बुधवार, 13 जुलाई 2016

मथुरा के मायने-

     आपकी दशा मैं नहीं जानता,लेकिन अपनी तकलीफ का एहसास मुझे है और यह एहसास ही मुझे बार-बार मथुरा की ओर खींचता है।आमतौर पर शिक्षा के बाद आदत है कि जहां पैदा हुए,पले-बड़े हुए वहां पर नौकरी करना नहीं चाहते,बाहर जाना चाहते हैं।लेकिन मेरा मन हमेशा इस बात से परेशान रहा कि मुझे मथुरा में उपयुक्त काम ही नहीं मिला वरना मैं जेएनयू से पढ़कर मथुरा लौट आता। मुझसे पूछें तो यही कहूँगा कि नौकरी दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी है।नौकरी की तलाश में जब शहर छूटता है तो आपसे बहुत कुछ छूट जाता है।अपने लोग, परिवेश, भाषा,चिर-परिचित संस्कृति आदि आपके हाथ से एक ही झटके में निकल जाते हैं।अधिकतर नौकरीपेशा लोग अपने काम-धंधे में इस कदर मशगूल हो जाते हैं कि इस सांस्कृतिक जमा पूँजी के हाथ से निकल जाने से होने वाली सांस्कृतिक क्षति से अनभिज्ञ रहते हैं।लेकिन आजीविका की तलाश में इस सांस्कृतिक क्षति को हम सबको उठाना पड़ता है।हमारे पास कोई शॉर्टकट नहीं है कि इस क्षति से बच सकें।जन्मस्थान से पलायन एक स्थायी नियति है जिससे आधुनिककाल में पूरा समाज गुजरता है।

मैं मथुरा से जेएनयू पढ़ने के लिए 1979 में निकला तो जानता ही नहीं था कि कभी वापस नहीं लौट पाऊंगा।पढ़ते हुए मन में यही आशा थी कि कहीं मथुरा के आसपास ही नौकरी लग जाएगी और मथुरा से संपर्क-संबंध बना रहेगा।लेकिन बिडम्बना यह कि जैसा चाहा वैसा नहीं घटा।नौकरी की तलाश में ढाई साल तक इधर-उधर दसियों विश्वविद्यालयों में इंटरव्यू दिए।जेएनयू से पढाई खत्म करके निकलने के बाद दि.वि.वि. के दो कॉलेजों में इंटरव्यू देने के बाद तय किया कि कॉलेज में इंटरव्यू नहीं दूँगा और न नौकरी करूँगा।यही वजह थी कि विश्वविद्यालय में ही नौकरी के आवेदन करता रहा,परिचितों से खारिज होता रहा और अंत में कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में नौकरी मिल गयी।

कोलकाता अप्रैल1989 में आया और तबसे यहीं पर हूँ।यहां आने के पहले दिल्ली में था तो मथुरा जल्दी-जल्दी जाता था लेकिन कोलकाता आने के बाद मथुरा आने-जाने का सिलसिला टूट गया।अब साल-छह महिने में आना जाना होता है।इसके कारण मथुरा में नए दोस्त नहीं बने।पुराने दोस्त लगातार उम्रदराज होते गए और उनमें से अनेक थक भी गए हैं।मथुरा से दूर हुआ तो सबसे बड़ा अभाव मुझे का. सव्यसाची का महसूस हुआ।सव्यसाची सही मायने में मथुरा में रचे-बसे थे,वहां के लोगों से घुले-मिले थे,उनसे मिलकर हमेशा मजा आता था,उनकी अनौपचारिक बोलने की शैली और तीखी भाषा हमेशा अपील करती थी,वे मुझे कभी कॉमरेड नहीं कहते ”पंडितजी´´ कहकर बुलाते थे।पता नहीं क्यों उन्होंने मेरे लिए पंडितजी सम्बोधन चुन लिया,मैं नहीं जानता,जबकि मुझे कोई और पंडितजी नहीं कहता था।सव्यसाची के पंडितजी कहने का असर अन्य लोगों पर भी हुआ,इसके कारण और भी कई मित्र पंडितजी कहने लगे। लेकिन इन चंद मित्रों को अलावा सब नाम से ही बुलाते रहे हैं।मेरे मित्रों का सीधे नाम से पुकारना और सव्यसाची जी का पंडितजी कहकर पुकारना अपने आपमें मेरे व्यक्तित्व के उन पहलुओं को अभिव्यंजित करता है जो मुझे सामाजिक विकास के क्रम में मिले हैं,मेरे व्यक्तित्व में दो किस्म के व्यक्ति हैं।एक वह व्यक्ति है जो पिता और संस्कृत पाठशाला ने बनाया,दूसरा वह व्यक्ति जिसे मथुरा –जेएनयू के मित्रों और जेएनयू की शिक्षा ने बनाया।मजेदार बात है कि मैं इन दोनों को आज भी जीता हूँ।मुझे अपने बचपन के संस्कृत के सहपाठी और अग्रज जितने अच्छे लगते हैं उतने ही जेएनयू के मित्र और कॉमरेड भी अच्छे लगते हैं।



मुझे मथुरा का अतीत बार-बार अपनी ओर खींचता है,लेकिन जेएनयू नहीं खींच पाता।जेएनयू से पढ़कर निकलने के बाद 1989 से लेकर आज तक में मात्र 4बार ही जेएनयू गया हूँ।लेकिन इस बीच मथुरा बार-बार गया,उन पुराने स्थानों पर बार- बार जाता हूँ जो मेरी बचपन की स्मृति का अंग हैं,या मेरी फैंटेसी का अंग हैं।अपने जीवन के तजुर्बे से यही सीखा है कि जन्मस्थान का मतलब कुछ और ही होता है,जन्मस्थान आपके रगों में,इच्छाओं और आस्थाओं में रचा-बसा होता है,वह आपके व्यक्तित्व के निर्माण में बुनियादी रूप से भूमिका निभाता है।वह कभी पीछा नहीं छोड़ता।

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