माध्यमों के द्वारा संप्रेषित हिंसाचार के संदर्भ में प्रभाव को लेकर सभी एकमत हैं कि माध्यमों की हिंसा का आम लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।अमेरिका में समाचारों के संदर्भ में किए गए एक सर्वे से पता चला है कि 92फीसदी अमेरिकन सोचते हैं कि उनके देश में टेलीविजन का हिंसा बढ़ाने में अवदान है।जबकि 65फीसदी सोचते हैं कि टेलीविजन के मनोरंजन कार्यक्रमों का अमेरिकी जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। 500 कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षकों में सर्वे के बाद पता चला है कि 66फीसदी की धारणा थी कि हिंसा का टेलीविजन के जरिए उद्धाटन आक्रामक व्यवहार को बढ़ाता है।माध्यम हिंसा देखते समय यह महसूस होता है कि हम तो हिंसा नहीं कर रहे यही बात माध्यम प्रस्तोता भी कहते हैं।
यह सच है कि हिंसा दिखाने वाले व्यक्तिगत तौर पर कभी हिंसा नहीं करते। टेलीविजन पर विचार करते समय प्रभाव और उत्पीडन को एकमेक नहीं करना चाहिए।जबकि ये दो अलग-अलग चीजें हैं। साम्प्रदायिक दंगों या गुजरात जैसे हिंसाचार के प्रसारण का क्या प्रभाव हुआ इसके बारे में अभी तक कोई मीडिया प्रभाव संबंधी शोध हमारे सामने नहीं है।फिर भी कुछ अनुमान हैं।
मसलन् जब हिंसाचार दिखाया जाता है तब हमें उसके तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में सोचना चाहिए।तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि हिंसाचार तेजी से सारे देश के सामने आ गया। सरकार रक्षात्मक मुद्रा में आ गई।हिंसाचार में शामिल तत्व तत्काल सबके सामने आ गए।खबरों में ताजापन या जीवन्त खबर का तत्व आ गया। दीर्घकालिक और तात्कालिक तौर पर इससे हिंसाग्रस्त इलाकों में हिंसाचार घटने की बजाए बढ़ा।हिंसक गिरोहों का जनसमर्थन बढ़ा।इलाके के अन्य समूहों में भय का वातावरण बना।
मुसलमानों में सारे देश में भय और असुरक्षा का वातावरण बना।राज्य और केन्द्र सरकार के प्रति उनकी आस्थाएं कमजोर हुईं।पुलिस बलों के प्रति अविश्वास गहरा हुआ।चूंकि हिंसक लोग हिंसा करके सकुशल भागने में सफल रहे अत: मौका मिलने पर अन्य क्षेत्रों में ऐसी हिंसा या लूट में शामिल होने पर बचा जा सकता हैं।यह संदेश गया।
यह भी संदेश गया कि अपराध करके बचे रहने की संभावनाएं हैं।कारण यह है कि लूटते,आग लगाते और हिंसा करके भागते हुए समूह तो दिखाए गए किन्तु गिरफ्तार लोगों या पुलिस बलों की कार्रवाई पर कोई फुटेज नहीं दिखाया गया।साथ ही बड़ी बेशर्मी के साथ हिंसा में शामिल संगठनों के नेताओं के बयान,साक्षात्कार आदि का प्रसारण किया गया।इससे दशकों में भय की सृष्टि हुई।एक भय वह होता है जो शरीर में सिहरन पैदा करता है और एक भय वह होता है जो धीरे-धीरे मन में जगह बना लेता है और पल्लवित होता रहता है।इन दोनों की ही सृष्टि हुई।इसी तरह संवेदनहीनता का भी तात्कालिक और दीर्घकालिक असर होता है।तात्कालिक तौर पर चेतना पर किस तरह प्रभाव होता है।इसके बारे में उन फिल्मों के अध्ययन से हमें मदद मिल सकती है जहां बच्चे अन्य बच्चों को हिंसा करते देखते हैं।
बच्चा ऐसी हिंसा देखकर अपने को इससे पृथक कर लेता है।अथवा हिंसा के शिकार से अलग कर लेता है।ऐसा बच्चा हिंसा के प्रभाव को समझने की कोशिश करता है।यह बोध वह संवेदना के स्तर पर ग्रहण करता है।किंतु इसे तुरंत ज्ञानात्मक संवेदना में रूपान्तरित नहीं कर पाता।इसी तरह हिंसा के प्रति बच्चों और वयस्कों का रवैयया एक जैसा नहीं होता। बच्चों की तुलना में वयस्कों में हिंसा के प्रति ज्यादा सहिष्णु भाव पाया गया है।यह संभावना है कि जिन लोगों ने गुजरात के हिंसाचार को टेलीविजन पर देखा उनके मन में हिंसाचार के प्रति तटस्थभाव पैदा हुआ हो।सहिष्णु भाव पैदा हुआ हो।
साम्प्रदायिक हिंसाचार का जब भी अध्ययन किया जाए यह बात ध्यान रखनी होगी कि साम्प्रदायिक हिंसा किसी घटना विशेष से शुरू जरूर होती है।घटना विशेष उसका प्रधान कारण नहीं बल्कि बहाना मात्र है।साम्प्रदायिक हिंसाचार हमेशा साम्प्रदायिक विचारधारात्मक प्रचार अभियान के बाद जन्म लेता है।पहले वाचिक हिंसा के जरिए माहौल बनाया जाता है और बाद में उपयुक्त अवसर देखकर या किसी बहाने साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत होती है।
हिंसाचार का टेलीविजन और फिल्मों के माध्यम से प्रसारण नियंत्रित किया जाना चाहिए।हिंसा का मनोरंजन या अन्य बहाने से प्रसारण अंतत:हिंसा के प्रति तटस्थ बनाता है , उसके साथ सामंजस्य पैदा करता है। देखने वाले तुरंत ही हिंसा से पृथक् कर लेते हैं।फिल्मी हिंसा देखते हुए बच्चा पीड़ित की इमेज से अपने को अलग कर लेता है।वह यह मानकर चलता है कि हिंसा अन्य बच्चे करते हैं।वह नहीं करता।इस दृष्टिकोण से यदि साम्प्रदायिक हिंसाचार को देखा जाए तो पाएंगे कि देखने वाला यह मानकर चलता है कि पीड़ित वह नहीं पीड़ित तो अन्य है।साथ ही ज्ञानात्मक स्तर पर उसका अनुभव वही नहीं होता जो पीड़ित का होता है।
माध्यम प्रक्षेपित हिंसा बच्चों, वयस्कों और पीड़ितों के एटीट्यूट्स में परिवर्तन करती है। स्त्रियों के खिलाफ क्रूर हिंसा या हल्की हिंसा का रूपायन दर्शक को स्त्री हिंसा के प्रति सहिष्णु बनाता है।आक्रामक कामुक फिल्मों को देखने वाले वयस्कों में बलात्कार की शिकार महिलाओं के प्रति कम सहानुभूति होती है। जो बच्चे हिंसा के कार्यक्रम देखने के आदी हो जाते हैं या हिंसा के इक्का-दुक्का कार्यक्रम देखने के आदी होते हैं।उनमें हिंसा के प्रति सहिष्णुता बढ़ जाती है।
इसका अर्थ यह भी है कि हिंसा के प्रति दर्शक संवेदनहीन हो जाता है। वह वास्तव में जब हिंसा देखता है तब उसकी संवेदना जागने में समय लगता है।ऐसे में वह असहाय भाव से मदद की गुहार लगाता है।यह स्थिति किसी एक कार्यक्रम या लंबे समय तक चलने वाले कार्यक्रम के प्रभाव द्वारा भी संभव है। संवेदनहीनता का एक सकारात्मक पक्ष भी है।खासकर जिन चीजों से डरना चाहिए उनके प्रति भय खत्म हो जाता है।क्योंकि जो चरित्र हिंसा करते हैं या जिन एक्शन में हिंसा होती है उनका बार-बार प्रक्षेपण भय निकाल देता है।
हिंसकों को किस नाम से पुकारें यह भी विवाद का विषय है। आप उन्हें किसी भी नाम से पुकारें इससे हिंसा का बुनियादी चरित्र और प्रस्तुत चित्र के सामाजिक प्रभाव में बुनियादी फ़र्क नहीं आने वाला।हिंसा के तर्क हिंसक की ताकतवर सामाजिक भूमिका से तय होते हैं।हिंसा का बोध वक्तव्य से नहीं हिंसा के दृश्य और हिंसक गिरोहों के सामाजिक आधार से तय होता है।
गोधरा की घटना स्वत:स्फूर्त्त थी या नियोजित थी या गुजरात का जनसंहार नियोजित या प्रतिक्रियास्वरूप हुआ इससे हिंसा के चरित्र में बदलाव नहीं आता। हिंसा सिर्फ हिंसा है।उसका स्वभाव और प्रभाव वक्तव्य से नहीं बदला जा सकता।
हिंसा जिसने भी की हो यदि आप हिंसक के नाम का भी उद्धाटन कर देते हैं तब भी उसके प्रति घृणा पैदा करना असंभव है।क्योंकि हिंसा का प्रदर्शन दर्शक को हिंसा के प्रति सहिष्णु और संवेदनहीन बनाता है। आज जो जितना सूचना संपन्न है वह उतना ही ज्यादा डरपोक है।सामाजिक हस्तक्षेप से परहेज रखता है।संकट की अवस्था में घर में बंद रहकर जीना चाहता है।साम्प्रदायिक और आतंकी हिंसा की खबरें जागरूकता और निर्भयता का बोध पैदा नहीं करतीं।बल्कि दर्शक को समाज से काटती हैं।दर्शक का समाज में बढ़ता हुआ अलगाव और साम्प्रदायिक-आतंकी संगठनों का बढ़ता प्रभाव इसकी पुष्टि करता है।
आप का निष्कर्ष सही है। लेकिन यह व्यवस्था यही चाहती भी है। इसलिए इसे रोकती नहीं।
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