रविवार, 6 दिसंबर 2009

शीतयुध्द के बाद मीडिया की भूमिका - 2



आज जितने भी विवाद अस्मिता की राजनीति अथवा लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर उठ रहे हैं उनका सिर्फ राष्ट्रीय आधार ही नहीं है । उनका अंतर्राष्ट्रीय अन्तस्संबंध भी है। खासकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया युग में ऐसे विवादों का प्रचार राष्ट्र की परिधि तक सीमित नहीं हैं। समाज में राजनीतिक विवाद होते हैं। राजनीतिक विवादों का होना एक स्वाभाविक चीज है। किंतु हिंसा का विवादों में आना स्वाभाविक चीज नहीं है। राजनीतिक विवादों में हिंसा को प्रश्रय अथवा हिंसा का सहारा वे तत्व लेते हैं जिनका विवाद सुलझाने से कोई लेना-देना नहीं होता । वे चीजों को जटिल बनाते हैं। समूचे वातावरण को विषाक्त बनाते हैं। विवाद,तर्क-वितर्क और हिंसाचार ये तीनों चीजें चक्राकार रूप में घूमती हैं और समाज को अस्थिर करती हैं। इससे सभी वर्ग के लोगों की क्षति होती है। राजनीतिक तनाव और असुरक्षा में इजाफा होता है। अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाती है। राज्य तंत्र पंगु हो जाता है।
     राजनीतिक विवाद के समय मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया तटस्थ नहीं रहता। सवाल उठता है क्या मीडिया के द्वारा विवाद के शांतिपूर्ण समाधान के प्रयासों को उभारा जा रहा है अथवा मीडिया अशांति बनाए रखने वाले प्रस्तावों को हवा दे रहा है। मीडिया सूचना दे रहा है अथवा प्रौपेगैण्डा तंत्र का काम कर रहा है ? मीडिया को विवाद के समय प्रौपेगैण्डा तंत्र बनने से बचना चाहिए। आग में घी का काम नहीं करना चाहिए। विवाद को गरमाने और टकराव पैदा करने का काम नहीं करना चाहिए। इससे सुरक्षा का वातावरण नष्ट होता है। असुरक्षा में इजाफा होता है। वैध सूचनाओं के अभाव में जनता के जानोमाल के लिए खतरा पैदा हो जाता है।
   विवाद के समय सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक स्थिरता सबसे बड़ी चीज है हर हालत में मीडिया को अपना कवरेज इसी तथ्य को ध्यान में रखकर तैयार करना चाहिए। विवाद में शामिल दोनों गुटों के प्रति निष्पक्ष रूख अख्तियार करना चाहिए। आमतौर पर विवाद के समय मीडिया तटस्थ नहीं रह पाता,शांति के अग्रदूत की भूमिका अदा नहीं कर पाता,इसके कई कारण हैं।
     पहला प्रधान कारण है मीडिया में पेशेवर प्रशिक्षित पत्रकारों का अभाव और पत्रकारों पर स्थानीय राजनीतिक दबाव। अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पत्रकार कवरेज तैयार करते हैं। दूसरा बड़ा कारण है आम जनता में साक्षरता का अभाव और लोकतंत्र की कमजोर नींव। जिन समाजों में लोकतंत्र कमजोर है , जनता में साक्षरता कम है,जनता के पास वैकल्पिक सूचनातंत्र का अभाव है वहां पर मीडिया तनाव में इजाफा करने में सफल हो जाता है। स्थानीय तनाव को पूरे राज्य और पूरे राष्ट्र में प्रसारित करने में सफल हो जाता है।
       भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र की मजबूत जड़ें हैं,अनेक मीडिया विकल्प हैं, वहां पर किसी भी पृथक्तावादी आंदोलन का सीमित क्षेत्रीय दायरे के बाहर प्रसारित करना असंभव है।एक अवधि के बाद इस तरह के आंदोलन ठंड़े पड़ जाते हैं। राजनीतिक तनाव के वातावरण में लोकतांत्रिकीकरण एकमात्र विकल्प है। इससे तनाव कम होता है।  हमारे देश में सन् 1977 के बाद से स्थानीय राजनीतिक तनाव कम हुए हैं। इसका प्रधान कारण लोकतांत्रिक संरचनाओं का विकास। लोकतांत्रिक संस्थाओं के त्रिस्तरीय ढ़ांचे का सख्ती से लागू किया जाना।
     देखना चाहिए जिस क्षेत्र में राजनीतिक तनाव पैदा हुआ है वहां किन लोगों के हित दांव पर लगे हैं। जिन लोगों के हित दांव पर लगे होते हैं तो वे बगावत पर आमादा हो जाते है, जब लोगों के पास लोकतांत्रिक विकल्प और संरचनाएं उपलब्ध नहीं होतीं ,उपलब्ध राजनीतिक संरचनाएं जनता की सेवा करने में असमर्थ हों तब तनाव पैदा होता है।
    त्रिपुरा में जनजाति इलाकों में तनाव था किंतु त्रिपुरा उपजाति परिषद के गठन के बाद तनाव गायब हो गया। देश में लंबे समय से पंचायती व्यवस्था ठप्प थी, इसके कारण व्यापक असंतोष था किंतु आज स्थिति वैसी नहीं है। इसका प्रधान कारण असंतोष को व्यक्त करने,समस्याओं के समाधान तलाशने में लोकतांत्रिक संरचनाओं से मदद मिली। जो असंतुष्ट थे उनके राजनीतिक हितों को संतोष मिला, उनके राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हुई। तात्पर्य यह है कि लोकतांत्रिक समाधान राहत देते हैं।
      दूसरी महत्वपूर्ण है कि जब विवादास्पद गुट संघर्षरत हों तब मीडिया को शांतिपूर्ण संवाद कायम करने में मदद करनी चाहिए। स्थानीयस्तर पर विवादित गुटों में संवाद स्थापित करने में मीडिया सक्रिय भूमिका अदा सकता है। उन बिंदुओं को उभारा जाना चाहिए जो समझौते का आधार बन सकते हैं। जिन बिंदुओं पर लेन-देन हो सकता है। इसके अलावा सामाजिक असुरक्षा कम करने की कोशिश की जानी चाहिए।
तनाव क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवर पत्रकारों को पत्रकार ही रहना चाहिए उन्हें शांतिरक्षक अथवा प्रचारक की भूमिका अदा नहीं करनी चाहिए। पत्रकार का काम किसी खास समाधान का प्रचार करना नहीं है। संवाददाता का काम है विवादित गुटों के बीच के प्रस्तावों के सकारात्मक और नकारात्मक तत्वों को सामने लाना । जनता को शिक्षित करना। जनता में साझा समझ और साझा आधार तैयार करना। पत्रकार को स्वाभाविक आधार तैयार करना चाहिए जिस पर विवादित गुट आकर अपनी बात कह सकें। एक-दूसरे के बीच संवाद हो।
     आमतौर पर मीडिया अपनी रेटिंग बढ़ाने के चक्कर में संप्रेषण का साझा आधार बनाने की भूमिका त्याग देता है। विवादित गुटों में यदि कोई समझौता होता है तो मीडिया का काम है उस समझौते के परिपालन पर नजर रखना और आम जनता को उसके बारे में सूचनासम्पन्न बनाना। संवाददाता का काम किसी खास 'परिप्रेक्ष्य' का प्रचार करना नहीं है।
    विवाद क्षेत्र में पत्रकारों की सुरक्षा सबसे बड़ी समस्या है। विवादित इलाकों में उन पर बार-बार हमले होते  हैं। फलत: स्थानीय पत्रकारों को बड़े पैमाने पर अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। 'कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट '' के अनुसार सन् 1994 से 2003 के बीच में 346 पत्रकार मारे गए। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए ऐसा वातावरण बनाया जाए जिसमें वे शांति के साथ अपना काम कर सकें। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए सबसे पहले उन्हें विपत्ति के समय काम करने की विशेष शिक्षा दी जानी चाहिए। 

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