आधुनिकाल आने के बाद पहलीबार ईश्वर की विदाई होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहलीबार मनुष्य झांकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परंपराएं, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है। आधुनिककाल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्यकाल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुई या पद्य में इससे भी दुख के संप्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। मध्यकाल में मनुष्य अपने दुख और पिछडेपन के लिए भाग्य को दोष देता था,पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था,ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किंतु आधुनिक युग में मनुष्य को पहलीबार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता,उन्नति के मंत्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहलीबार ज्योतिबा फुले ने दिया। सन् 1948 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में शूद्रों की यह पहली पाठशाला थी। असल में पाठशाला तो प्रतीकमात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।
सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरंभ करके कितना बड़ा क्रांतिकारी कार्य किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सबकुछ अच्छा नहीं होता रहा है। भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था। जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। दूसरा अर्थ यह संप्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछडे थे। तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परंपरा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिकभेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गई तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।
आधुनिककाल में पहलीबार शूद्रों को यह बात समझाने में ज्योतिबा फुले को सफलता मिली कि मनुष्य के अस्तित्व की पहचान शिक्षा से होती है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान होता है। शूद्रों के लिए शिक्षा का अर्थ वही नहीं था जो सवर्णों के लिए था। शूद्रों के लिए शिक्षा अस्तित्वरक्षा, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और आत्मोध्दार के साथ अस्मिता की स्थापना का उपकरण भी थी। यही वजह है कि शिक्षा का शूद्रों में जितना प्रसार हुआ है अस्मिता की राजनीति का भी उतना ही प्रसार हुआ है।
ज्योतिबाफुले -आंबेडकर के द्वारा शुरू की गई अस्मिता की राजनीति विदेश से लायी गई चीज नहीं है। साम्राज्यवादी साजिश का अंग नहीं है। बल्कि यह तो भारत के संतुलित विकास के परिप्रेक्ष्य के गर्भ से उपजी राजनीति है। इसका आयातित अस्मिता की मौजूदा राजनीति के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। शूद्रों की शिक्षा का लक्ष्य था, सामाजिक भेदभाव को खत्म करना, मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता पैदा करना और समानता को व्यापक मूल्य के रूप में स्थापित करना।
अछूत समस्या हमारे देश में कई हजार सालों से है। किंतु इसके खिलाफ कभी सामाजिक आंदोलन नहीं हुए। आखिरकार क्या कारण है कि भारत में विगत ढाई हजार सालों में कभी क्रांति नहीं हुई ? क्या अछूत समस्या को खत्म किए बगैर क्रांति संभव है ? क्या वजह है कि आधुनिककाल में ही अछूत समस्या के खिलाफ सामाजिक आंदोलन संभव हो पाया ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में जातिभेद खत्म हो सकता है ? इन सभी सवालों का एक-दूसरे के साथ गहरा संबंध है।
भारत में जातिव्यवस्था के खिलाफ क्रांति अथवा सामाजिक क्रांति न हो पाने के तीन प्रधान कारण हैं , पहला ,अंधविश्वासों में आस्था,दूसरा ,पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास और तीसरा ,कर्मफल के सिध्दान्त के प्रति विश्वास। इन तीन विचारधारात्मक बाधाओं के कारण भारत में सामाजिक क्रांति नहीं हो पायी। अंधविश्वासों में आस्था के कारण हमने कभी जातिभेद क्यों है ? गरीब गरीब क्यों है और अमीर अमीर क्यों है ? क्या पीपल के पेड़ को पूजने से मनोकामना पूरी होती है ? क्या साहित्य में जो रूढ़ियां चलन में हैं वे वास्तव में भी हैं ? इत्यादि चीजों को यथार्थ में कभी परखा नहीं। हम यही मानकर चलते रहे हैं कि मनुष्य गरीब इसलिए है क्योंकि पहले जन्म में कभी बुरे कर्म किए थे। उसका ही फल है कि इस जन्म में गरीब है। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि वह पहले जन्म में पुण्य करके आया है।
अच्छे कर्म करोगे अच्छे घर में जन्म लोगे। बुरे कर्म करोगे नीच कुल में जन्म होगा। निचली जाति में उन्हीं लोगों का जन्म होता है जिन्होंने पहले बुरे कर्म किए थे। निचली जातियों को नरक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया और एक नए किस्म के प्रचार अभियान की शुरूआत हुई। इससे जातिभेद को वैधता मिली। कर्मफल के सिध्दान्त की सबसे बड़ी किताब है श्रीमद्भगवतगीता इसके आधार पर कर्मफल के सिध्दान्त को खूब प्रचारित किया गया। कर्म किए जा फल की चिन्ता मत कर। उल्लेखनीय है गीता को आदर्श दार्शनिक किताब के रूप में तिलक से लेकर गांधी तक सभी ने प्रधानदर्जा दिया था। गीता आज भी मध्यवर्ग की आदर्श किताब है।
उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने जातिप्रथा को इन तीनों विचारधारात्मक बाधाओं के दायरे बाहर निकालकर पेश किया। संभवत: बाबासाहेब अकेले बड़े स्वाधीनतासेनानी थे जिनकी कर्मफल के सिध्दान्त,पुनर्जन्म और अंधविश्वासों में आस्था नहीं थी। यदि इन तीनों चीजों में आस्था रही होती तो अछूत समस्या को राष्ट्रीय समस्या बनाना संभव ही न होता। कहने का तात्पर्य यह है अछूत समस्या से मुक्ति के लिए, जातिप्रथा से मुक्ति के लिए चार प्रमुख कार्य किए जाने चाहिए।
पहला- अंधविश्वासों के खिलाफ जंग।
दूसरा- पुनर्जन्म की धारणा के खिलाफ जनजागरण।
तीसरा- कर्मफल के सिध्दान्त के खिलाफ सचेतनता।
चौथा- अछूत जातियों के साथ रोटी-बेटी के संबंध और पक्की दोस्ती।
ये चारों कार्यभार एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक को भी त्यागना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है शिक्षा ,नौकरी अथवा आरक्षण मात्र से अछूत समस्या का समाधान संभव नहीं है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए आमलोगों में खासकर दलितों में विज्ञानसम्मत चेतना का प्रसार करना बेहद जरूरी है। विज्ञानसम्मतचेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा। उसकी दलितचेतना से मुक्ति नहीं होगी। जातिभेद कभी खत्म नहीं होगा। हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमें कितना विज्ञानसम्मत विवेक देती है ? सच यही है कि हमारी शिक्षा में कूपमंडूकता कूटकूटकर भरी पड़ी है। पैंतीस साल के शासन के वाबजूद पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था में से कूपमंडूकता को पूरी तरह विदा नहीं कर पाए हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जातिप्रथा एक तरह का पुराने किस्म का सामाजिक अलगाव है। जातिप्रथा को आज नष्ट करने के लिए सामाजिक अलगाव को नष्ट करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव आज के दौर में व्यापक शक्ल में सामने आया है। हम एक-दूसरे के दुख-सुख में साझीदार नहीं बनते। कभी एक-दूसरे के बारे में खबर-सुध नहीं लेते। यही सामाजिक अलगाव पहले जातियों में भी था। खासकर निचली कही जाने वाली जातियों के प्रति सामाजिक अलगाव यकायक पैदा नहीं हुआ। बल्कि इसे पैदा होने में सैंकड़ों साल लगे। सामाजिक अलगाव को अब हमने वैधता प्रदान कर दी है। सामाजिक अलगाव को हम स्वाभाविक मानने लगे हैं। नए युग की विशेषता मानने लगे हैं। नए आधुनिक जीवन संबंधों की अनिवार्य परिणति मानने लगे हैं। सामाजिक अलगाव की अवस्था में जातिभेद और जातिघृणा बढ़ेगी। क्योंकि सामाजिक अलगाव से जातिघृणा को ऊर्जा मिलती है। यह अचानक नहीं है कि सन् 1970 के बाद के वर्षों में पूंजीवादी विकास जितना तेज गति से हुआ है। सामाजिक अलगाव में भी इजाफा हुआ है। जाति संगठनों में भी इजाफा हुआ है। जातिघृणा और जाति संघर्ष बढ़े हैं। जातिघृणा,जातिसंघर्ष और जातिगत तनाव तब ही पैदा होते हैं जब हम अलगाव की अवस्था में होते हैं।
सामाजिक अलगाव पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक परिणति है ,इसका सचेत रूप से प्रतिवाद किया जाना चाहिए। अचेत रूप से सामाजिक अलगाव को स्वीकार लेने का अर्थ है आपसी अलगाव में इजाफा। अलगाव खत्म होगा तो संगठन की महत्ताा भी समझ में आती है। सामाजिक शिरकत,सामाजिक साझेदारी, व्यक्तिगत और सामाजिक भावनात्मक विनिमय और आर्थिक सहयोग ये चीजें जितनी बढ़ेंगी उतनी ही भेद की दीवार गिरेगी।
हमें सोचना चाहिए आरक्षण किया,संविधान में संरक्षण दिया, तमाम किस्म के कानून बनाए,सभी दल इन कानूनों के प्रति वचनबध्द हैं,इसके बावजूद जाति उत्पीड़न थमने का नाम नहीं लेरहा। एससी,एसटी का अलगाव कम नहीं हो रहा। उनकी असुरक्षा की भावना कम नहीं हो रही। इस प्रसंग में पश्चिम बंगाल के उदाहरण से समझाना चाहूँगा।यहां पर जातियाँ हैं। जातिभेद भी है। किंतु निचले स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठनों का तंत्र इस कदर फैला हुआ है कि आप उसकी परिधि के बाहर जा नहीं सकते। यह तंत्र सामाजिक संपर्क,सामाजिक संबंध और आपसी भाईचारा बनाए रखने और विनिमय का काम करता है। इसका सुफल यह निकला है कि आमलोगों में अभी शिरकत और सहयोग का भाव बचा हुआ है। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहयोग करते हैं। यही वजह है पश्चिम बंगाल में जातिगत तनाव और जाति संघर्ष नहीं हैं।
जबकि सच यह है आरक्षण यहां कम लागू हुआ है। राजनीति में दलितों का नहीं सवर्णों का बोलवाला है। इसके बावजूद जातिसंघर्ष नहीं हैं। यथासंभव निचली जातियों को जमीन का हिस्सा भी मिला है। संगठन के कारण उनकी आवाज सुनी भी जाती है। इसके कारण उत्पीडन करने की हिम्मत नहीं होती। आंबेडकर ने स्वयं संगठन को महत्ताा दी थी, संगठन के तौर पर आदर्श सांगठनिक संरचना कम्युनिस्टों के पास है। मुश्किल यहां से शुरू होती है। कम्युनिस्ट कतारें अभी भी उपरोक्त तीन विचारधारात्मक बाधाओं को नष्ट नहीं कर पायी हैं। अभी भी कम्युनिस्ट कतारों में अंधविश्वासों में आस्था रखने वाले, पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले,कर्मफल के सिध्दान्त में विश्वास करने वाले बचे हुए हैं। किंतु इनकी संख्या में तुलनात्मक तौर पर गिरावट आयी है।
किंतु एक चीज जरूर हुई है कि जातिभेद का जितना प्रत्यक्ष तांडव देश के अन्य इलाकों में नजर आता है वैसा यहां नजर नहीं आता। इसका प्रधान कारण है सामाजिक रूप से कम्युनिस्ट संगठनों का सामाजिक संरचनाओं में घुलामिला रहना। आंबेडकर के इस विचार को कि जातिप्रथा को नष्ट करने के लिए जरूरी है कि शूद्रों और गैर शूद्रों में रोटी-बेटी के संबंध हों। यही चीज कमोबेश पश्चिम बंगाल में लागू करने में वामपंथियों को सफलता मिली है। इस अर्थ में वे इस राज्य में सामाजिक क्रांति में एककदम आगे जा पाए हैं। दूसरी बात यह है कि दलितों पर उत्पीडन की घटनाएं इस राज्य में कम से कम होती हैं। यदि कभी दलित उत्पीड़न की कोई घटना प्रकाश में आती है तो प्रशासन से लेकर राजनीतिक स्तर तक ,यहां तक कि मध्यवर्गीय कतारों में भी उसके खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया होती है। यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक संवेदनशीलता अभी बची हुई है। अन्य राज्यों में स्थिति बेहद खराब है।
जिस राज्य में दलित मुख्यमंत्री हो,दलित पार्टी का शासन हो,वहां दलित उत्पीडन की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो गयी हैं। इन घटनाओं के प्रति आम जनता में संवेदनशीलता कहीं पर भी नजर नहीं आती। क्योंकि उन राज्यों में सामाजिक अलगाव को कम करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक दल नहीं करते। बल्कि राजनीतिक लाभ और क्षुद्र सांगठनिक लाभ हेतु सामाजिक अलगाव का इस्तेमाल करते हैं।
एक वाक्य में कहें तो उत्तारप्रदेश,बिहार आदि राज्यों में जातिदलों ने सामाजिक अलगाव को अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील कर दिया है। वे सामाजिक अलगाव का निहितस्वार्थी लक्ष्यों को अर्जित करने के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं। इससे जातिसंघर्ष बढ़े हैं। सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक अस्थिरता बढ़ी है। अछूत समस्या बढ़ी है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए सामाजिक अलगाव को खत्म करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव का राजनीतिक दुरूपयोग बंद करना जरूरी है।
दलित का राजनीतिक दुरूपयोग सामाजिक टकराव और तनावों को बनाए रखता है और विगत साठ सालों में हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समस्या के समाधान के नाम पर यही किया है। उनके लिए दलित मनुष्य नहीं है बल्कि वोट है। एक अमूर्त पहचान है। बेजान चीज है। सत्ताा का स्रोत है। यही दलित की आयरनी भी है। अब हम दलित को मनुष्य के तौर पर नहीं वोटबैंक के तौर पर जानते हैं। आरक्षण के नाम से जानते हैं। वोटबैंक और आरक्षण में दलित की पहचान का रूपान्तरण दलित को वर्चुअल बना देता है। दलित का वर्चुअल बनना मूलत: मध्यकाल में लौटना है। वर्चुअल बनने के बाद दलित और भी दुर्लभ हो गया है। हमें दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल बनने का अर्थ है वह है भी और नहीं भी। वर्चुअल दलित मायावती जैसे नेताओं की पूंजी है। ये दोनों एक-दूसरे के चौखटे में फिट बैठते हैं। मायावती के यहां दलित वर्चुअल है। ठोस हाड़मांस का इन्सान नहीं है। यही वजह है दलित की किसी भी समस्या को ठोस रूप में मायावती अपने चुनावी घोषणापत्र में व्यक्त नहीं करती। बल्कि यह कहना सही होगा कि मायावती स्वयं वर्चुअल है। उसने कोई भी ठोस चुनावी घोषणापत्र भी जारी नहीं किया। यही हाल दलितों के मसीहा लालू-मुलायम का है। ये दलितों के हैं और दलितों के नहीं भी हैं। दलित इनके यहां वर्चुअल है और दलित के लिए ये वर्चुअल हैं। कहने का तात्पर्य यह है दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुल होने का अर्थ दलित का लोप और यह एक तरह से मध्यकाल की वापसी होगी किंतु बेहद त्रासद और भयावह वापसी होगी ।
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