बुधवार, 2 मार्च 2011

ममता का नायककेन्द्रित सांस्कृतिक खेल


      रेलमंत्री ममता बनर्जी भाषायी सांस्कृतिक संकीर्णतावाद का खतरनाक खेल खेल रही हैं। यह खेल राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। रेल को राष्ट्रीय एकीकरण का प्रतीक माना जाता है। ममता बनर्जी ने रेलमंत्री बनने के बाद से उसे बांग्ला सांस्कृतिक उन्माद और  नायककेन्द्रित सांस्कृतिक फासीवाद का औजार बना दिया है। कोई भी राजनैतिक दल ममता बनर्जी के इस हथकंड़े का प्रतिवाद नहीं कर रहा,यहां तक कि वोट की राजनीति के दबाब में वामदल भी मुँह बंद किए बैठे हैं।
       ममता बनर्जी को यदि यह लगता है रेल का देशज संस्कृति और संस्कृतिकर्मियों के साथ संबंध बनना चाहिए तो इससे राष्ट्रीय सांस्कृतिक पंगे उठ खड़े होंगे। जिस तरह ममता बनर्जी ने महज वोट पाने की सस्ती राजनीति के चक्कर में पश्चिम बंगाल में अनेक स्टेशनों का नामकरण नामी-गिरामी लोगों के नाम से किया है। यह उनके सांस्कृतिक प्रेम की नहीं बल्कि भाषायी उन्माद पैदा करने की कोशिश है।  नायककेन्द्रित सांस्कृतिक फासीवाद के फ्रेमवर्क में ही इसबार के रेलबजट में रवीन्द्रनाथ टैगोर और स्वामी विवेकानंद के नाम से नई गाडियां चलाने की घोषणा की गयी है।अनेक नायकों के नाम से रेलवे स्टेशनों के नाम भी सुझाए गए हैं। यह सीधे अंध बांग्ला क्षेत्रीयतीवाद और नायककेन्द्रित सांस्कृतिक फासीवाद है,इसे सांस्कृतिक प्रेम नहीं कहते। सांस्कृतिक प्रेम भाषायी अंधत्व से जब बंध जाता है तो सामाजिक टकराव पैदा करता है और ममता बनर्जी जाने-अनजाने यह काम कर रही हैं।यह खतरनाक खेल है। इसे बंद किया जाना चाहिए।
     रेल मंत्रालय यह निर्णय ले ही सकता है कि नामी-गिरामी सांस्कृतिक हस्तियों के नाम से रेलवे स्टेशनों के नाम रखे जाएं लेकिन यह काम सारे देश के पैमाने पर होना चाहिए और सभीभाषाओं के प्रति समान नजरिए के आधार पर होना चाहिए।रेल मंत्रालय मानक बनाए,संसद से अनुमति ले और लागू करे। लेकिन ममताबनर्जी ने देश की सभी भाषाओं के प्रति समान नजरिया अपनाने की बजाय रेल जैसी राष्ट्रीय संपदा का अपने अंध क्षेत्रीयतावादी राजनीतिक स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया है। देश में कहीं पर भी नामी सांस्कृतिक हस्तियों के नाम पर रेलवे स्टेशनों का नामकरण नहीं हुआ है। पश्चिम बंगाल में भी विगत 60 सालों में कभी नायककेन्द्रित नामकरण नहीं हुआ लेकिन ममता बनर्जी के रेलमंत्री बनने के बाद बंगाली हस्तियों के नाम से पश्चिम बंगाल में रेल स्टेशनों का नामकरण हो रहा है जो एकसिरे से गलत है।     
सब जानते हैं रेलबजट का पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनाव के साथ गहरा संबंध है और इस क्रम में रेलबजट में बंगाली क्षेत्रीयतावाद छाया हुआ है। ममता बनर्जी ने रेलमंत्री बनने के वाद सबसे खतरनाक काम यह किया है कि उसने रेल को नायककेन्द्रित सांस्कृतिक फासीवाद ,बांग्ला सांस्कृतिक संकीर्णतावाद और सांस्कृतिक उन्माद के उपकरण के रूप में खतरनाक ढ़ंग से इस्तेमाल किया है।
          रेल राष्ट्रीय संपत्ति है और इसका किसी भाषाविशेष के सांस्कृतिक उत्थान के लिए इस्तेमाल करना गलत है। सवाल उठता है ममता बनर्जी को भाषायी संकीर्णतावाद के प्रमोशन के लिए रेल को औजार बनाने का हक किसने दिया है ? वामदल और अन्य राजनीतिक दल  चुप क्यों हैं  ? रेल बजट में बंगाली क्षेत्रीयतावाद का आलम है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर और विवेकानन्द के नाम से नई ट्रेनें चलायी गयी हैं।उल्लेखनीय हैं अनेक हिन्दीभाषी रेलमंत्री हुए हैं लेकिन उन्होंने कभी किसी हिन्दीभाषी बड़े लेखक के नाम से ट्रेन नहीं चलाई। और न रेलवे स्टेशनों के नाम हिन्दी के लेखकों के नाम पर रखे गए।
        ममता बनर्जी ने जिस तर्क से उत्तमकुमार के नाम से एक स्थानीय रेलवे स्टेशन का नाम रखा है क्या उसी तर्ज पर वे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन का नाम फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के नाम से रखेंगी ? क्या यह बताने की जरूरत है कि अमिताभ का कद उत्तमकुमार से कम नहीं है,उत्तमकुमार बंगाल का महानायक है लेकिन अमिताभ समूचे देश के फिल्म उद्योग के निर्विवाद महानायक हैं। असल में ममता बनर्जी रेलवे स्टेशनों का नामकरण नायकों के नाम से करके  नायककेन्द्रित फासिस्ट सांस्कृतिकबोध का प्रचार कर रही हैं,यह राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र की बुनियादी स्प्रिट के खिलाफ है। नायककेन्द्रित रेल प्रकल्प सांस्कृतिक फासीवाद है। इसे किसी भी तर्क से स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह ममता बनर्जी का साहित्य या संस्कृति प्रेम नहीं है। ममता बनर्जी किस तरह अंध सांस्कृतिक उन्माद पैदा कर रही हैं उसका एक उदाहरण ही देना काफी है।
   हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' महिषादल में जन्मे । उन्होंने अपने जीवन के मूल्यवान कई दशक पश्चिम बंगाल में गुजारे । लेकिन उनके नाम से ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल के किसी स्टेशन का नामकरण करने की सुध नहीं आयी। यहां तक कि उनके जन्मस्थान के पास किसी रेलवे स्टेशन का नाम भी उनके नाम पर नहीं रखा गया। निराला में रवीन्द्ननाथ की अनेक खूबियां हैं,बंगाली जाति का सांस्कृतिक सौष्ठव भी है। वे हिन्दी के वैसे ही नायक है जिस तरह बांग्ला के रवीन्द्रनाथ हैं।
       पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिन्दीभाषियों की 30 से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका है इनमें बिहार और उत्तरप्रदेश के बाशिंदों की बड़ी संख्या है।  खासकर मैथिलीवासियों ने पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को जमकर वोट दिया जिसके कारण सुदीप वंद्योपाध्याय को कोलकाता उत्तर -पूर्व की सीट जीतने में सुविधा हुई। इन मैथिली भाषियों के नायक हैं बाबा नागार्जुन और उनका इस साल जन्मशती वर्ष है।  बाबा नागार्जुन समूची हिन्दी के आदर्श महानायक हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी उन्हें कैसे भूल गईं ? बाबा के नाम से कोई ट्रेन आरंभ क्यों नहीं की ?क्यों रवीन्द्ननाथ के ही नाम से ट्रेन चलेगी बाबा के नाम से नहीं चलेगी ?  बाबा नागार्जुन को मैथिली और हिन्दी का नजरूल कहा जाता है। ऐसे महाकवि का यह शताब्दी वर्ष है और बाबा के नाम से ममता बनर्जी को देश के किसी भी स्टेशन का नामकरण करने या उनके नाम से ट्रेन चलाने की आज तक याद क्यों नहीं आयी? हम सवाल करना चाहते हैं रवीन्द्रनाथ टैगोर और विवेकानन्द में ऐसा क्या है जो सुब्रह्मण्यभारती ,निराला और नागार्जुन में नहीं है। असल बात यह है कि रेल की ओट में ममता बनर्जी नायककेन्द्रित सांस्कृतिक फासीवाद की राजनीति कर रही हैं इसका प्रतिवाद होना चाहिए।   










3 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल इस सांस्कृतिक फासीवाद का पुरजोर विरोध होना चाहिए -हाँ रेल स्टेशन नहीं मगर ट्रेनों के नाम टैगोर मेल ,विवेकानन्द या निराला एक्सप्रेस हो तो स्वागत योग्य है ....

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  2. vamapanth ke talave chaatanevaale kalamaghissu....godhara par kya kahanaa hai..muh me dahi kyo jam gaya hai... intellectual banane chale hain...

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  3. सर, ममता जी सांस्कृतिक संकीर्णतावाद का खतरनाक खेल खेल रही हैं इस बात से इंकार नही करते लेकिन आम बजट में भी उसी क्षेत्रीयतावाद की गंध दिखी जहाँ विधानसभा चुनावों को देखकर लॉलीपॉप दिया गया| बाँकी राज्यों की अनदेखी हुई| विरोध तो यहां भी होना चाहिए|
    दूसरे अगर बंगाल की बात की जाये ती एम् सी एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरती हुई दिख रही है ऐसे में कांग्रेस राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए कभी विरोध करेगी नही| वामपंथी पार्टियां ऐसा करना चाहेगी नहीं क्योंकि अभी हुनो है और जनता का विश्वाश खोना वह भी नही चाहेंगी| यानि कुल मिलकर देखा जाये निजी स्वार्थ ज्यादा हावी दिखाई देता है|

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