रविवार, 13 मार्च 2011

अज्ञेय और समीक्षा का स्टीरियोटाइप


       कोलकाता में साहित्यकारों पर सुंदर आयोजन होते हैं। लेकिन मूल्यांकन केजुअल और स्टीरियोटाइप होता हैं। यहां लेखक का खूब स्वागत होता है,जलसे खूब होते हैं,लेकिन विचारों और मूल्यांकन के मामले में कभी कोई नयी बात नहीं उठती। बाहर से आने वाले विद्वान कोलकाता में केजुअल बोलते हैं,वैसे वे अब सब जगह केजुअल ही बोलते हैं। या किताबी बोलते हैं। यह फिनोमिना हाल में स.ही.वा.अज्ञेय के जन्मशती वर्ष पर आयोजित एक सुंदर कार्यक्रम में दिखाई दिया। किसी साहित्यकार पर किताबी और अप्रासंगिक बातें बोलने का अर्थ है हवा में बोलना। यह वैसे ही है जैसे अंधा कुत्ता हवा पर भूँकता है।
   हमारे समालोचक सिर्फ बोलने के लिए बोलते हैं ऐसी अवस्था में वे साहित्य की दुर्गति के साथ श्रोताओं की दुर्गति भी करते हैं। इन लोगों के कारण साहित्य शिक्षा की स्थिति तीन-तेरह की हो गयी है। अज्ञेय  और अन्य हिन्दी के लेखकों की शताब्दी पर बोलने वाले वक्तागण चिकने और गोलमटोल शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। इनके पास बताने के लिए कोई नया विचार नहीं होता,वे किसी नए रंग या पहलू का उदघाटन नहीं करते। इस तरह के समारोहों में भाग लेने वाले एक ही टोली के सदस्य हैं और यही टोली सभी साहित्यकारों से संबंधित आयोजनों पर मंचों की शोभा बढ़ा रही है। इस तरह के आयोजनों और बी.ए. -एम.ए. की कक्षा में अंतर नहीं है । लेखक के बारे में स्टीरियोटाइप बोलना,भावुक होकर बोलना,किताबी बोलना ये सब साहित्य ढ़ोंग है,पाखण्ड है । सेमीनार विचार-विमर्श का मंच हैं। साहित्य ढ़ोंग की जगह नहीं है। इस तरह के आयोजनों में उत्सवधर्मिता हावी है,विचार गायब हैं,नया मूल्यांकन गायब है। यह बाजार रीतिवाद है।
    अज्ञेय के बारे में दो बातें उल्लेखनीय हैं। ये दोनों बातें कविवर त्रिलोचन ने कही हैं। त्रिलोचन ने कहा है 'आधुनिक कविता का पहला संकलन है 'तारसप्तक' ।' यदि आधुनिक कविता का यह पहला संकलन है तो आधुनिक काव्य का नया अर्थ भी यहां पर होगा ? उल्लेखनीय है आरंभ में नामवर सिंह तारसप्तक को कचरा मानते थे। इस पर त्रिलोचन ने नामवर सिंह को सलाह दी थी कि तारसप्तक को ढ़ंग से पढ़ो। त्रिलोचन ने लिखा है ,"उन्होंने 'तारसप्तक' को बोधपूर्वक पढ़ा था। मेरे कहने पर जब उन्होंने भावपूर्वक पढ़ा तो बात खुलने लगी। अर्थात् यह संभव है कि मजाक बनाते बनाते कोई तदाकार हो सकता है। भृंगी कीट जिस कीड़े के चारों ओर चक्कर लगाता है,वह वैसा ही हो जाता है।" यह बात त्रिलोचन ने 28 मार्च 1968 में एक व्याख्यान कही थी। इन दिनों सेमीनारों में वक्तागण तदाकार होने की बात तो दूर रही संतुलन और बौद्धिक विवेक से भी काम नहीं ले रहे हैं।
       त्रिलोचन ने दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कही है कि आधुनिक कविता का पैमाना यह है कि वह छायावाद से अपने को कितना मुक्त करती है। 'तारसप्तक' में छायावाद का प्रभाव है लेकिन अज्ञेय ने सचेत रूप से अपने को छायावादी भावबोध से अलगाया है । त्रिलोचन का मानना है 'रूपाभ' से आधुनिकता शुरू होती है। आधुनिकता की गति अलग है वह किसी खास क्षण से शुरू नहीं होती। अज्ञेय पर आधुनिकतावादी होने का आरोप लगाया जाता है। यह बात आधुनिकता को सही परिप्रेक्ष्य में समझे बिना कही जा रही है। त्रिलोचन के शब्दों में 'आधुनिकता उस नए चरित्र को उभारती है जो समवर्ती जीवन में मिलता है।' अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में आयातित आधुनिकता का चित्रण नहीं किया है। उनके यहां आधुनिकता की पहचान पूंजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है। हिन्दी के अधिकांश समीक्षक आधुनिकता को पूंजीवाद के साथ जोड़कर नहीं देखते। उनके यहां पूंजीवाद का गंभीर विवेचन नहीं मिलता।
    अज्ञेय का सामाजिक सत्य के प्रति आग्रह था और अपनी रचनाओं के प्रति आत्मविश्वास था। वे अतीत के बोझ से एकदम मुक्त थे। यही चीज उन्हें कम्प्लीट आधुनिक लेखक बनाती है। यह चीज उनसे सीखनी चाहिए। अनेक आलोचक और शिक्षक अतीत की गठरी सिर पर रखकर कक्षाओं में जाते हैं और साहित्य के प्रति अरूचि पैदा करते हैं। साहित्य के पठन-पाठन का अर्थ अतीत का बोझ ढ़ोना नहीं है। अतीत के बोझ से साहित्य और व्यक्ति जितना मुक्त होगा उसके उतने ही आधुनिक होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी।
        दूसरा सवाल है कवि -आलोचक-शिक्षक-साहित्यकार बंधनों से कितना मुक्त है ? हिन्दी में कवि-लेखक -आलोचक इतने बंधनों में बंधे हैं कि उनसे निर्बंध रचना और आलोचना की उम्मीद ही नहीं कर सकते। जिस तरह एक अच्छी रचना के लिए लेखक के अंदर असंतोष का होना जरूरी है वैसे ही एक सेमीनारिस्ट के अंदर असंतोष का होना जरूरी है। असंतोष के बिना आप अच्छा और नया बोल नहीं सकते। भावुक प्रस्तुतियां,प्रशंसात्मक प्रस्तुतियां,भांडशैली की वक्तृता अंततः साहित्य का वातावरण नष्ट करती है ।
    वक्ता और लेखक में असंतोष तब पैदा होता है जब उसे जीवन की विषमताएं परेशान करती हैं। यह परेशानी जितनी गहरी होगी उतना ही उदगारों में बेचैनी और नयापन आएगा। सेठाश्रयी और सरकारश्रयी समारोहों में लोग बेचैन होकर नहीं बोलते। उनमें सामाजिक उद्विग्नता नहीं होती फलतः नए विचारों की सृष्टि नहीं होती।      
    अज्ञेय को एक जमाने में क्षणवादी-आधुनिकतावादी-अस्तित्ववादी कहा गया और यह सब काम हुआ शीतयुद्ध की राजनीति के तहत। शीतयुद्ध के दौरान बहुत कुछ समीक्षा ने गलत-सलत सोचा था। उसमें हिन्दी समीक्षकों का अज्ञेय पर लिखा भी आता है आज उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है,वह आलोचना का कचरा है।
   अज्ञेय ने 'अलगाव' पर सबसे ज्यादा लिखा है। आलोचना की त्रासदी यह है कि उसने 'अलगाव' को कभी आधुनिक पूंजीवादी फिनोमिना के रूप में नहीं देखा। यह पूंजीवादी विकास प्रक्रिया का सकारात्मक और स्वाभाविक फिनोमिना है। इसका आधुनिक राष्ट्र के साथ गहरा संबंध है। आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ 'जीवन का निजीकरण' होता है। 'पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता' पैदा होती है। ये सारी चीजें एक विशिष्ट ऐतिहासिक अवस्था की देन हैं। प्राचीनकाल में अलगाव का आदर्शकवि कालिदास है और अलगाव का आदर्श रस श्रृंगार रस का साहित्य है। प्राचीन साहित्य में अलगाव का जिस तरह का महिमामंडन कालिदास के यहां है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। कालिदास ने ऐसे नायक को पेश किया जो सर्वगुण सम्पन्न है। आनंद में मगन है। आनंद को व्यक्त करता है। कालिदास के पात्र जो कुछ करते हैं ,अपने लिए करते हैं। कालिदास के नायक प्रेम करते हैं अपने लिए ,युध्द करते हैं अपने लिए, अकेले ही सारी मुसीबतों का सामना करते हैं। एक तरह से समूची सृष्टि के साथ संघर्ष करते हैं।
प्राचीनकालीन समाज में रची गई रचनाओं को अलगाव के साथ सबसे पहले जोड़कर कार्ल मार्क्स ने देखा था। कार्ल मार्क्स ने अपनी डाक्टरेट थीसिस से विकास किया था। उसने एपीक्यूरियन कवियों को 'रोम के नायक कवि' की संज्ञा दी थी। यही स्थिति हमारे कालिदास की है। उन पर कभी अलगाव की अवधारणा की रोशनी में विचार नहीं किया गया। कालिदास ऐसा कवि है जिसका सभी चीजों से संघर्ष होता है और सभी चीजें नायक के साथ युध्द करती नजर आती हैं। कालिदास के पात्र आरंभ से ही अपने बारे में सोचते हैं, अपने लिए संघर्ष करते हैं और आनंद लेते हैं। अपने लिए संघर्ष करना और आनंद मनाना यही अलगाव की धुरी है। वह स्वयं के प्रति कठोर है, इनके सामने प्रकृति अपनी सारी अच्छाईयां खो देती है, अच्छाईयों के लिए शब्द अधूरे लगते हैं। अच्छाईयों के लिए शब्द नहीं मिलते।
      एपीक्यूरियन कवियों का नारा था ''वार ऑफ ऑल अगेंस्ट ऑल।'' यानी ''सबके खिलाफ और सबके लिए जंग।'' यही नारा भारत के प्राचीन कवियों का भी था। प्राचीन कवियों के यहां जीवन और आनंद के बीच अंतराल नहीं था। सारी चीजें शरीर में केन्द्रित थीं। शरीर प्रमुख विमर्श था। श्रृंगार का समूचा विमर्श शरीर और आनंद का विमर्श है। रस का सारा विमर्श शरीर को केन्द्र में रखता है। नख-शिख वर्णन में उसे सहज ही देखा जा सकता है। नायक का शरीर कैसा है, आंखें कैसी हैं, पीड़ा कैसी है, चिन्ताधारा कैसी है और नायक जब चिन्ता में घिरा होता है तो कैसे कृशकाय हो जाता है और जब नायक युध्दरत होता है तो उसकी भंगिमाएं,शारीरिक सौष्ठव किस तरह का होता है ? इसी तरह नायिका जब कृति में आती है तो सारी ऊर्जा उसके शरीर के सौंदर्य वर्णन पर ही खर्च की गई। कहने का तात्पर्य यह कि प्राचीन कवि 'स्व' से बेहद प्यार करता है। शरीर से बेहद प्यार करता है। प्राचीन महाकाव्यों में निज के बहाने ,शरीर और उसके आनंद की सृष्टि पर जोर है। शरीर का विमर्श अलगाव का विमर्श है। भगवान के बारे में भी जब कवि रूपायन करने बैठा तो शरीर ही प्रमुख विषयवस्तु था। शरीर,स्व,आनंद और निजता ये चार चीजें हैं जो अलगाव के कारण कृति के केन्द्र में आयीं। अन्तर्विरोधों के बिना इन चारों चीजों का विकास संभव नहीं है।ये चार चीजें अज्ञेय के लेखन में भी प्रमुख हैं।
    लेखक के अस्तित्व की परिस्थितियां उसका जीवन से अलगाव पैदा करती हैं। अलगाव के कारण लेखक बाहरी चीजों को आत्मसात करता है और अपने अलगाव को अभिव्यक्त करता है। इस क्रम में वह अपने अस्तित्व के रूपों से स्वायत्त नजर आता है। परम नजर आता है। मार्क्स के शब्दों में यह 'अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता' है।
मार्क्स ने प्राचीन काल में अलगाव को उत्पत्तिपरक रूप में विश्लेषित करते हुए ' पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता' और '' अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता'' की चर्चा की है। मार्क्स के अनुसार आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ यह धारणा नकारात्मक नहीं रह जाती बल्कि सकारात्मक हो जाती है। सकारात्मक शक्ति बन जाती है। सकारात्मक का अर्थ है 'वास्तव' और 'अनिवार्य'। इसके लिए किसी नैतिक स्वीकृति की जरूरत नहीं है। इस ऐतिहासिक प्रवृत्ति का आधुनिक राष्ट्र में 'आत्मकेन्द्रित' रूप में विकास होता है। 'पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता ' के लिए आधुनिक राष्ट्र स्वाभाविक परिस्थितियां पैदा करता है।
      अलगाव का आधार है 'आत्मकेन्द्रिकता' ,इसका '' सबके खिलाफ और सबके लिए जंग'' की धारणा से गहरा संबंध है। इस धारणा के आधार पर आंतरिक वैधता ,प्रकृति के सार्वभौम नियमों की वैधता और आंतरिक अनुभूति को महत्वपूर्ण माना गया। आधुनिक समाज व्यक्ति को अपने साथ एकीकृत नहीं करता, कुछ तो यह संयोग की बात है और कुछ व्यक्तिगत प्रयासों के ऊपर भी निर्भर करता है। मार्क्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार सुख भोगता है। राजनीतिक अर्थ में बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपने को राष्ट्र से पृथक् कर लेता है। अपनी निजी अवस्थाओं को राष्ट्र से अलग कर लेता है। जहां उसकी मनुष्य,राष्ट्र,,समुदाय और मानवीय निर्धारणकर्त्ता के रूप में महत्ता उद्धाटित होती है। व्यक्ति के अन्य गुण सामने आते हैं और वे उसके अस्तित्व को निर्धारित करने में मदद करते हैं। मार्क्स के अनुसार मनुष्य का व्यक्ति के रूप में अस्तित्व बुनियादी तत्व है। बुर्जुआ समाज में व्यक्तिवाद और व्यक्तिगत अस्तित्व ही अंतिम सत्य है। बाकी सब चीजें जैसे श्रम,गतिविधियां बगैरह इसके साधन हैं। बुर्जुआ समाज में वास्तव आदमी निजी व्यक्ति (प्राइवेट इण्डिविजुअल) होता है। यह ऐसा व्यक्ति है जो मूलत: बाहरी और भौतिक है।
   अनेक समीक्षकों ने अज्ञेय की कृतियों में लेखक के निजी जीवन को खोज लिया है,दूसरी ओर पाठक उनकी रचनाओं में अपने जीवन के पहलुओं को खोज रहे हैं। साहित्य पढ़ने का यह तरीका गलत है।
सआदत हसन मंटो ने साहित्य के बारे में लिखा है अदब एक फ़र्द(आदमी) की अपनी जिंदगी की तस्वीर नहीं। जब कोई अदीब कलम उठाता है तो वह अपने घरेलू मामलात का रोजनामचा पेश नहीं करता। वह अपनी ज़ाती ख्बाहिशों,खुशियों,रंजिशों ,बीमारियों और तंदुरूस्तियों का जिक्र नहीं करता।उसकी कलमी तस्वीरों में,बहुत मुमकिन है,आँसू उसकी दुखी बहन के हों,मुसकराहटें आपकी हों और क़हक़हे एक खस्ताहाल मज़दूर के। इसलिए अपनी मुसकराहटों,अपने आँसुओं और अपने क़हक़हों की तराज़ू में उन तस्वीरों को तोलना बहुत बड़ी ग़लती है।









                   


1 टिप्पणी:

  1. यह सही है कि आज का आलोचक बंधनमुक्त नहीं है- वह गुट या आपसी सम्बंध से बंधा हुआ है। अच्छा और ज्ञानवर्धक लेख के लिए आभार॥

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