सोमवार, 28 दिसंबर 2009

पियरे बोर्दिओ और नव्य-उदारतावाद - 7-

बोर्दिओ के अनुसार विनियमन (डीरेगूलेशन) की नीति के खिलाफ सबसे पहले राजनीतिक चिन्तन को महत्व दिया जाना चाहिए। राजनीतिक गतिविधियों को प्रधानता दी जानी चाहिए। यह प्रस्थान बिंदु हो सकता है। इसके बाद इस संघर्ष को राष्ट्र-राज्य की सीमाओं के परे ले जाने की जरुरत है। इसके लिए विश्वव्यापी सामाजिक आंदोलन की जरुरत होगी और वैसा ही संगठन भी बनाना पड़ेगा। ये सामाजिक आंदोलन अपनी प्रकृति ,आकांक्षा और लक्ष्य में भिन्ना किस्म के होंगे। इनमें कुछ समानताएं भी होंगी जो इन्हें 'तुलनात्मक' बनाएगी । बहुत सारे आंदोलन परंपरागत राजनीतिक लामबंदी,राजनीतिक दलों की लामबंदी ,जो सोवियत टाइप हुआ करती थी, को अस्वीकार करते हुए आ रहे हैं। यह पूरी तरह इजारेदाराना भाव के प्रति प्रतिवाद है। इन आंदोलनों की धुरी है छोटे ग्रुपों पर इजारेदारी कायम करना। साथ ही ये तुरंत शिरकत की मांग करते हैं। इन आंदोलनों की खूबी है कि ये तुरंत नए एक्शन सुझाते हैं। इनमें प्रतीकात्मक सार होता है। इनके लक्ष्य और उपाय मौलिक होते हैं। ये ठोस सामाजिक लक्ष्यों को केन्द्रित होते हैं। जैसे हाउसिंग,रोजगार,स्वास्थ्य,गरीबी के प्रति सरोकार आदि। वे इनके व्यावहारिक समाधान सुझाते हैं जिन्हें तत्काल लागू किया जा सकता है। उनके प्रस्तावों और प्रतिवाद को उदाहरण के रुप में पेश किया जा सकता है। व्यक्तिगत तौर पर शिरकत को बढ़ाया जा सकता है। इनको मीडिया की सही जानकारी होती है,बल्कि वे इसके मास्टर होते हैं,इसलिए वे किसी भी घटना को पेश करने,नाटकीय बनाने में सिध्दहस्त होते हैं। जिससे वे मीडिया और राजनीति का ध्यान खींच पाते हैं। इस तरह के आंदोलनों को मीडिया ज्यादा कवरेज देता है,इसका अर्थ यह नहीं है कि ये आन्दोलन मीडिया केन्द्रित हैं, बोर्द्रिओ कहता है कि अब तक मीडिया परंपरागत दलों का समर्थन करता रहा है, किंतु अब उनकी तरफ ध्यान न देकर इन सामाजिक आंदोलनों की ओर ध्यान दे रहा है। ये आंदोलन कम समय में ही अपना सामाजिक आधार बना लेते हैं। आरंभ में ऐसे आंदोलनों का चरित्र अंतर्राष्ट्रीय था। एक-दूसरे मॉडल को वे लागू करते रहे।  इन सभी सामाजिक आंदोलनों का साझा फिनोमिना है कि ये नव्य-उदारवादी नीतियों को अस्वीकार करते हैं। एक अन्य प्रवृत्ति है कि ये अंतराष्ट्रीय हैं,अंतर्राष्ट्रीयतावादी हैं।इन सामाजिक आंदोलनों में एटीट्यूट की एकता है।
बोर्दिओ के अनुसार मांगों और प्रक्रियाओं के बीच बगैर किसी इजारेदारी के अनिवार्यत: तालमेल होना चाहिए। यह तालमेल नेटवर्क के बीच होना चाहिए। इनमें व्यक्तियों और समुदायों को बगैर किसी वर्चस्व के एकजुट किया जाना चाहिए। इनके परिप्रेक्ष्य और कार्यक्रम की रक्षा की जानी चाहिए। इन संगठनों को लोचदार और टिकाऊ होना चाहिए। इन्हें मिलजुलकर प्रचार करना चाहिए,नियमित सभाएं करनी चाहिए,साथ ही लक्ष्य केन्द्रित सवालों को उठाना चाहिए। बोर्दिओ के शब्दों में ''ग्लोबलाइजेशन हमारा भविष्य नहीं है बल्कि राजनीति है। इसलिए प्रतिवाद की राजनीति सत्ता के केन्द्रीकरण के खिलाफ होगी। यह विकल्प अंतर्राष्ट्रीय होगा। इसमें मजदूर संगठनों और नए संगठनों के अनुभवों से काम लिया जाएगा।''
नव्य-उदारतावाद के प्रचार अभियान में बार-बार समृध्द समाज के निर्माण की बात कही जा रही है। यह कहा जा रहा है कि हमें भारत को समृध्द बनाना है। समृध्दि की मांग पागलपन की हदें पार गई है। सवाल किया जाना चाहिए कि आखिरकार समृध्द भारत की मांग कौन लोग कर रहे हैं ? वे ऐसी मांग क्यों कर रहे हैं ? अथवा यों कहें कि समृध्द समाज की मांग किसके लिए की जा रही है , इससे किसका भला होगा ? असल में समृध्द समाज की मांग उन लोगों ने उठायी है जो अपने मालों की बिक्री करना चाहते हैं। वे ऐसे मालों को बेचना चाहते हैं जो हमारी आवश्यकता का हिस्सा नहीं हैं। वे ऐसे उपभोक्ता का आधार तैयार करना चाहते हैं जिसके पास उपभोग की वस्तुएं खरीदने के लिए बेशुमार पैसा हो। जिससे वह इन मालों को खरीद सके। भारत जैसे गरीब देश में उपभोक्ता वस्तुओं को जब गरीब आदमी टीवी में हसरतभरी निगाहों से देखता है तो उसके अंदर भी इन्हें पाने इच्छा पैदा होती है,इन्हें पाकर वह ज्यादा से ज्यादा खुशियां पाने का सपना देखता है। ऐसा सोचने वाले गलत सोच रहे हैं। वस्तुओं से खुशी नहीं मिलती। ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता वस्तुओं का अम्बार खुशियां नहीं देता,खुशी तो असल में तुलनात्मक तौर पर अपने पड़ोसी की संपत्ति देखकर ही आती है, पड़ोसी की संपत्ति से जब ज्यादा संपत्ति होती है तब ही मन खुश होता है। यदि सभी की संपदा का स्तर एक जैसा कर दिया जाएगा तो खुशी पैदा नहीं होगी।
अमरीका के मार्ग को अपनाने वालों को यह भी ध्यान रखना होगा कि वहां चंद लोगों की दादागिरी चलती है। ये वे लोग हैं जो शासकवर्ग कहलाते हैं। जिनके अनुसार नीतियां बनती हैं और बदलती हैं। यहां तक शासकवर्गों के बीच में भी सत्ता का हिसाब-किताब बनता-बदलता रहता है। शासकवर्ग में एक जमाने में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का वर्चस्व हुआ करता था,आज यह क्षेत्र ढलान पर है। आज अमेरिका में अंतर्राष्ट्रीय -राष्ट्रीय इजारेदार वित्तय संस्थानों का वर्चस्व है,आर्थिक उदरीकरण के दौर में इन्हीं संस्थानों ने नीतियों की बागडोर थामी हुई है। दूसरी ओर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में अपने देश में अमेरिका संरक्षणवाद का सहारा ले रहा है और गैर- अमेरिकी मुल्कों पर संरक्षण हटाने के लिए दबाव डाल रहा है।
    अमेरिका की नीति है '' उदारीकरण विदेश में देश में संरक्षणवाद।'' अमेरिका में कौन शासकवर्ग है इसका जबाव बेहद जटिल है। इसका प्रधान कारण है कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में औद्योगिक प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। मसलन् इन दिनों मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र ढलान पर है और वित्तीय संस्थान बढत पर हैं अत: शासकवर्गों में वित्तीय संस्थानों का बोलवाला है। अनेक पुराने औद्योगिक घराने पुराने धंधों में बने रहने की बजाय वित्तीय क्षेत्र में आ रहे हैं,हमारे देश में भी यह फिनोमिना आ गया है। नव्य-उदारतावाद के दौर में वित्तीय संस्थानों और वित्तीय पूंजी का ही सारा खेल है। वे ही ग्लोबलाइजेशन के असल मुखिया हैं,बाकी अन्य शासकवर्गों को उनके सहयोगी की भूमिका अदा करनी होगी। वित्तीय पूंजी बहुराष्ट्रीय इजारेदारियों की रखैल है, वह उनकी संपदा का स्रोत है। आज सबसे ज्यादा किसी सेक्टर में प्रधान कर्ताओं को तनख्वाह और सुविधाएं दी जा रही हैं तो वह है वित्ताीय पूंजी क्षेत्र। वित्तय पूंजी का सारा खेल शेयर मार्केट के ऊपर निर्भर है,इसके अलावा विभिन्न कंपनियों के विलय और बिक्री से भी नव्य-उदारतावाद लाभांवित हुआ है। विलय-बिक्री की फीस के बहाने वित्तीय संस्थानों ने बेशुमार धन कमाया है। मसलन् 2006 में 3,900 विलियन डालर के इस क्षेत्र में सौदे हुए,इनके जरिए निवेशक बैंकों ने फीस के रुप में 18.8 विलियन डालर कमाए।
     आंकड़े बताते हैं कि दो फीसदी घराने अस्सी फीसदी विश्व संपदा के मालिक हैं। इसमें वित्ताीय पूंजी से जुड़े अभिजन के पास बहुत छोटा अंश ही है।  ये वे वित्तीय कंपनियां हैं जो सट्टा बाजार में पैसा लगाती हैं,उधार पैसा देती है और बड़ा मुनाफा बटोर रही हैं। अमेरिकी समाज आर्थिक तौर पर सबसे ज्यादा संकटग्रस्त है खासकर मध्यवर्ग और मजदूरवर्ग के सामने गंभीर संकट पैदा हो गया है। उसकी सामाजिक सुरक्षा  की सुविधाएं कम हुई हैं, पगार में गिरावट आई है।बेकारी बढ़ी है। मसलन् सन् 2000-2005 के बीच में अमरीकी अर्थव्यवस्था 12 फीसदी बढ़ी, उत्पादकता 17 फीसदी बढ़ी किंतु पगार मात्र तीन फीसदी बढ़ी। जबकि इसी अवधि के दौरान परिवार की असल आमदनी में गिरावट दर्ज की गई। एक सर्वे में नवम्बर 2006 में तीन-चौथाई अमेरिकियों ने कहा कि वे दुर्दशापूर्ण जीवन जी रहे हैं,अथवा यों भी कह सकते हैं कि छह साल पहले जो दशा थी उसमें कोई सुधार नहीं आया है। फेडरल रिजर्व बैंक के मुखिया के सीनेट कमेटी के सामने स्वीकार किया है कि ''अमेरिका में बढ़ती हुई असमानता चिन्ता की चीज है। इकहरे ढ़ंग से आमदनी और संपदा में इजाफा हो रहा है।यह अच्छा लक्षण नहीं है।'' सरकार की सकल घरेलू आय का 43 फीसदी हिस्सा पगारजीवी लोगों से आता है। आज अमरिकी दलों में वित्तीय पूंजी से जुड़े शासकवर्गों को चुनौती देने की किसी में क्षमता नहीं है। उनसे सब डरते ही नहीं हैं बल्कि वे तो सभी के माई-बाप हैं।



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