आज मानव के सामने स्वप्न एवं जीवन की सच्चाई के बीच की मरूभूमि हमारे सम्मुख आकर खड़ी हो जाती है। हर तरफ अन्तर्विरोध एवं द्वन्द्व के बीच कवि बड़ी तेजी से समाज में नैतिक-मूल्यों के टूटने-बिखरने की ध्वनियाँ सुन रहा है। गहन संवेदना से लबालब इन कविताओं में गाँव की सोंधी माटी की महक और लोक ध्वनि बार-बार गूँजती है। उपभोक्तावाद ने हमारे नैतिक-मूल्यों का ह्रास बड़े पैमाने पर किया है। यदि समाज की मूल्यहीन वर्तमान गतिविधियों को देखे तो पाएंगे कि बाजारवाद के बढ़ते वर्चस्व ने हमारे सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य को ही बदल कर रख दिया है। आपसी संबंधों का कोई महत्तव नहीं रह गया है। व्यक्ति अवसरवादी होता जा रहा है। वह वक्त आने पर अपनों का खून भी करने से नहीं चूकता है-''निश्चित ही/ इस बीच जुड़ रहे है/ कुछ नए रिश्ते/ अभी-अभी जवान जिस्म से/ टपके गाढ़े खून के उजास में।'' - (गाढ़े खून के उजास में, पृष्ठ-92)
आर्थिक उदारीकरण ने सामाजिक जीवन की सभी अवधारणाओं को विघटित कर दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत में अन्तर्कलह, वर्ग-संघर्ष, क्षेत्रीयवाद, वर्चस्ववाद, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आदि का मानव जीवन में हस्तक्षेप बढ़ा है। मानवीय अस्मिता और मानवता पर खतरा बढ़ रहा है, वहीं मनुष्य मानसिक पीड़ा, कुंठा, भय, टूटन और निराशा में डूबता जा रहा है। आज का मनुष्य आर्थिक दबाव में पिस रहा है। मंहगाई, भ्रष्टाचार, आतंक,, हिंसा और आत्महत्या में वृध्दि हुई है। 'ग्लोबल समय,जुलूस और शांता चाची' कविता में कवि उत्तार आधुनिक काल की चमचमाती वस्तुओं के लदे-फँदे बाजार में नए साम्राज्यवाद के खिलाफ़ मेहनतकशों द्वारा विरोध करते देखकर अनुभवों से भरे शांता चाची के चेहरे पर खुशी का उभरना इस बात की ओर संकेत करता है कि पूँजीवादी ताकतों का सामना करके ही अपने हक के लिए लड़ा जा सकता है और एक नए युग का निर्माण किया जा सकता है। भूमंडलीकरण की पदचाप भारत की सभ्यता और साँस्कृतिक विरासत पर स्पष्ट सुनाई पड़ने लगी है। समसामयिक युग-चेतना से जुड़ी होने के कारण कविता की व्यक्ति से निकटता बढ़ रही है। अनुभूति, विचार और संवेदना की दृष्टि से महेन्द्र नेह की इन कविताओं का वैचारिक फलक विस्तृत है। किसानों और मजदूरों के संघर्ष भरे जीवन और उनकी विडम्बनाओं को बड़े ही सहज अन्दाज में चित्रित करती उनकी कविताओं में समाज से उठती अमानवीयता की दुर्गन्ध के बीच शोषितों, दलितों, पीड़ितों आदि मजदूर वर्ग की कराहें स्पष्ट सुन सकते हैं-''वे हमारी ऑंखें निकालते हैं/और हमारे हाथों में/जुम्बिश नहीं होती/वे हमारे हाथ उतारते है/और हमारे पाँव में/हरकत नहीं होती/ वे हमारे पाँव काट देते हैं/ और हमारी ऑंखों में खून नहीं उतरता।'' (कुतुबनुमा, पृष्ठ-79)
वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और शोषणकारी ताकतों के विरूध्द सबसे अधिक शोषित या उत्पीड़ित वर्ग ही अपनी पूरी शक्ति के साथ परिवर्तनकारी संघर्ष करके अपनी मुक्ति के रास्ते तलाशता है। महेन्द्र नेह की कविताएँ एक निश्चित उद्देश्य की दिशा में आगे बढ़ती हैं और वह उद्देश्य है आत्ममुक्ति से मानव मुक्ति के मार्ग की खोज। इसी कारण महेन्द्र नेह की इन कविताओं में समाज और व्यवस्था के प्रति विद्रोह, आक्रोश और जनवादी तेवर साफ-साफ दिखाई देता है। एक बड़े परिवर्तन की आहट इन कविताओं में सुनाई देती है,जिसके संदर्भ में मुंशी प्रेमचंद उचित ही कहते हैं-''......अब एक सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम में उदय हो रहा है, जिसने इस नारकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है....सारे अंधकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्याति का उजाला फैला रही है।'' इस नई सभ्यता की मशाल को लेकर चलने वाला अगला दस्ता किसानों और मजदूरों का है। तभी तो कवि को मेहनतकशों की चुप्पी में प्रतिशोध की ध्वनि सुनाई दे रही है जिससे धरती पर एक बार फिर परिवर्तन अवश्य होगा। कवि का यह आशावादी स्वर इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-''इंसानी फसलों को तबाह करते/खूनखोर जानवरों ने/रख दिए हैं अपने/भारी-भरकम बूट/पाँवों सहित तोड़ दिए जाएँगे बूट/तब हिंसा नहीं/प्रतिहिंसा होगी मुखर/धरती/अपनी धुरी पर/तनिक और झुकेगी/और तेजी से थिरक उठेगी तब।''- (फिल वक्त, पृष्ठ-22)
किसानों और मज़दूरों के जीवन के प्रति गहरी संवेदना रखने वाले जनकवि महेन्द्र नेह की ये कविताएँ वर्तमान के विध्वंसकारी समय का आईना हैं जिसमें मजदूर वर्ग की छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है। कवि को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास भी है तभी तो कहते है-''आज समय फिर से मांग कर रहा है कि शासक-वर्ग की जन विरोधी कुसंस्कृति के विरूध्द जन-पक्षधर संस्कृति अपने श्रेष्ठ सृजनात्मक, मुखर और प्रतिरोधी रूप में एक नव-अभ्युदय, नव-जागरण और नव-प्रबोधन का वातावरण तैयार करे।'' यही कारण है कि उनकी कविता का अधिकतर भाग इस मज़दूर वर्ग की जिन्दगी और उस जिन्दगी के बीच से ग्रहण की गई अनुभूतियों, विचारों और घटनाओं से निर्मित है जिसमें उसे घुट-घुटकर जीना पड़ रहा है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखे तो इन कविताओं में शोषणकारी ताकतों का पुरजोर विरोध करने की चेतना बड़े ही आक्रामक स्वर में मुखरित हुई हैं। अत: शोषणकारी ताकतों से टकराने वाले इस जनधर्मी कवि की ये कविताएँ आम आदमी में गहरा विश्वास तो रखती ही है साथ ही उनके संघर्षों से भी गहरी संवेदना रखती हैं।
'' थिरक उठेगी धरती '' - महेन्द्र नेह रमेश प्रजापति
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अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
महेन्द्रनेह पर बहुत महत्वपूर्ण आलेख है।
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