शनिवार, 5 दिसंबर 2009

रियलिटी टीवी की कलाबाजियां -2




यह देखा गया है कि टेलीविजन अथवा  मीडिया विश्व की घटनाओं के संदर्भ में कम से कम भूमिका अदा करता है। ये घटनाएं रोजमर्रा की जिंदगी में सुनते रहते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में एक से बढ़कर एक बहादुराना और खतरनाक घटनाओं को देखते और सुनते हैं किंतु टीवी पर ये घटनाएं कभी नजर नहीं आतीं। टेलीविजन में अपराध की रिपोर्टिंग को ही लें।
      अपराध की घटनाओं को परफेक्ट क्राइम के रूप मे पेश किया जा रहा है। परफेक्ट क्राइम की घटना बनाते समय उसे महज सूचना में तब्दील कर दिया जाता है। परफेक्ट क्राइम लोगों को आकर्षित करता है,यह ऐसा अपराध है जो उन्हें जिंदगी में अपराध से पार्थक्य रखना सिखाता है। अपराध को परफेक्ट अपराध बनाते समय टीवी अपराध को तुच्छ,साधारण अपराध,उपेक्षणीय अपराध बनाता है। अपराध की तुच्छता  इनदिनों भवितव्यता अथवा नियति के रूप में आ रही है। जाहिर है जब भाग्य ही खराब है तो मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। उसे भाग्य को मान लेना होगा। समर्पण कर देना चाहिए। मनुष्य से बड़ा है उसका भाग्य या नियति। ऐसी अवस्था में मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता।
     हमारे बीच में 'बिगब्रदर' जैसे रियलिटी शो आ रहे हैं जिनमें बेडरूम की वास्तविकता एक नियति के रूप में आ रही है,हमारी इच्छा इस नियति को देखने की होती है। हम ज्योंही इसके दृश्यों को देखना शुरू करते हैं,हम स्वयं को मीडिया ऑब्जेक्ट के रूप में देखना शुरू कर देते हैं।
     देवोर्द ने लिखा  स्पेक्टकल यानी नजारा, शिरकत और अराजनीतिकरण का उपकरण है। यह स्थायी अफीम युध्द है। जिसमें सामाजिक विषयों को मूर्खतापूर्ण ढ़ंग से पेश किया जाता है। इनके जरिए वास्तव जीवन के सबसे ज्यादा जरूरी कार्यभारों से ध्यान हटाने की कोशिश की जाती है।  मनुष्य की समस्त शक्तियों को नए सिरे से क्रांतिकारी परिवर्तनों के जरिए अर्जित किया जाता है। देवोर्द के अनुसार नजारे की धारणा अलगाव की धारणा से अभिन्न रूप से जुड़ी है। यह निष्क्रियभाव से नजारे को हजम करने के प्रयास निजी जिंदगी में सक्रिय रूप से व्यस्त होने,कुछ नया निर्मित करने के भाव से पृथक करते हैं,अलग ले जाते हैं।
     पूंजीवादी समाज में अलगाव सबसे बड़ा फिनोमिना है। श्रमिक का अपने उत्पाद से अलगाव है। कला का जीवन से अलगाव है। उत्पादन के परिवेश का उपभोग के परिवेश से अलगाव है। ऐसी अवस्था में दर्शक निष्क्रियभाव से सामाजिक जीवन के उत्पादों को देखता है। ऐसी अवस्था में हाइपररियलिटी यथार्थ के परे जाकर अभिव्यक्त करती है। यथार्थ का महिमामंडन प्रतीक रूप में होने लगता है इसके कारण उसका प्रासंगिक हिस्सा अप्रासंगिक हो जाता है।
      रियलिटी टेलीविजन में बौद्रिलार्द की इस धारणा को साफतौर पर देख सकते हैं कि तथ्य में अश्लीलता होती है। फलत: ''कुछ भी देखने की जरूरत नहीं है।'' यही वह दर्शक है जो अन्य को देखने की इच्छा रखता है,समत्वभाव से देखना चाहता है,टेलीविजन का गवाह बनते हुए देखना चाहता है। बौद्रिलार्द  ने लिखा है  अब सब विषय स्वयं का ही प्रतिबिम्ब बन जाते हैं। इन्हें कई गुना बड़ा किया जा सकता है किंतु आप इसमें से किसी एक फार्ले के ही कायल हो सकते हैं। यह विखंडित विषयों का जगत है। हम उसमें एक फार्मूले का सपना देखते हैं जिसके जरिए स्वयं को अनंत रूप में पुनर्प्रस्तुत कर सकें। रियलिटी टेलीविजन हमारी समत्व की वस्तुगत वास्तविक आंतरिक इच्छाओं के साथ अश्लीलता और पोर्नोग्राफी के प्रति हमारे आकर्षण को हवा देता है।
बौद्रिलार्द ने लिखा है टेलीविजन में हाइपररियलिटी सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट का भेद खत्म कर देती है। अब हम यथार्थ में डूब जाते हैं। 'टेलीविजन नियंत्रण की स्क्रीन' बन जाता है। बौद्रिलार्द ने ड्राईविंग के रूपक का इस्तेमाल किया है। जिस तरह हमारा ड्राईविंग के साथ संबंध है वैसा ही टेलीविजन के साथ संबंध है। अब हम उपकरण के नियंत्रक नहीं होते। बल्कि हम नियंत्रण के विषय होते हैं। नए युग में 'कम्प्यूटर ही चक्का '' है। बौद्रिलार्द का तर्क है टेलीविजन ही हाइपररियलिटी का स्पेस पैदा करता है। यथार्थ का अतिक्रमण करता है। मेटाफिजिक्स को अपदस्थ करता है। हमारी भावनाओं का अंत हो जाता है। अब हम ''अंतरंगता के विषय'' नहीं रह जाते।
      टेलीविजन के बहुस्तरीय नेटवर्क सैटेलाइट को नियंत्रित करने की बजाय टेलीविजन ही हमारे घर में घुसपैठिए की तरह घुस आता है। वह हमारे जीवन के कार्य,उपभोग,खेल, सामाजिक संबंध और आनंद में घुसपैठिए की तरह घुस जाता है।यथार्थ को हाइपररीयल अपदस्थ करके बेकार कर देता है। अनुपयोगी बना देता है। वह हमारे दर्शकीयभाव को मिथ्याभास से भर देता है। हम टेलीविजन की घटनाओं के अनुसार मिथ्याचरण करने लगते हैं। घर में सामाजिक संबंध नष्ट हो जाते हैं। आमने-सामने बातें करने या सम्प्रेषित करने की संभावनाएं कम हो जाती हैं। यथार्थ 'निर्देशित' रूप ले लेता है। टेलीविजन हमारे मानवसंबंधों की इच्छाओं और आदर्शों को अपदस्थ कर देता है। हमें आवयविक तौर पर सही अर्थों में शरीर बना देता है। घटनाओं को सुपरफलुअस बना देता है। अश्लीलता हमें आकर्षित करने लगती है और आवयविक को यांत्रिकता अपदस्थ कर देती है। इस अवस्था में विज्ञापन के सर्वव्यापी यथार्थ -अपनी अश्लीलता को लागू करने के लिए- का सार्वजनिक जीवन में एकाधिकार स्थापित हो जाता है। यही मूलत: रियलिटी टेलीविजन हमें दिखाता है,जिसमें हाइपररीयल में मिथ्याभास का वर्चस्व दिखाई देता है, टीवीयथार्थ को वास्तव के मध्यस्थ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा लगता है गोया टीवीयथार्थ का अस्तित्व है।
    अमरीका में सन् 1971 से रियलिटी शो चल रहे हैं। इन शो को देखने के बाद बौद्रिलार्द ने लिखा ''हम परमानंद या समाधि के संप्रेषण युग में जी रहे हैं। इसे समाधि संचार भी कहते हैं। यह अश्लील इस अर्थ में है क्योंकि निजी जिन्दगी का उद्धाटन करता है। प्रत्येक निजी चीज,कार्य,हरकत,इमेज आदि को आईने की तरह दिखाता है। अश्लीलता प्रत्येक किस्म की प्रस्तुतियों का अंत कर देती है। सिर्फ कामुक पोर्नोग्राफी ही अश्लील नहीं होती बल्कि आज तो सूचना और संचार का समस्तरूप पोर्नोग्रफिक रूप ग्रहण कर चुका है। यह परंपरागत अश्लीलता नहीं है। परंपरागत अश्लीलता वह थी जो छिपी हुई थी किंतु नए युग की अश्लीलता वह है जो पूरी तरह सूचना और संचार में घुलकर नष्ट हो चुकी है।''
    यह गोपन अश्लीलता है जो हठात् उद्धाटित हो गयी और दिखने लगी। सेक्स,स्कैंण्डल, गॉसिप आदि एक जमाने में बुरी चीजें माने जाते थे किंतु आज सार्वजनिक तौर पर छोटे पर्दे पर इनका विस्फोट हो रहा है। आंतरिक और बाहरी के भेद का अचानक लोप हो जाना,वस्तुत: सामयिक उन्माद है। इसके कारण हम आतंरिक और बाह्य के बीच में अंतर नहीं कर पाते। अब विषय के रूप में व्यक्तिवादिता बच गयी है और बाहरी तत्व के साथ ऑब्जेक्ट के रूप में विशिष्टता खत्म हो चुकी है। फलत: अश्लील है। यही वह जगत है जिसमें हम जीते हैं।
    आज व्यक्ति पूरी तरह हाइपररियलिटी के रहमोकरम पर निर्भर है। शुध्द स्क्रीन और नेटवर्क के नियंत्रणकक्षों के प्रभाव में व्यक्ति जिंदा रहने को अभीशप्त है। बौद्रिलार्द के अनुसार 'शरीर' और आत्म या सेल्फ अब पूरी तरह इमेज से वैधता प्राप्त करते हैं। हम इन्हें विभाजित करके वस्तुकरण के रूप में,पूंजीपति और विज्ञापन कोड के रूप में धारण करते हैं। आज आत्म पर मीडियाजगत ने पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। आत्म आज उन्मादित है,व्यक्ति का इमेज और यथार्थ में विभाजन हो गया है। व्यक्ति आज पूरी तरह 'अकेन्द्रित' है। उस पर इमेजों का वर्चस्व है।
हाइपररीयल आज हमारे जीवन में संदर्भ की तरह सक्रिय है। इससे हम अपनी पहचान बना रहे हैं। यह पहचान मिथ्या हो या वर्चुअल हो,किंतु पहचान बना रहे हैं। हाइपररीयल ज्ञानमीमांसात्मक फ्रेम के रूप में काम नहीं करता बल्कि व्याख्या के फ्रेम के रूप में काम करता है। जिसके जरिए हम अपनी पहचान,संबध्दता,एजेंसी आदि के बोध को अर्जित करते हैं।
     

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