बुधवार, 23 मार्च 2011

भगतसिंह -सुखदेव-राजगुरू की शहादत पर पं. मदनमोहन मालवीय, पटेल, नेहरू,सुभाषचन्द्र बोस की श्रृद्धांजलियां


पंडित मदनमोहन मालवीय

फांसी रुकवाने के लिए सभी तरफ से, सभी तबकों के लोगों की अपीलें आ रहीं थीं, ज्यादातर वायसराय के नाम थीं।
   मदनमोहन मालवीय ने वायसराय को एक तार भेजा, जिसमें लिखा था: ''क्या मैं आप से दरख्वास्त कर सकता हूं  कि आप अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी की सजा को आजीवन काला पानी कर दें।... इन नौजवानों का कोई निजी स्वार्थ नहीं था, बल्कि देशभक्त से प्रेरित था। यह देश के लोगों को एक गहरा झटका देगा।... इस समय आपकी तरफ से की गयी दया हिंदुस्तानी जनता की राय में एक फायदेमंद असर पैदा करेगी।''
   कराची सम्मेलन में प्रस्थान करने से पहले मालवीयजी ने प्रेस वार्ता में कहा था : ''इस फांसी से मुझे इतना दु:ख हुआ है कि मेरे मुंह से शब्द नहीं निकलते।''

सरदार वल्लभ भाई पटेल

अंग्रेजी कानून इस बात पर अभिमान से झूमता था कि वह गवाही में जिरह के द्वारा प्रमाणित किए बिना किसी अभियुक्त को सजा नहीं देता, परंतु उसी कानून ने ऐसी गवाही के विश्वास पर, जो घटना के बहुत देर बाद प्राप्त हुई थी और जिसमें जिरह का नाम न था- भारत के एक श्रेष्ठ युवक की हत्या कर डाली। किसी व्यक्ति को ढीठता और उच्छृंखलता के अपराध में सजा दी जा सकती है, परंतु उसे फांसी पर लटका देना कहां का न्याय है।

जवाहरलाल नेहरू

मैंने इन देश भक्तों के अंतिम दिनों में अपनी जबान पर लगाम लगा रखी थी, क्योंकि मुझे संदेह था, कि मेरे जबान खोलते ही कहीं फांसी की सजा रद्द होने में बाधा न पहुंचे। यद्यपि मेरा हृदय बिल्कुल पक गया था और खून अंदर से उबाल खा रहा था, परंतु तिस पर भी मैं मौन था। परंतु अब, फैसला हो गया। इस देश भर के लोग मिलकर भी भारत के ऐसे

युवक की रक्षा न कर सके, जो हमारा प्यारा रत्न था और जिसका अदम्य उत्साह, त्याग और विकट साहस भारत के युवकों को उत्साहित करता था। भारत आज अपने प्यारे बच्चों को फांसी से छुड़ाने में असमर्थ है। इस फांसी के विरोध में देश भर में हडतालें होंगी और जुलूस निकलेंगे। हमारी इस परतंत्राता और असहायता के कारण देश के कोन-कोने में शोक का अंधकार छा जायेगा। परंतु उनके ऊपर हमें अभिमान भी होगा और जब इंग्लैंड हम से     संधि का प्रस्ताव करेगा, उस समय उसके और हमारे बीच में भगत सिंह का मृत शरीर उस समय तक रहेगा, जब तक हम उसे विस्मृत न कर दें।



सुभाषचंद्र बोस

मार्च 1931 का महीना क्रांतिकारियों के नाम रहा। भगत सिंह अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। गांधी की छवि मलिन पड़ गई थी। जब भगत सिंह को फांसी दिए जाने की बात सामने आई तो दो लाख से भी ज्यादा लोगों ने उन्हें फांसी न देने के लिए अंग्रेज सरकार से अपील की।

   इतना ही नहीं सुभाषचंद्र बोस ने तो इसके खिलाफ 20 मार्च, 1931 को दिल्ली के आजाद मैदान में धरना दिया। धरना और आम सभा को रोकने के लिए वायसराय इर्विन ने गांधी के प्रभाव का प्रयोग किया। गांधी ने सुभाषचंद्र बोस से ऐसा न करने का  अनुरोध भी किया। सुभाषचंद्र बोस ने गांधी के सरकार परस्त आदेश को खुले आम ठोकर मारी और आम सभा को संबोधित करते हुए कहा :
   ''आज सारा हिंदुस्तान जानता है कि भगत सिंह और उनके साथियों-राजगुरु और सुखदेव को किसी भी वक्त फांसी दी जा सकती है। मुझे यह जरूर कहना चाहिए कि कल दोपहर जब मैं दिल्ली स्टेशन पर उतरा तो एक भयानक थक्के की शक्ल में यह खबर मुझे मिली।... हम सब एक जुट होकर और एक आवाज में यह कहते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों की यह सजा तुरंत बदल दी जाए। भगत सिंह आज एक आदमी नहीं है बल्कि तरुण भारत की एक पहचान हैं, भारतीय क्रांति के एक संस्थान हैं। वे विद्रोह की भावना के प्रतीक हैं जो कि आज पूरे भारत में फैली हुई है। हम उनके तरीकों से असहमत हो सकते हैं, मगर उनके नि:स्वार्थ देश प्रेम, त्याग और बलिदान की पवित्रा भावना को अनदेखा नहीं कर सकते। वे हमारे गर्व और गौरव के प्रतीक हैं। भारत माता की श्रेष्ठतम संतान हैं।
   ''जिस ढंग से उनके मृत शरीरों को दफनाया गया, उसके विषय में भी तरह-तरह की खबरें सारे पंजाब में फैल गईं। आज इतने दिनों बाद उस गहन शोक की कल्पना करना असंभव है जो सारे देश में एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया। विभिन्नदेश भर के लोग मिलकर भी भारत के ऐसे कारणों से भगत सिंह नौजवानों में नई जागृति का प्रतीक बन गया था। जनता की उत्सुकता यह जानकर ही शांत नहीं हुई कि वास्तव में उन पर लगाए गए कत्ल के इल्जाम के दोषी थे या नहीं, उनके लिए यह जानना काफी था कि वह पंजाब में नौजवान भारत सभा (युवा आंदोलन) का जनक था। उनके एक साथी जतीन दास शहीद की मौत मरे और वह और उनके साथी फांसी के तख्ते पर भी निडर रहे।
   ''सभी ने यह सोचा कि कांग्रेस की बैठक एक शोक की छाया में हो रही है। नव निर्वाचित अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सम्मेलन के पहले दिन के आमोद-प्रमोद को रद्द करने का आदेश दिया। यहां तक कि जब महात्मा कराची के निकट उतरे तो वहीं क्रुध्द प्रदर्शन किया गया और कई नौजवानों ने काले फूलों और काली मालाओं से उनकी अगवानी की। नौजवानों के एक काफी बड़े हिस्से की भावना यह थी कि महात्मा ने भगत सिंह तथा उनके साथियों के ध्येय के साथ विश्वासघात किया है।
   ''सम्मेलन में पारित किए गए प्रस्तावों में एक प्रस्ताव भगत सिंह और उनके साथियों के साहस तथा आत्मबलिदान की प्रशंसा करते हुए, हालांकि सभी हिंसा की कार्रवाहियों की भर्त्सना करते हुए पारित किया गया। यह प्रस्ताव बंगाल प्रदेश कांग्रेस द्वारा 1924 में पारित किए गए, 'गोपीनाथ साहा प्रस्ताव' से मिलता-जुलता था जिसे महात्मा ने कठोरता से अस्वीकार किया था। कराची में परिस्थितियां इस प्रकार बन गई कि यह प्रस्ताव ऐसे लोगों को रखना पड़ा जो सामान्य परिस्थितियों में इससे मीलों दूर रहते। जहां तक महात्मा का प्रश्न था, उन्हें अपनी आत्मचेतना को लचीला बनाना पड़ा। लेकिन यह काफी नहीं था। स्टेज की व्यवस्था को पूरी तरह व्यवस्थित करने के लिए सरदार भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह को मंच पर बुलाया गया और कांग्रेस नेताओं के समर्थन में उनसे बुलवाया गया।''

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