मंगलवार, 26 जुलाई 2016

लेखकों में पतित बनने की होड़

        इस समय हिन्दी के सत्ताधारी प्रगतिशील-कलावादी लेखक बड़े कष्ट में हैं।इन लेखकों की मुश्किल यह है कि वे वगैर राजनेता के संरक्षण के साहित्य-सेवा नहीं कर सकते।नामवर सिंह अपनी साहित्य टीम लेकर मोदीजी के पाले में चले गए हैं ।जबकि प्रगतिशीलों की दूसरी टीम जिसके मुखिया अशोक बाजपेयी हुआ करते हैं, वे नीतीश कुमार से मिले हैं, उनके सान्निध्य में साहित्य-रक्षा की कसमें ली गयी हैं, उनके साथ मंगलेश डबराल,अपूर्वानंद,विष्णुनागर,सीमा मुस्तफा,प्रिय दर्शन आदि मिले हैं, ये लोग राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प सुझाएंगे।

कायदे से लेखकों को इस तरह के राजनीतिक संरक्षण से बचना चाहिए।हम जानना चाहते हैं कि क्या जर्मनी के किसी लेखक ने हिटलर से लड़ने के लिए राजनीतिक संरक्षण मांगा थाॽ यह कौन सी राजनीति हो रही है कि लेखक को समाज में काम करने के लिए राजनीतिक संरक्षण चाहिए ! राजनीतिक संरक्षण वस्तुतः लेखक की गुलामी है । कम से कम नीतीश कुमार के बारे में यह साफ रहना चाहिए कि उनका कला-साहित्य-संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं है।यदि वे साहित्य-कलाओं के प्रति इतने ही गंभीर होते तो बिहार की दुर्दशाग्रस्त अवस्था न होती। लेखक काम करना चाहते हैं तो करें स्वतंत्र रूप से काम।कौन रोक रहा है।लेकिन संरक्षण लेकर काम करना लेखक के लिए मुसीबतें पैदा करता है।

असल में नामवरसिंह और अशोक बाजपेयी में यह सत्ता का अघोषित बंटबारा है, नामवरजी आप मोदी को संभालें, मैं (अशोक बाजपेयी) गैर मोदी सरकारों को संभालता हूं। इस तरह के साहित्यिक श्रम-विभाजन से साहित्य-कला –संस्कृति का कोई भला होने वाला नहीं है।दूसरी बात यह कि नीतीश बाबू चाहते हैं अशोक मंडली दिनकर को केन्द्र में रखे।हम जानना चाहते हैं क्या दिनकर के साहित्यिक बोझ को भी आज उठाना सही होगा ॽ

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