हाइपररीयल का प्रतिरोध करने के लिए स्क्रीन के खेल को जानना जरूरी है। परवर्ती पूंजीवाद के प्रौपेगैण्डा और संचार की धुरी स्क्रीन है। स्क्रीन के बिना आज कोई भी संप्रेषण संभव नहीं है।
सारा देश स्क्रीन के सहारे सूचनाएं ग्रहण कर रहा है। टेलीविजन,मोबाइल से लेकर कम्प्यूटर स्क्रीन तक स्क्रीन का वातावरण फैला हुआ है। अब स्क्रीन ही सूचना है। हेबरमास के शब्दों में यह अप्रत्यक्ष गुलामी है। औद्योगिक देशों से लेकर विकासशील देशों तक स्क्रीन का ही बोलवाला है। स्क्रीन हमारे ज्ञान का स्रोत है।
आज हम दुनिया के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह स्क्रीन के जरिए ही जानते हैं। स्क्रीन में वही दिखाया जाता है जो पहले से तय है। कैमरे में बंद है। जिसे आकार दे दिया गया है। संगठित कर लिया गया है। इसके बाद ही उसे स्क्रीन पर पेश किया जाता है। स्क्रीन हमारे सामने शो,प्रदर्शनी और प्रासंगिक डाटा पेश करता है। दफ्तर, एयरपोर्ट,रेलवे स्टेशन ,टीवी चैनलों से लेकर कम्प्यूटर और मोबाइल तक स्क्रीन का शासन है।
कहने के लिए स्क्रीन तो सिर्फ स्क्रीन है। किंतु यह हमारी गतिविधियों का केन्द्र है। वह हमारा ध्यान खींचती है। साथ ही हमारी शारीरिक उपस्थिति को भी आकर्षित करती है। खासकर तब जब हम गतिविधियों को खोजते हैं। अमूमन वह हमारे सरोकारों को वातावरण की तरह व्यक्त करती है। स्क्रीन यह भी दरशाती है कि वह हमारे जीवन में कैसे दाखिल हो गयी है। हम ज्योंही स्क्रीन के सामने होते हैं तो तुरंत इसका बटन दबाते हैं और वह चालू हो जाती है और हमारा ध्यान खींचती है। हम शांति से बैठ जाते हैं। हम चाहें तो स्क्रीन देखते हुए अन्य काम भी कर सकते हैं।
हम इस पर तैयारशुदा सामग्री देखने के लिए निर्भर होते हैं। स्क्रीन के साथ हमारी इस तरह की शिरकत ही है जो हमारी सामाजिक शिरकत को कम कर रही है। सामाजिक गतिविधियों और हमारे बीच में स्क्रीन मध्यस्थता करती है।
यह प्रक्रिया तब ही शुरू होती है जब हम बटन दबाते हैं। बटन दबाते ही स्क्रीन पर चीजें हाजिर हो जाती हैं। यह एक तरह की पारदर्शिता और प्रतिगामिता है। वह पहले से ही उस जगत में थी जिसमें हम थे। वह वहां पर ही होती है जो हमारी अपनी दुनिया है। वह दुनिया को हमारे सामने लाती है। यह वह जगत है जो हमारी आंखों के सामने मौजूद है। जो हम पर निर्भर है। हमारी संभावनाओं पर निर्भर है।
इसके संदर्भ हमारे संदर्भ हैं। वह समूचे जगत को फिनोमिना के रूप में सामने पेश करती है। अब हम स्क्रीन की दुनिया में स्वयं स्क्रीन होते हैं। स्क्रीन हमारे जीवन की गतिविधियों का आईना बन जाती है। वह हमारी समस्त गतिविधियों और संभावनाओं का दर्पण बन जाती है। अब हम स्क्रीन की गतिविधियों में शामिल हों अथवा बाहर रहें। हम ज्योंही एकबार स्क्रीन के आदी हो जाते हैं तो फिर इसके बाहर नहीं जा पाते।
स्क्रीन सतह पर एक सामान्य सा शब्द है। किंतु इसके अर्थ बड़े गंभीर हैं। यह बहुवचन को सम्बोधित करने वाला शब्द है। टीवी वगैरह के संदर्भ में इसका काम है प्रस्तुत करना (प्रोजेक्टिंग) और दिखाना (शोइंग), अन्य क्षेत्र में स्क्रीन का काम है छिपाना और संरक्षण करना (पितमचसंबम ेबतममद,ए उम्मीदवारों के चयन के संदर्भ में स्क्रीन का अर्थ है परीक्षण और चयन।
कहने का अर्थ यह कि स्क्रीन बहुअर्थी है। इस तरह देखेंगे तो स्क्रीन हमारे साथ वैसे ही जुड़ा है। जैसे त्वचा। उसी तरह स्क्रीन का काम है प्रदर्शन करना और जो चीज पेश की जा रही है उसे सहमति के रूप में पेश करना। जब प्रस्तुति को सहमति के रूप में देखते हैं तो एक अन्य आयाम भी सामने आता है जिसका हमारी खोज से गहरा संबंध है।
जब कोई चीज पेश की जाती है तो प्रस्तुति वास्तव लगती है। प्रस्तुति स्वयं में जगह बन जाती है। स्क्रीन को बुनियादी तौर पर आंखों से देखते हैं। आंखों के जरिए दुनिया खास तरह से हमारे दिलोदिमाग में दाखिल होती है। उसे ज्ञानात्मक तौर पर जेहन में उतारते हैं। उसके बारे में समझ बनाते हैं। इस तरह स्क्रीन का देखना महज देखना नहीं होता बल्कि हमारी ज्ञानात्मक समझ को भी निर्मित करता है। इस अर्थ में स्क्रीन की गतिशील सतह हमारे लिए ज्यादा प्रासंगिक है।
हम जब किसी चीज को स्क्रीन पर देखते हैं तो उसके शब्द के मूल अर्थ को ध्यान में रखते हैं, मूल अर्थ को ध्यान में रखकर ही हम देखते हैं और नया अर्थ बनाते हैं।
बहुत उपयोगी. आम पाठकों के लिए भी यह समझ में आनेवाला है.
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