महेन्द्र नेह की कविताएँ अत्यन्त सरल एवं सहज होते हुए भी आत्मीयता और संवेदना का ऐसा प्रकाश-पुँज प्रदीप्त करती हैं, जिससे अन्तरतम का प्रत्येक कोना आलोकित हो जगमगाने लगे। कवि ने जीवन को नजदीक से देखा है, यही कारण है उनकी कविता में आम आदमी की जिजीविषा, संघर्ष, विडम्बना और वैचारिकता एवं संस्कृति का स्वर स्फुटित हुआ है। उनकी कविताएँ जीवन की सच्चाइयों को बेझिझक उद्धाटित करती हैं। यदि सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य से देखें तो आपका जीवन और लेखन उन मेहनतकशों मजदूरों और किसानों के हक के लिए सदैव तत्पर रहा है जो आजीविका के लिए जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहे हैं, और कर रहे हैं। इनके गीत और ग़ज़लों का स्वर भी मुख्यत: जनधर्मी है। वास्तव में पूँजीवादी ताकतों का विरोध वही साहित्यकार कर सकता है जिसने इनकी सच्चाई को पहचान लिया हो और अपने समय की विषमताओं और विसंगतियों को नजदीक से देखा हो। इस हिंसात्मक समय में सदैव कोमल संवेदनाएँ ही लहू-लुहान होती हैं। आज उत्तार आधुनिक काल में जब चारों तरफ विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य अपने मूल्यों से दूर होता जा रहा है, उसकी संवेदनाओं का संसार सिकुड़ता जा रहा है, उसके समस्त कृत्य आत्म-केन्द्रित होकर रह गये हैं आम आदमी के सपने लहू-लुहान होकर छटपटा रहे है। गाँधी का अंहिंसा वाला यह देश आज हिंसक खौफ़ के साये में खड़ा सिसकियाँ भर रहा है- ''अहिंसक मुल्क में/बहती है अनवरत/खून की धार/कभी सड़क पर कभी रेल की पटरियों पर लहू-लुहान/कभी खेत में अचेत, कभी उजड़ी हुई/बस्तियों के बीच हलकान/कभी बंद कमरों में/कभी सल्फास की गोलियाँ खाकर/चिर-निद्रा में निमग्न।''-( अहिंसक मुल्क में, पृष्ठ-65)
आज कविता अस्वीकार और निषेध तक ही सीमित न रहकर अपनी रचनात्मकता में आक्रामक तेवर के साथ समाज की जड़ हो रही आत्मा को स्पन्दित करने में अहम् भूमिका निभाती हुई आगे बढ़ रही है। मानव जीवन अनेक अंतर्द्वन्द्वों, विसंगतियों और दुखों से भरा होने के कारण उसमें कोमल संवेदनाएँ ऐसे निहित रहती हैं जैसे फूलों के पराग से दुर्गम घाटियाँ महमहाती रहती है। जहाँ समाज में त्याग, सेवा, आस्था, प्रेम, आदर्श, विश्वास आदि का औचित्य समाप्त होता जा रहा है वहीं आज कविता में जीवन के उलझावों का चित्रण और जड़ों के प्रति मोह की उधेड़बुन ध्वनित होती रहती है। विचार और संवेदना के स्तर पर सामाजिक यथार्थ से बड़ी गहराई तक जुड़ी होने के कारण कविता समाज के विभिन्न स्तरों पर समकालीन संवेदनाओं के प्रति गहरा लगाव रखती है। इसलिए कवि अपनी कविताओं में पूँजीवादी भूमडंलीकरण और औद्योगीकरण के विकट समय में मज़दूरों, किसानों, औद्योगिक मज़दूरों के जीवन-संघर्ष और त्रासदी भरे सुने जा सकते हैं। बाज़ार अपने विकराल रूप में समाज को अपनी विनाशकारी मुट्ठी में ले रहा है। मँहगाई की सबसे ज्यादा मार मज़दूरों और गाँव में बेराज़गारी की मार झेलते लोगों पर पड़ती है। आज भी जीवन-संघर्षों से जूझते दिहाड़ी मजदूरों के जीवन में उत्सव कोई मायने नहीं रखते हैं। ये कविताएँ जीवन के प्रति निराशा के वातावरण में मनुष्य के अन्दर जिजीविषा का संचार करती हैं-''उन सबके चेहरे/ तमतमाए हुए हैं/उन्होंने इस धरती पर/ सबसे अधिक कष्ट सहे हैं/और कष्टों ने उन्हें/अजेय बना दिया है।'' &¼साथी, पृष्ठ-24)
महेन्द्र नेह के यहाँ संवेदनाओं की मार्मिकता है और उन्हें बचाने का संकल्प भी। इसलिए ये कविताएँ प्रतिदिन की छोटी-बड़ी घटनाओं, जीवन-मूल्यों, विसंगतियों, विद्रूपताओं का प्रतिबिम्ब तो दिखाती है साथ ही संभावनाओं और स्मृतियों के द्वारा भविष्य के सपनों को भी रेखांकित करती हैं। रामविलास शर्मा पूँजीवाद के विद्रूप चेहरे को कुछ इस प्रकार उद्धाटित करते हुए कहते हैं- पूँजीवादी व्यवस्था श्रमिक जनता का आर्थिक रूप से ही शोषण नहीं करती है, वह उसके सौन्दर्यबोध को कुण्ठित करती, उसके जीवन को घृणित और कुरूप भी बनाती है। फूलों-फव्वारों से सजे बाग-बगीचे पूँजीपतियों और उनकी रखैलों के लिए हैं, मज़दूरों के लिए गंदी बस्तियों की तंग कोठरियाँ हैं।'' यह वर्ग यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़े होकर भविष्य की कोख से उठने वाले तूफान की गति को पहचान रहा है और इन्सान का एक नया भविष्य गढ़ने में जुटा है। महेन्द्र नेह की कविताओं में भी श्रमिक वर्ग के जीवन-संघर्ष, संत्रास, विवशता, निराशा, आदि मुख्य रूप से दिखाई देते हैं-^^उन्होंने/हमारे हाथों से छीने/हमारे औजार/ हम खाली हाथ रह गए/उन्होंने हमें/भूख और जलालत बख्शी/हम उन्हें भी सह गए/उन्होंने हमें/धागे खींचने को कहा/ हम उनके धागों में उलझते चले गए।'' - (इस बार भी असफल रहे वे,पृष्ठ-43) मजदूरों की ऐसी विवशता भरी उलझनों को इस कवि की कविताओं में बखूबी देख सकते हैं।
कविता की रचनात्मक अर्थवत्ता को बनाए रखने के लिए जिस जटिल यथार्थ, ऊबड़-खाबड़ जमीन ,जीवन की बारीकियों की पकड़ तथा संवेदनात्मक-साक्षात्कार की आवश्यकता होती है उसे महेन्द्र नेह की कविताओं में देखा जा सकता है। मानवता की पक्षधर ये कविताएँ वर्चस्ववादी शक्तियों के बीच शोषित वर्ग के जीवन की उन घुटन भरी जिन्दगी को सामने रखती हैं जिनसे उनका जीवन शोषक वर्ग की इच्छाओं पर निर्भर है, वे अपनी मर्जी से साँसें भी नहीं ले सकते हैं-''उनकी आत्मा की भूख/ हमारी रोटियों से नहीं बुझती/ उन्हें हमारी रोटियाँ चाहिए और झुग्गियाँ भी.../ उन्हें हमारी बस्तियाँ भी चाहिए/उनकी जब इच्छा होती है/हमें मार दिया जाता है।'' - (उनकी जब इच्छा होती है...,पृष्ठ-70)
शोषक वर्ग के वास्तविक चेहरे को उजागर करती इस कविता का स्वर बड़ा ही मार्मिक है और मजदूर वर्ग की वस्तु स्थिति को बेबाकी से सामने रखता है। वर्तमान विद्रूपताओं और समाज के लिए की गयी झूठी घोषणाओं पर कुठाराघात करते हुए इस पुस्तक की भूमिका में कवि स्वयं कहता हैं-''वर्तमान दौर में देशी-विदेशी शासक वर्ग द्वारा मध्यवर्ग के लिए प्रलोभन का 'कारू का खजाना' खोल दिया गया है। सपनों का ऐसा जादुई संसार रच दिया गया है, जिसमें मात्र युवा पढ़ी ही नहीं समाज के सभी हिस्से धन की मृग-मरीचिकाओं में फँसे दिखते है.........पूँजीवादी बाजार अपने हितों को पूरा करने के लिए पूरी नंगई पर उतरकर हिंसक,बर्बर और सर्वभक्षी हो गया है। शासक वर्ग की इस हिंसा का मुख्य निशाना श्रमजीवी जन-गण-मजदूर और गरीब किसान है।''
जनवादी चेतना की ये कविताएँ समाज के सर्वहारा एवं निम्न मध्यवर्ग के वास्तविक जीवन से साक्षात्त्कार कराती हैं। यथार्थ की ठोस भावभूमि पर खड़ी ये कविताएँ अपनी मार्मिकता के कारण व्यक्ति के अन्तर्मन को उद्वेलित करती हैं। कवि इस समाज के बदले स्वरूप के बीच जीवन की कुछ सच्चाइयों से रूबरू कराता है। कवि की जनपक्षीयता बड़ी ही प्रबल है। बेहतर समाज के निर्माण में जनवादी कवि का अटूट विश्वास होता है। 'वे समझते हैं बहुत कुछ','साथी', 'आग का रंग', 'रोक दो अपना यह नीलवर्णी जादू', 'ठीक इसी वक्त','विजय जुलूस' आदि कविताओं में कवि ने मेहनतकशों में चेतना का स्वर फूंका है। वह वर्तमान के धरातल पर आर्थिक उत्पीड़न और शोषणमूलक पूँजीवादी व्यवस्था की जनविरोधी प्रवृत्तियों, तिड़कमों और बुनियादी अंतर्विरोधों की पहचान करके उत्पादन और वितरण में हिस्सेदारी की बात करता है। जनकवि महेन्द्र नेह की कविताओं में सर्वहारा वर्ग के अंदर चेतना उत्पन्न करने की क्षमता है। वे बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ़ एकजुट होकर जनक्रान्ति की बात करते हैं-''क्रांति/हाँ, क्रांति निश्चय ही उन्हें खा जाएगी/ जो जनता के दुश्मन हैं/जो अपना भविष्य 'सिंहासन बत्तीसी' में ढूँढ रहे हैं/और जिनके दाँत हमारी पीठ में गहरे गड़े हैं।''
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