गुरुवार, 7 जुलाई 2016

नास्तिकता की रचना प्रक्रिया



मनुष्य जब यह महसूस करने लगे या मानने लगे कि वह आत्मनिर्भर है।वह अपने तन-मन-धन का जब मालिक है तो ईश्वर की गिरफ्त से निकल जाता है। यानी जब वह स्वयं को नियंता मानने लगता है तो नास्तिक हो जाता है। अन्य पर निर्भरता का अभाव,अन्य के ऊपर आश्रित न होना,अन्य की कृपा पर आश्रित न होना वस्तुतःनास्तिक हो जाना है। मनुष्य के अस्तित्व का सर्जक और नियंता मनुष्य को मानना वस्तुतः नास्तिक हो जाना है।इस प्रक्रिया में ईश्वर के संदर्भ की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती।

नास्तिकता का आमतौर पर एक ही अर्थ जानते हैं। ईश्वर के अस्तित्व का निषेध। लेकिन नास्तिकता का असल अर्थ है स्वयं को जानना।आत्मबोध को प्राप्त करना।मैं कोई रत्न या पत्थर धारण नहीं करता,सोने की अंगूठी भी नहीं है।सारी अंगुलियां बिना रत्नों के हैं। इसके बाबजूद अनेक सुख-दुख आए और गए। कभी पत्थर या रत्न की जरूरत नहीं पड़ी। रत्नधारण करना एक कु-संस्कार है।
उल्लेखनीय है ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी नहीं था। काकोरी के प्रसिद्ध सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन प्रार्थना में गुजारे थे। रामप्रसाद बिस्मिल एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने बृहद अध्ययन के बावजूद, राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषद् एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सबमें सिर्फ एक ही व्य क्ति को देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, "दर्शनशास्त्र मनुष्य् की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है।" वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परंतु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की ।

चार्वाक मानते हैं- "यदि संसार में कोई स्वर्ग आदि के रूप में अलौकिक सुख मान्य नहीं है तो विद्वान लोग पर्याप्त धन एवं प्रयास से साध्य, यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान में सोत्साह प्रवृत्त क्यों होते हैं? लोग अत्यन्त श्रद्धा एवं उत्साह से इन भव्य आयोजनों में तत्पर देखे जाते हैं। फलत: अलौकिक सुख स्वर्ग आदि के रूप में अवश्य मानना चाहिए यह तर्क युक्त नहीं है। इन वैदिक अनुष्ठानों को; झूठा, परस्पर विरोधी एवं पुनरुक्ति दोष से दूषित होने के कारण प्रामाणिक किसी भी प्रकार से नहीं माना जा सकता है। अपने को वैदिक मानने वाले धूर्त्त आपस में ही एक दूसरे को खण्डन करते देखे जा सकते हैं। कर्म काण्ड को प्रमाण मानने वाले विद्वान ज्ञान काण्ड की, तथा ज्ञान काण्ड को प्रमाण स्वीकार करने वाले वैदिक विद्वान कर्मकाण्ड की परस्पर निन्दा करते देखे जाते हैं। इस प्रकार इन वैदिकों के व्यवहार से ही इन दोनों वैदिक मतों की नि:सारता स्वत: सिद्ध हो जाती है।"
चार्वाक यह भी मानते हैं- "संसार में कभी भी यह नहीं देखा गया है कि खेतों में किसान धान के बीज इसलिए नहीं बोता है कि धान को हरिण भविष्य में खाकर नष्ट कर देंगे। देश में भिक्षुक हैं इसलिए भोजन निर्माण के लिए कोई बटलोई चूल्हे पर न रखता हो ऐसा भी कभी नहीं देखा जाता है। इसी प्रकार यदि कोई दु:ख से अत्यन्त डरने वाला व्यक्ति सुख को छोड़ देता है तो वह पशु से भी बड़ा मूर्ख ही माना जायेगा। वास्तव में यह मूर्खता से भरा ही विचार होगा कि सुख दु:ख के साथ उत्पन्न होता है अत: सुख का सर्वथा परित्याग कर देना श्रेयस्कर है। क्या अपना हित चाहने वाला कोई मनुष्य कभी भी सफ़ेद एवं अच्छे धान के दानों को केवल इसलिए छोड़ता है कि वह धान भूसी एवं अनपेक्षित धूल से युक्त है। कभी नहीं। परिणामस्वरूप सुख पुरुषार्थ है यह सिद्ध होता है।"

महात्मा बुद्ध का मानना है मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दु:खों का समापन अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है।

बुद्ध यह भी मानते थे कि सत्य की खोज दु:खमोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की।

बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कहा है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो।

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