आधुनिक मीडिया ने '' सांस्कृतिक चक्काजाम'' कर दिया है। रेडियो, फिल्म, टीवी और इंटरनेट सांस्कृतिक जाम के सबसे बड़े मीडियम हैं। ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' की परंपरा उन सांस्कृतिक जुलूसों की तरह है जो हमारे शहरों में किसी न किसी रूप में निकलते रहते हैं। ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' का मूलाधार हैं सांस्कृतिक उद्योग के कलाकार-रचनाकार। ये वे कलाकार हैं जो नारा दे रहे हैं ''उनको कोई रोक नहीं सकता।'' ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' की धुरी हैं विज्ञापन। विज्ञापनों के जरिए यह जाम लग रहा है। ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' में शामिल कलाकारों का रवैयया काफी खतरनाक है। वे हमेशा पराजय,अतिरंजना,अतिवास्तविकता, सनसनी और कुंठा के भाव में रहते हैं। इन कलाकारों के पास जिन्दगी का राग नहीं है।
''सांस्कृतिक चक्काजाम'' में शामिल होने वाले लोग यह बात बार-बार कहते हैं कि वे संस्कृति की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं। वे यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि उनके द्वारा सांस्कृतिक जाम लगा दिया गया है। इसके कारण संस्कृति का समूचा परिवहन ठप्प हो गया है। ऑडिएंस को सांस्कृतिक हवा मिलनी बंद हो गयी है। ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' का बुनियादी लक्ष्य है ''सांस्कृतिक भ्रम या दुविधा'' पैदा करना।
''सांस्कृतिक चक्काजाम'' का '' कल्चरल जैमिंग'' के नाम से चले आंदोलन के साथ कोई संबंध नहीं है। वह मीडिया में विकल्प का आन्दोलन था, जबकि ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' कारपोरेट फिनोमिना है। इसके कुछ चर्चित रूप हैं जैसे '' अमेरिका ऑन वार'' ,सवाल किया जाना चाहिए अमेरिका कब युध्द की अवस्था में नहीं था ?
जब तक शीतयुध्द चल रहा था ,अमेरिका के पास बहाना था, जब शीतयुध्द खत्म हो गया तो उसने आतंकवाद के खिलाफ जंग का एलान कर दिया। जब अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ जंग में मशगूल नहीं रहता तो अचानक एड्स के खिलाफ जंग आ जाती है, कभी बच्चों के कामुक शोषण के खिलाफ जंग का एलान करता नजर आता है, कहने का अर्थ यह है कि अमेरिका हमेशा जंग में लगा रहता है।
गौर करें तो अमेरिका की जंग हमारी व्यक्तिगत जिन्दगी को सीधे प्रभावित करने लगती है, हम अपने जीवन के वास्तव मसलों को भूल जाते हैं। अमेरिका के द्वारा छेड़ी गयी जंग में हमेशा अमेरिका को अपना परिप्रेक्ष्य याद रहता है ,साधारण जनता का परिप्रेक्ष्य याद नहीं रहता। विन लादेन को अमेरिका ने जनप्रिय बनाया, सच यह है कि मुस्लिम देशों की मुश्किल से पांच फीसद आबादी भी उसके बारे में नहीं जानती थी, उसकी कार्रवाईयों का समर्थन नहीं करती थी,अमेरिका के द्वारा उसे पहले समर्थन दिया गया, हीरो बनाया गया और बाद में शत्रु नम्बर एक घोषित किया गया। इसके कारण विन लादेन जनप्रिय हो उठा। पहले के मीडिया में यूरोप का जगत प्रभुत्व बनाए हुए थे, बाद में अमेरिकी प्रभुत्व सामने आ गया। खबरों में इसी जगत का जाम लगा है। इसे प्रथम विश्व कहते हैं। यही ''सांस्कृतिक चक्काजाम'' की धुरी है।
'' सांस्कृतिक चक्काजाम'' का ही परिणाम है कि हम ''मासकल्चर'' का जो रूप आज देख रहे हैं, उसमें ''मासकल्चर'' जैसा कुछ भी नहीं है। आज मासकल्चर में '' मास'' या '' समूह'' जैसा कुछ भी दिखाई नहीं देता। चॉयज के विस्फोट ने हमें दरिद्र बना दिया है।
द्वितीय विश्व युध्द के बाद जो संस्कृति उभरकर आई थी उसमें मासमीडियाजनित यथार्थ प्रभुत्व बनाए हुए था। किंतु इंटरनेट के आने के बाद तो स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया है। इंटरनेट हमें अतीत की ओर ले गया है। लोकल की ओर ले गया है, आज हमारे सामने चॉयज हैं किंतु समझ नहीं है,सूचनाएं हैं, किंतु सूचनाओं के विश्लेषण का अभाव है।
चॉयज के विस्फोट ने हमें पहले की तुलना में और भी दरिद्र बनाया है। '' सांस्कृतिक चक्काजाम'' के तहत ही हमारे मीडिया के पर्दे पर ,अखबारों में हठात् कभी कभी महिलाओं के रक्षा के सवाल आ जाते हैं। इनमें से ज्यादातर सवाल जिन घटनाओं को लेकर उठते हैं, वे वास्तव घटनाएं होती हैं ,किंतु इनका कभी हमने गंभीरता के साथ मूल्यांकन नहीं किया कि आखिरकार ऐसा क्यों होता है कि एक औरत की हत्या की खबर तो छोटी खबर होती है ,किंतु किसी लड़की के साथ की गई छेड़खानी की खबर बड़ी खबर होती है। सवाल किया जाना चाहिए क्या औरत की मौत की खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण सेक्सुअल हिरासमेंट की खबर होती है ?
चॉयज के विस्फोट ने हमें पहले की तुलना में और भी दरिद्र बनाया है। '' सांस्कृतिक चक्काजाम'' के तहत ही हमारे मीडिया के पर्दे पर ,अखबारों में हठात् कभी कभी महिलाओं के रक्षा के सवाल आ जाते हैं। इनमें से ज्यादातर सवाल जिन घटनाओं को लेकर उठते हैं, वे वास्तव घटनाएं होती हैं ,किंतु इनका कभी हमने गंभीरता के साथ मूल्यांकन नहीं किया कि आखिरकार ऐसा क्यों होता है कि एक औरत की हत्या की खबर तो छोटी खबर होती है ,किंतु किसी लड़की के साथ की गई छेड़खानी की खबर बड़ी खबर होती है। सवाल किया जाना चाहिए क्या औरत की मौत की खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण सेक्सुअल हिरासमेंट की खबर होती है ?
अमेरिका ने यह शर्त लगायी है कि एड्स के लिए आर्थिक अनुदान तब दिया जाएगा जब संबंधित देश वेश्यावृत्ति के खिलाफ कदम उठाए। यह सवाल किया जाना चाहिए कि एड्स के लिए दी जाने वाली आर्थिक मदद का वेश्याओं से क्या संबंध ? वेश्यावृत्ति को यदि कोई सरकार खत्म करना चाहे तो वह कानूनी प्रावधानों के तहत आसानी से कार्रवाई कर सकती है। किंतु एड्स के नाम पर दी जाने वाली मदद का लक्ष्य पहले से मौजूद वेश्यावृत्ति विरोधी कानूनों को सक्रिय बनाना नहीं है ,जबकि सच यह है कि गरीब देशों में इन कानूनों की हालत बेहद खराब है।
हमें सवाल करना चाहिए वेश्यावृत्ति घृणित अपराध है अथवा स्त्री हत्या ? मैं कहना चाहूँगा कि स्त्री हत्या वेश्यावृत्ति से ज्यादा घृणित अपराध है। असल में वेश्यावृत्ति विरोधी कानूनी प्रयासों के साथ जब अमेरिका ने एड्स को जोड़ा तो जाने -अनजाने कठमुल्ले ईसाईयों के ''सेक्सुअल फ्रीडम'' विरोधी एजेण्डे को ही आगे किया, उसे अपनी विदेशनीति का हिस्सा बनाया। भारत में भी धार्मिक कठमुल्ले है जो अपने 'सेक्सुअल फ्रीडम विरोधी' के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं।इनके एजेण्डे को आए दिन टीवी चैनलों में व्यापक कवरेज भी दिया जाता है।
कठमुल्ले ईसाई समुदाय अमेरिका में ''एण्टी सेक्सुअल एजेण्डा'' का जमकर प्रचार करते रहे हैं। इसी प्रचार का परिणाम है कि मीडिया में सेक्सुअल हिरासमेंट की खबर महत्व हासिल करती है जबकि स्त्री हत्या या डकैती की खबर दर्ज तक नहीं हो पाती। इस सवाल को उठाने का अर्थ यह नहीं है कि सेक्सुअल हिरासमेंट की हिमायत की जाए। किंतु '' सांस्कृतिक चक्काजाम'' अपना काम करता है। वह स्त्री हत्या की खबर को सामने आने नहीं देता हिरासमेंट की खबर को एजेण्डा बना देता है। इस तरह की खबरे '' डिसेक्सुलाइजिंग सोसायटी'' के फ्रेमवर्क में पेश की जाती है। सेक्सुअल हिरासमेंट की खबरों में स्त्री ही सत्य है, पुरूष की बातों पर कोई विश्वास नहीं करता।
'' सांस्कृतिक चक्काजाम'' में एक ओर अमेरिकी विरोधी उन्माद आता है तो कभी कभी अमेरिकी संस्कृति का जयगान चलता रहता है। समग्रता में देखें तो अमेरिकी मूल्यों का महिमामंडन '' सांस्कृतिक चक्काजाम'' का सबसे बड़ा क्षेत्र है। हम संक्षेप में उन अमेरिकी मूल्यों को देखें जो टीवी में नजर आते हैं।
मसलन् अमेरिकी दर्शकों को खासकर अमेरिकी औरतों को गैर-अमेरिकी संस्कृति के स्थानीय मर्दों से दूर रखने की कोशिश की जाती है। इस तरह के प्रयासों को स्त्री की मुक्ति के प्रयासों के रूप में देखा जाता है। इसी तरह अन्य संस्कृति की औरतों को उनके पति से मुक्त रहने के फार्मूले सुझाए जाते हैं। इसके लिए गैर-अमेरिकी संस्कृति की औरतों में यह भावना पैदा की जाती है कि तुम्हारा पति सही व्यवहार नहीं करता अथवा बुरा व्यवहार करता है। अमेरिकी बच्चों को अन्य संस्कृति के अभिभावकों और वयस्क चरित्रों से बचाने के प्रयास किए जाते हैं। अनाथ बच्चों को अवज्ञा के लिए उकसाया जाता है। बच्चों में अमेरिकी ईसाईयत के मूल्यों का प्रचार किया जाता है।
अमेरिका यह आभास देता है कि उसका असल लक्ष्य है ग्लोबल व्यापार और सुरक्षा प्रदान करना। किंतु सच यह है कि अमेरिका का असली लक्ष्य है सांस्कृतिक चक्काजाम करना। इसके जरिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को थोपा जाता है। अमेरिकी रवैयये में राजनीति दबाव का काम करती है। वे विचारधारात्मक दबाव ग्रुप की तरह इसका इस्तेमाल करते हैं।
राजनीतिक चक्काजाम का सबसे बड़ा रूप है स्वयंसेवी संगठनों का विश्वव्यापी नेटवर्क। आज यही नेटवर्क अफगानिस्तान को चला रहा है। और भी अनेक देशों में इसकी निर्णायक भूमिका है। अमेरिका के अनेक ब्रॉण्ड हैं जो अपनी वजह से नहीं स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिवाद की वजह से जाने जाते हैं।
'' सांस्कृतिक चक्काजाम'' का ही परिणाम है कि आज अमेरिका का प्रधान लक्ष्य आर्थिक शोषण नहीं है बल्कि वे गैर अमेरिकी देशों के समाजों को अपने विचारों में ढ़ालना चाहते हैं, उसके लिए ही प्रयास करते रहते हैं। आर्थिक वर्चस्व स्थापित करना प्रधान लक्ष्य नहीं है बल्कि प्रधान लक्ष्य है विचारधारात्मक वर्चस्व स्थापित करना।
अमेरिकी साम्राज्यवाद के दो बुनियादी लक्ष्य हैं पहला आर्थिक है और दूसरा राजनीतिक है जिसके तहत सांस्कृतिक मालों पर कब्जा जमाना और सांस्कृतिक मालों के जरिए जनप्रियचेतना स्थापित करना। यही वह बिंदु है जो सांस्कृतिक चक्काजाम की धुरी है। सांस्कृतिक चक्काजाम ,सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और मनोरंजन उद्योग के जरिए व्यापक मुनाफा बटोरा जाता है। वहीं दूसरी ओर लोगों को उनकी संस्कृति और जड़ों से अलग किया जाता है। उन्हें मीडियाजनित जरूरतों से बांध दिया जाता है।
"सांस्कृतिक चक्काजाम में असहाय संस्कृति"
जवाब देंहटाएंExcellent analysis.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकाफी अच्छा है सर . खासकर मेरे काम का है . मै साइबर स्पेस पर p h d कर रहा हूँ . आपके लेखों से काफी कुछ दृष्टी मिली है.
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