हाइपररीयल धरातल पर जब राजनीतिक विमर्श चला जाता है तो वह वास्तव से भी ज्यादा सुंदर नजर आता है। वास्तव से ज्यादा प्रामाणिक नजर आता है। मोदी के साथ यही हुआ है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी सन् 2002 की तुलना में आज ज्यादा प्रामाणिक,निर्दोष,निष्कलंक और ईमानदार नजर आ रहे हैं। इसका प्रधान कारण है आरएसएस और खासकर नरेन्द्र मोदी हाइपररीयल पैराडाइम में चले जाना। गुजरात का मूल मुद्दा विकास नहीं बल्कि मानवाधिकारों की बहाली है।
हाइपररीयलिटी के परिप्रेक्ष्य में जब भी राजनीति को परिभाषित और संगठित किया जाएगा तो मानवाधिकारों के लिए सबसे पहले खतरा पैदा होगा। सवाल उठेगा कि क्या मानवाधिकार बचेंगे ? मोदी की हाइपररीयल चालाकी है कि उसने मुद्दा बदल दिया है। मोदी ने विकास को मुद्दा बनाया ,जबकि गुजरात का यह केन्द्रीय मुद्दा है ही नहीं। गुजरात का केन्द्रीय मुद्दा है मानवाधिकार। मानवाधिकारों के बिना विकास बेमानी है। मोदी ने विकास और मानवाधिकार में अंतर करके प्रौपेगैण्डा किया है। कांग्रेस की सबसे बड़ी असफलता यहीं पर है। वह मानवाधिकार को विकास के ऊपर तरजीह नहीं दे पायी।
हाइपररीयल राजनीति का मोदी का मुहावरा ठीक काम कर गया। अमरीकापंथी भूमंडलीकरण को विकास पसंद है। मानवाधिकार सहित विकास पसंद नहीं है। मानवाधिकारों के बिना लोकतंत्र अथवा मतदान का समूचा प्रपंच स्वांग है। गुजरात में संघ परिवार के द्वारा अहर्निश मानवाधिकारों का हनन चल रहा है। राज्य के विभिन्न संस्थान मानवाधिकार हनन में सक्रिय रूप से शामिल हैं । हाइपररीयल की यही बुनियादी विशेषता है कि वह आपको वास्तव का स्पर्श करने ही नहीं देता। यह ऐसा यथार्थ है जो कहीं पर भी मौजूद नहीं है। बड़े मीडिया को स्वभावत: मानवाधिकार सहित लोकतंत्र नापसंद है। उसे मानवाधिकाररहित लोकतंत्र पसंद है। उसे मानवाधिकार सहित विकास की बजाय सिर्फ विकास चाहिए। मोदी इस अर्थ में बाजी मार ले गया।
हमें यह सवाल उठाना चाहिए क्या गुजरात में बुनियादी मानवाधिकार संकटग्रस्त हैं या नहीं ? क्या मानवाधिकार के बिना विकास स्वीकार्य है ? मानवाधिकाररहित विकास का मॉडल संघ परिवार के बुनियादी राजनीतिक फ्रेमवर्क में ठीक बैठता है। यहीं पर यह भी सवाल उठता है कि क्या सन् 2002 के दंगों को मुद्दा बनाया जा सकता है ? क्या यह संभव है कि किसी प्रांत में समूची राज्य मशीनरी मानवाधिकार हनन में सक्रिय हो और केन्द्र सरकार आंखें बंद करके देखती रहे ? क्या राज्य की स्वायत्तता के नाम पर मानवाधिकारों के अहर्निश हनन को वैधता प्रदान की जा सकती है ? दिक्कत यहीं पर है। हमारा संविधान राज्य के दायरे में हस्तक्षेप नहीं कर पाता चाहे जितना ही बड़ा मानवाधिकार हनन का अपराध राज्य सरकार अथवा उसके प्रतिष्ठान करें। कोई राज्य सरकार मानवाधिकारों का पालन कर रही है अथवा नहीं इस आधार पर देखा जाना चाहिए कि वहां लोकतंत्र सक्रिय है या नहीं। इस संदर्भ में नए संविधान संशोधनों की भी जरूरत है। मौजूदा संविधान में इस तरह की स्थिति से निबटने का कोई रास्ता नहीं सुझाया गया है।
मोदी की हाइपररीयल राजनीति की विशेषता है कि उसने मानवाधिकार उल्लंघन के सवालों को केन्द्र में आने ही नहीं दिया और बड़ी चालाकी से यह भी संदेश दे दिया कि विकास के रास्ते में मानवाधिकार और उनके लिए संघर्ष करने वाले संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। यही वह बिंदु है जहां पर मोदी भूमंडलीकरण के अमरीकीपंथी खेमे के बड़े सिपहसालार के रूप में उभरकर सामने आता है। मोदी के शासन में इजारेदारियों की चांदी हुई है। पूंजी निवेश हुआ है। साथ ही सबसे ज्यादा मानवाधिकारों का हनन भी हुआ है। इससे संघ परिवार का सर्वसत्तावादी प्रकल्प सही दिशा में अग्रसर होता नजर आता है। कागज पर गुजरात में मानवाधिकार हैं किंतु व्यवहार में गायब हैं। व्यवहार में चुनाव हुए हैं। विपक्ष भी था। जनता भी थी, निर्भय और स्वतंत्र मतदान भी हुआ है। किंतु जनता के दिमाग की धुलाई कर दी गयी । बहुसंख्यक जनता के जेहन में मानवाधिकारों को अप्रासंगिक बना दिया गया । मानवधिकारों की बजाय सुरक्षा को मुद्दा बनाया गया। मोदी ने विकास के साथ सुरक्षा के सवाल को उठाया और बड़ी चालाकी से अपने राजनीतिक एजेण्डे को आगे बढ़ाते हुए विकास और सुरक्षा को अन्तर्ग्रथितभाव से पेश किया। मोदी ने सुरक्षा को मानवाधिकार से स्वायत्त बनाया और सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर आतंकवाद को प्रचार के केन्द्र में रखा। आतंकवाद को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया। स्वयं को राष्ट्रीय सुरक्षा के सबसे बड़े संरक्षक और चैम्पियन के तौर पर पेश किया। कांग्रेस को आतंकवाद के प्रति नरम रूख रखने वाले दल और स्वयं को आतंकवाद के प्रति निर्मम रूख रखने वाले दल के नेता के रूप में पेश किया।
मोदी ने जब विकास को मुद्दा बनाया तो उसे इच्छा के फ्रेमवर्क में पेश किया। स्वयं को इच्छा और विकास के साथ जोड़कर पेश किया। जाहिर है जब लोगों से यह सवाल किया जाएगा कि आप विकास चाहते हैं या दंगा ? स्वाभाविक जबाव होगा विकास। इस वर्गीकरण में चालाकी से यह संदेश दिया गया कि जो लोग दंगे की बात कर रहे हैं, सन् 2002 के दंगों के सवाल जो लोग उठा रहे हैं वे पुन: दंगों के दिनों में ले जाना चाहते हैं। वे विकास नहीं चाहते बल्कि गढ़े मुर्दे उखाड़ना चाहते हैं। सवाल किया गया आप गढ़े मुर्दे उखाड़ना चाहते हैं या विकास ? स्वाभाविक जबाव था विकास। यही वह बिंदु है जहां पर मोदी एकदम नयी स्थिति पैदा करता है और विकास को इच्छाओं से जोड़ देता है। विकास को जब इच्छाओं से जोड़ दिया गया तो इसका स्वाभाविक लाभ मोदी को मिलना था और वह मिला भी।
इच्छाएं उत्पादक होती हैं। इच्छाओं को हवा देने से जनाधार में इजाफा होता है। पहले हम इच्छा पर बातें करते हुए उसे तर्क से जोड़ते थे अब तर्क से नहीं जोड़ते बल्कि इच्छा को पाने की चाहत से जोड़ते हैं। उसे चाहे जैसे हासिल किया जाए। यही ग्लोबल विकास का नया हाइपररीयल फार्मूला है। जिसे अन्य कई मुख्यमंत्री लागू कर रहे हैं। मजेदार बात यह है मोदी विकास को इच्छा से और इच्छा को सत्ता प्राप्ति से जोड़ते हैं और उन्हें इसमें सफलता मिलती है। यही चीज है जिसे मिशेल फूको ने इच्छा का सत्ता में रूपान्तरण कहा था। मोदी का विकास और इच्छा का अन्तस्संबंध उस कविता की तरह है जिसकी कोई विषयवस्तु नहीं होती। किंतु अच्छी लगती है। मनोहारी लगती है।
मोदी एक ऐसे आख्यान को सामने लाते हैं जो अभी तक लिखा नहीं गया । मोदी जब विकास को इच्छा से जोड़ते हैं तो प्रौपेगैण्डा के जरिए संवेदनशील बनाते हैं। इच्छाओं के प्रति संवेदनशील बनाते हैं। साथ ही तमाम किस्म की जातिवादी अनुभूतियों को भी संवेदनशील बनाते हैं। जातिवादी भावनाओं को जगाते हैं। जातिवादी भावनाओं को जगाए बिन हिन्दुत्व नहीं जागता। जातिगत अनुभूतियों को जगाते समय हिन्दू संस्कारों और रूढियों को हवा देते हैं। समूचे नैतिक परिवेश को हिन्दुत्व के तानेबाने में पेश करते हैं। हिन्दू अहं को महत्ता देते हैं। स्वयं को हिन्दू अहं का प्रतीक बनाते हैं, स्वयं ही तय करते हैं कि वह किस चीज को अस्वीकार कर रहे हैं। मोदी का अस्वीकार करने का तरीका भी निराला है। ''पांच करोड़ गुजराती'' की आवाज,सुरक्षा,सम्मान ,विकास और अस्मिता को अपना मूल मंत्र बनाते हैं। ''पांच करोड़ गुजराती'' मानते हैं अब तुम भी मानो। मोदी का स्वयं को पांच करोड़ गुजरातियों का प्रतिनिधि मानना और उनको सुरक्षा का वायदा करना उन्हें मानवाधिकार के विमर्श,दायित्व और जबावदेही के बाहर ले जाता है।
बड़े-बड़े शब्दों का भ्रमजाल फैलाकर मुर्गे फंसाना कमीनीस्टी इतिहास रहा है। कमीनीस्टी-विकास की खास बात यह है कि वह 'हाइपररीयल' होता है।
जवाब देंहटाएंइसे भी झुठला दोगे कि गुजरात के विकास के बारे में कोई तीसरा तो निष्पक्ष बात करता ही है, क्या ही अच्छा होता कि थोड़ा हाइपर्रियल्ती बुधा और कमिनिस्ठो की भी उजागर करते !
जवाब देंहटाएंअसली विकास तो बंगाल में हुआ है, जहाँ मुस्लिम जनसंख्या बहुल जिलों की संख्या 4 से बढ़कर 16 हो गई है, और मानवाधिकार भी वहीं सुरक्षित हैं क्योंकि नंदीग्राम और सिंगूर में अमन है तथा बुद्धूदेव मुस्लिमों को 10% आरक्षण का लालीपाप दे रहे हैं…।
जवाब देंहटाएंmanav adhikar ka hanan kahan nahi ho raha hai ? aagay es par vichar karne ki jarurat hai.aapne sahi kaha hai ki sirf vikas ki bat karke aap apni bhumika ko badal nahi sakte . aaj hamara loktantra mein har state mein kahin chupchupa kar to kahin khuleaam manav adhikaro ki dhajjian udai ja rahi hain.narendra miodi jaise log har jagah hain.
जवाब देंहटाएंऐसा नहीं है कि आप परा-भूगत चीजें लिख रहे हैं, जिन्हें मैं शब्दों का भ्रमजाल कहूं. मैं तो पढ़ना भी नहीं चाह रहा है, लेकिन पढ़ना पड़ रहा है.
जवाब देंहटाएंआपके पास सांप्रदायिक दंगों का विस्तृत लेखा जोखा है?
क्या देश में एक ही, सांप्रदायिक दंगे हुए और वो भी सिर्फ गुजरात में?
बीस सालों से कश्मीरी पंडित अपने ही देश में खाना बदोश की जिंदगी जी रहे हैं, क्या देश के किसी मानवाधिकारवादी ने उन पंडितों के साथ आवाज उठाई है.
क्या कभी किसी मानवाधिकारवादी ने सिख- दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए धरना पर बैठा है या कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
फिर आप लोग इस देश में किस मानवाधिकार की बात करते हो.
तरस आती है आपकी बुद्धि, आपकी सोच और आपकी विचारधारा पर.