सोमवार, 25 जुलाई 2016

आरएसएस वाले नामवरजी का जन्मदिन क्यों मना रहे हैं ॽ

        आप जब नामवरजी से बातें करेंगे,मिलेंगे,तो मन होगा,इस आदमी से बार-बार मिलना चाहिए।बहुत ही सुंदर भाषा,उदात्त भाव और उदात्त जीवन तरंगों के कारण नामवरजी सहज ही आकर्षित करने लगते हैं। यही उदात्तता उनकी जनप्रियता का मूलाधार है।इसके कारम ही वे सबको अच्छे लगते हैं।

सवाल यह है जनप्रिय न होते तो क्या आरएसएस के लोग उनको बुलाते ॽ क्या कोई सत्ताधारी उनको बुलाता ॽ

किसी भी लेखक के अंदर एक आंतरिक मन होता है और दूसरा उसका बाह्य मुखमंडल होता है। इनमें साम्य हो सकता है, वैषम्य भी हो सकता है।यह भी कह सकते हैं लेखक की एक होती है आत्मा और दूसरा होता है मन।सवाल यह है लेखक को कहां खोजें ॽ मन में खोजें या आत्मा में ॽ

प्लेटो ने मन और आत्मा की एकता पर जोर दिया,लेकिन नामवरजी के मन और आत्मा में गहरा द्वंद्व है,अन्तर्विरोध है।जिस तरह हम प्लेटो के किसी मूल्यविशेष को खारिज कर सकते हैं,लेकिन प्लेटो के योगदान को खारिज नहीं कर सकते।यही दशा नामवरजी की है उनके किसी मसले पर नजरिए को खारिज कर सकते हैं,लेकिन उनके हिन्दी साहित्य में योगदान को खारिज नहीं कर सकते।उनकी बेहतरीन मेधा को अस्वीकार नहीं कर सकते,खारिज नहीं कर सकते।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कौन सी चीज है जो मनुष्य को महान बनाती है ॽ मैं चाहूँ या न चाहूं नामवरजी हिन्दी के महान आलोचक हैं।यह महानता उन्होंने कैसे अर्जित की है ॽ वे जनप्रिय क्यों हैं ॽ हर दल,संगठन,व्यक्ति उनको क्यों पसंद करता है ॽक्योंकि उनके पास साहित्यात्मा है।साहित्यात्मा को अर्जित करना सबसे मुश्किल काम है।साहित्यात्मा अर्जित करने के कारण वे इतिहास में शामिल हैं, इतिहास के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका है।वे जब तक जिंदा हैं साहित्य की हर बहस में घूम-फिरकर दाखिल हो जाते हैं,वे साहित्य की मासकल्चर हैं।

सवाल यह नहीं है कि उनका लिखा खराब है या बढ़िया है,सवाल यह है कि उनको छोड़कर हिन्दीवाले बात नहीं कर सकते।वे हिन्दीवाले के अंदर खाली जगह देखते ही मासकल्चर की तरह घुस जाते हैं।मसलन्,कोई विषय न हो तो नामवरजी पर बातें करो। मासकल्चर का यही लक्षण है वह खाली समय में तुरंत दाखिल होती है।आरएसएस वाले भी अपने खालीपन को भरने के लिए नामवरजी का इंदिरा गांधी कला संग्रहालय की आड़ में इस्तेमाल कर रहे हैं,उनका जन्मदिन मना रहे हैं।



यह कहा जाता है अच्छा आदमी जरूरी नहीं है महान हो,और महान आदमी जरूरी नहीं है अच्छा आदमी हो।यह बात नामवरजी पर सटीक बैठती है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से नामवरजीके जीवन में शैताननायक प्रवेश करता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...