्पेंसिया बताया है।''
अंग्रेजी का यह शब्द सुनकर भगत सिंह चुप रह गया। सिनेमा न जा कर सकने की कलख तो मन में थी ही। चुपचाप डिक्शनरी उठा एक कुर्सी पर बैठ गया और डिस्पेंसिया शब्द का अर्थ ढूंढने लगा। अर्थ देख कर उसने डिक्शनरी मेज पर पटक दी। उठ कर एक लात और जयदेव की कमर पर जमायी और बांह से खींच उसे खड़ा कर दिया, ''बदमाश! खा खा कर बदहजमी कर ली है। काहिल पड़ा सो रहा है, और ऊपर से दवाई ठूंसेगा?... डिस्पेंसिया कह कर डराना चाहता है? ''
जयदेव उलझता रहा कि उसका मन ठीक नहीं है परंतु भगत सिंह की दलील थी-''तुझे बदहजमी है। शाम को तुझे खाना नहीं चाहिए, इसलिए तेरे पास जो पैसे हैं वह मुझे सिनेमा देखने के लिए दे दे। तुझे न जाना हो, मत जा।''
भगत सिंह के तत्कालीन अंग्रेजी ज्ञान की चर्चा इसलिए की है कि अपने ही स्वाध्याय से उसने अंग्रेजी पर इतना अधिकार कर लिया था कि 'असेंबली बमकांड' के समय उसने जो पर्चें फेंके थे और ट्रिब्यूनल के सामने अंग्रेजी में जो लिखित बयान उसने दिए थे, उनकी भाषा की प्रशंसा प्राय: सभी लोगों ने की थी। कुछ लोगों ने कल्पना कर ली थी कि वे बयान भगत सिंह के नहीं वकील के लिखे हुए थे। इस कल्पना में कोई तथ्य नहीं है। अध्ययन भगत सिंह का स्वभाव था। जब भी देखो, उस के लंबे बेडौल कोर्ट की जेब में कोई न कोई पुस्तक रखी ही रहती थी। निरानी सड़क पर चलता हो तो चलते-चलते भी पढ़ता रहता था।
दिल्ली और कानुपर में भगत सिंह ने कैसे दिन बिताये होंगे; यह अनुमान उसके लाहौर लौटने पर उसकी सूरत देखने से ही हो जाता था। सिर के केश पगड़ी की जगह एक मामूली से अंगौछे में ही लिपटे हुए थे। शरीर पर केवल खद्दर का बंद गले का कोट। वही कोट जो लाहौर से जाते समय वह कमीज के ऊपर पहने था। अब कमीज नदारद थी। पायजामे की जगह लुंगी थी। पायजामे का आसन और कोट की आस्तीनें फट जाने पर पायजामे की टांगें कोट की आस्तीनों की जगह जोड ली थी। किसी तरह शरीर ढंका हुआ था। परंतु कोट की जेब में कोई पुस्तक जरूर थी। कानपुर में भगत सिंह ने पहले कुछ दिन अखबार बेच कर ही निर्वाह किया। फिर स्वर्गीय गणेशशंकरजी विद्यार्थी का विश्वास पा कर वह 'प्रताप' में काम करने लगा। कानपुर में रहते समय वह युक्तप्रांत के तत्कालीन क्रांतिकारी विद्यार्थियों शिव वर्मा, जयदेव कपूर और विजयकुमार आदि के सम्पर्क में आ गया परंतु क्रांतिकारी नेताओं तक उस की पहुंच न हो पायी थी।
युक्तप्रांत में क्रांति के काम को विस्तार से चलाने की योजना बनाई जा रही थी परंतु प्रश्न था साधनों का। गुप्त कार्यक्रम के लिए सार्वजनिक रूप से धन एकत्र नहीं किया जा सकता था। प्रभावशाली लोगों को विश्वास में लेकर बात की भी जाती तो उन्हें यह केवल लड़कपन जंचता था कि पन्द्रह बीस पिस्तौल ले कर ब्रिटिश साम्राज्यशाही से लड़ा जाय। धन की समस्या हल करने के लिए युक्तप्रांत के क्रांतिकारी दल 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन सेना' (एच.आर.ए.) ने लखनऊ जिले में काकोरी के समीप राजनैतिक डकैती करके रेलवे का सरकारी खजाना लूट लिया था। इस प्रयत्न के दो प्रयोजन थे, एक तो दल के आर्थिक संकट का उपाय करना और दूसरा विदेशी सरकार की शक्ति को चुनौती देकर उसकी प्रतिष्ठा पर चोट करना।
क्रांतिकारी दल ने चलती गाड़ी को रोक कर जब खजाना लूटा तो मुसाफिरों से कह दिया गया था, 'हम जनता के जानोमाल पर हाथ नहीं डालेंगे केवल सरकारी खजाना लेंगे।' काकोरी-डकैती तो हो गई परंतु उसमें विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। कुछ ही दिन बाद पुलिस को कुछ सुराग मिल जाने से गिरफ्तारियां भी शुरू हो गईं। कानपुर में भगत सिंह से संपर्क रखने वाले लोगों ने उसे परामर्श दिया कि तुम संदिग्ध अवस्था में हो। पुलिस अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियां कर रही है। इस लपेट में तुम्हारा भी आ जाना संभव है। तुम कानपुर से खिसक जाओ।
भगत सिंह कानपुर से दिल्ली लौट गया। कानपुर में पाये हुए सूत्रों के आधार पर वह दिल्ली में संगठन जमाने की चेष्ठा करने लगा। पंजाब में दल पर जयचंद्रजी अपना कब्जा जमाए हुए थे परंतु हो कुछ नहीं रहा था। भगत सिंह पंजाब से बाहर था। सुखदेव खिन्न हो लायलपुर चला गया था। भगवतीचरण भारतवर्ष के क्रांतिकारी आंदोलनों का एक श्रृंखलाबध्द इतिहास लिखने की चेष्टा करने लगे थे। भगवतीचरण के व्यक्तिगत आकर्षण के कारण हम लोग प्राय: 'ग्वाल मंडी' में उनके मकान 'शिव निवास' में आते जाते रहते थे। भगवतीचरण का मकान सुघड़ गृहस्थ का घर था। बेमतलब शोरशराबा उन्हें पसंद नहीं था। यों कभी कह देने पर या स्वयं उनके निमंत्रण दे देने पर वहां बढ़िया खाना मिल जाता था परंतु वहां उस समय तक भगत सिंह के मकान की तरह धर्मशाला न बन पाई थी।
भगवतीचरण और दुर्गा भाभी का विवाह काफी कम उम्र में ही हो गया था। विवाह के समय भगवती भाई की उम्र तेरह-चौदह की और भाभी की दस ग्यारह की रही होगी। दोनों ही परिवारों के बुजुर्ग पुरानी परिपाटी के थे। उन्होंने अपनी संतानों का विवाह करके अपना संतोष कर लिया था, जैसे छोटे लड़के-लड़कियां गुड्ड़े-गुड़िया का विवाह कर लेते हैं। यह भाग्य की बात थी कि दोनों ही ढंग के आदमी निकले। भाभी जब ससुराल आईं तो शायद रामायण और प्रेमसागर बांच लेती होंगी। भगवती भाई ने कभी स्वयं पढ़ाकर और कभी टयूटर रख कर उनकी पढ़ाई का क्रम सदा जारी रखा। उनके पुत्र शची का जन्म 1925 में हुआ था। इसके बाद वे किसी रूप में पढ़ाई लिखाई में लगी ही रहीं।
दुर्गा भाभी उस समय तक प्रकट रूप से सार्वजनिक कार्य में नहीं आई थीं। शायद अपने पति के लक्षण देखकर समझ चुकी थीं कि अपने जीवन के लिए वे पति और पैतृक जायदाद किसी भी चीज पर भरोसा नहीं कर सकेंगी। वे पंजाब यूनिवर्सिटी की हिंदी की परीक्षायें एक के बाद एक पास करती रहीं। 1926 में पंजाब यूनिवर्सिटी की 'प्रभाकर' की परीक्षा हम दोनों ने साथ-साथ ही दी थी। यह परीक्षा पास करके वे लाहौर के 'महिला कालेज' में हिंदी की लेक्चकर बन गई थीं। सार्वजनिक आंदोलत में सामने कभी न आने पर भी राजनैतिक कार्य और विशेष कर क्रांतिकारी गुप्त संगठन के प्रति उनका अनुराग गूंगे के गुड़ जैसा था। वास्तविकता यह थी कि वे मन ही मन ईर्ष्या से चुप रह जातीं, क्योंकि भगवती भाई सुशीला दीदी को कवि, त्यागी और प्रतिभा संपंन समझ कर उनसे तो क्रांति की बातें करते परंतु भाभी को 'देहाती बहू' समझ इन बातों की चर्चा नहीं करते थे। भाभी होंठ दबायें सिर खुजा कर रह जातीं, देखा जायगा!(क्रमशः)