शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

स्क्रीन जंग का महानायक नरेन्द्र मोदी




(गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी)
                        ( नरेन्द्र मोदी के मुखौटे)
मोदी का कवरेज जब स्क्रीन पर देखा जा रहा था तो सतह पर उसे विकासपुरूष के रूप में पेश किया गया । मोदी हठात् विकास पुरूष कैसे बन गया यह अभी भी रहस्य है। सरकारी आंकड़े मोदी के दावे को पुष्ट नहीं करते। इसका अर्थ है मोदी और मीडिया का संबंध इसबार बुनियादी तौर पर बदला है। अथवा सन् 2002 की परंपरा में ही मीडिया ने मोदी को पेश किया है ? मीडिया ने मोदी के साथ अपने संबंध को पुनर्परिभाषित किया है। स्वयं मीडिया की भूमिका को भी पुनर्परिभाषित किया है। सन् 2002 में जो चैनल अहर्निश प्रचार कर रहे थे मोदी विनाशपुरूष है वे ही चैनल और वे ही एंकर और व्याख्याकार बता रहे थे मोदी विकासपुरूष है।

असल में मोदी का विकास और विनाश से उतना ज्यादा संबंध नही है जितना संबंध संघ परिवार से है। मोदी को जब भी स्क्रीन पर देखते हैं तो मोदी का मूल अर्थ (संघ का कार्यकर्त्त) हमेशा याद आता है। इसबार के गुरात विधानसभा चुनाव के चैनल संग्राम में संघ से मोदी को अलग करके पेश किया गया। यह कार्य बड़ी ही चालाकी से किया गया।
चैनलों से लेकर प्रेस तक जहां भी देखो मोदी को साधारणलोगों के बीच में ही रखकर पेश किया गया। मोदी नहीं थे तो उसके मुखौटे थे। मुखौटों को देखकर लग रहा था  आम जनता ने मोदी का प्रतीकात्मक काल्पनिक प्रतिनिधित्व स्वीकार कर लिया है। जनता निष्क्रियता और स्वर्त:स्फूर्त्तता के बीच कहीं गुम हो गयी थी। यह ऐसी जनता थी जो हमेशा ऊर्जा से भरी नजर आ रही थी। सामाजिक तौर पर सुरक्षित सामाजिक ऊर्जा से भरी हुई। वही जनता अब महज मूक संदर्भ बनकर रह गयी । कल यही जनता जब बोलेगी तब मूक जनमत नहीं कहलाएगी बल्कि प्रतिवादी जनता कहलाएगी।
एक जमाना था जब गुजरात की जनता को गांधी की जनता, क्रांतिकारी जनता कहते थे। आज वही गुजरात की जनता मोदी की जनता है। साम्प्रदायिकता का समर्थन करने वाली जनता है। आधुनिक सोच यही मानता है जनता तो हमेशा हीरो,पीड़ित अथवा मुख्य बाधा होती है।

वामनेता यह मानते हैं कि पीड़ित लोग छद्मचेतना की वजह से कष्ट पाते हैं। किंतु उसमें  हीरो छिपे होते हैं। क्रांतिकारी लोग इन छिपे हीरो को बाहर निकालते हैं जनता को जाग्रत करते हैं और इतिहास के अगले चरण में दाखिल होते है। हमें बुनियादी तौर यह बात ध्यान रखनी होगी कि जनता अमूर्त पदबंध है। उलझनें पैदा करता है। आधुनिककाल में विचारधारा के प्रसार के लिए अपनी-अपनी जनता का निर्माण किया जाता है। इसलिए जनता के पदबंध को अनालोचनात्मक नजरिए से नहीं देखना चाहिए।
     दक्षिणपंथी मानते हैं जनता सहयोगी,अज्ञानी और खतरनाक होती है। उसे अनुशासित करके रखना चाहिए।  उसकी चेतना के स्तर पर जाकर बातें की जानी चाहिए। जिससे उसकी क्षमता के बारे में बताया जा सके। जनता बच्चे की तरह होती है उसे अनुशासन के जरिए क्षमता का ज्ञान कराया जाना चाहिए। सामयिक समाज में जनता का मूकबहुमत (साइलेंट मेजोरिटी) की यथार्थ में दिलचस्पी नहीं होती।वह गंभीरता के साथ चीजों पर नहीं सोचती।
हम उपभोक्ता समाज में रहते हैं। वह उपभोग की मांग पैदा करता है। हम विशिष्ट किस्म के राजनीतिक अर्थ की मांग पैदा करता है।  मोदी ने इस स्थिति को वोटों में तब्दील किया है। चुनाव को नए अर्थ,नए सवाल, नयी पद्धति और नए उन्माद से भरा है। फलत: जनता ने मोदी को वोट दिया और मोदी को जो वोट मिला यह उसके नए का फल है।

मोदी ने नए का तानाबाना संघ परिवार की राजनीति के इर्दगिर्द ही बुना और लोगों को गोलबंद किया। मोदी ने उपभोक्तासमाज के नियमों का पालन किया और हिन्दुत्व की खपत बढ़ा दी।

प्रसिद्ध मीडिया सिद्धान्तकार बौद्रिलार्द ने अपनी किताब '' इन दि सैडो ऑफ दि साइलेंट मेजोरिटीज'' में विस्तार से गूंगे बहुमत की व्याख्या की है। यह किताब सबसे पहले 1978 में फ्रेंच में आई और सन् 1983 में अंग्रेजी अनुवाद आया। गूंगा बहुमत उन लोगों का है जो सामयिक समाज के प्रति अनभिज्ञ हैं और उनकी अनभिज्ञता किसी भी तरह कम नहीं हो रही है। वे अनभिज्ञता को कम करके ही राजनीति में शिरकत कर सकते हैं। किंतु वे शिरकत नहीं करते,वे राजनीति नहीं चाहते। बल्कि अपनी अनभिज्ञता बनाए रखते हैं।

नरेन्द्र मोदी ने जनता की अनभिज्ञता को खोखलेनारे और भावोन्माद अथवा राजनीतिक ध्रुवीकरण के जरिए भरा ।  संघ के खिलाफ जनता की चुप्पी मोदी का सबसे बड़ा रक्षाकवच है। जनता चुप्पी के बहाने अपना संरक्षण कर रही है। यह चुप्पी क्यों है ? जनता की चुप्पी का मूल कारण है गुजरात में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में इजाफा और भय की सृष्टि। आज के हालात में चुप्पी ही जनता का रक्षाकवच है। इस चुप्पी में जनता और संघ परिवार के अन्तर्विरोध छिपे हैं। चुप्पी के जरिए जनता ने अपने को और भी निष्क्रिय बनाया है। वह निष्क्रियता के खेल के जरिए अन्तर्विरोधों को चरमोत्कर्ष तक ले जाएगी और तब विस्फोटक स्थिति बनेगी और जनता बोलेगी।
     गुजरात में मोदी की सन् 2002 में जब जीत हुई तो सारा देश स्तब्ध रह गया था और अब पांच साल बाद पुन: मोदी जीता है तो धर्मनिरपेक्ष लोग विश्वास नहीं कर पा रहे हैं और अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।

मोदी की जीत के पीछे एक खास किस्म की फैंटेसी काम रही है। जिसे हम हिंसक या हत्यारी फैंटेसी कहते हैं। यह ऐसे लोगों की फैंटेसी है जो संख्या में ज्यादा हो गए हैं कल तक इनकी संख्या कम थी किंतु विगत पन्द्रह सालों में इनकी संख्या बढ़ी है। हत्यारी फैंटेसी के बारे में सामान्यतौर पर एक ही बात जेहन में आती है कि उसे दबाया जाए। किंतु हम अच्छी तरह जानते हैं कि उसे दबाया नहीं जा सकता।

हम जानते हैं कि साम्प्रदायिकता शैतान है। उसका लक्ष्य है भारत पर एकच्छत्र शासन कायम करना। इस लक्ष्य को हासिल करने में साम्प्रदायिकता ने कभी आलस्य नहीं दिखाया। साम्प्रदायिक ताकतें जानती हैं कि वे प्रतीकात्मक रणनीति के तहत सक्रिय हैं, प्रतीकों के जरिए ही हमला करती हैं और आमलोगों के आलस्य का दुरूपयोग करती हैं। अमूमन साम्प्रदायिक संगठन के प्रतीक हमलों के प्रति हम आलस्य और उपेक्षा का भाव दिखाते हैं।

इसके विपरीत संघ परिवार कभी भी अपने प्रतीकात्मक हमलों को लेकर आलस्य अथवा उपेक्षाभाव नहीं दिखाता। काफी लंबे समय से संघ परिवार के एजेण्डे पर मुसलमान और ईसाई हैं। इस्लाम और ईसाई धर्म है। अब ये हमले वाचिक हमले की शक्ल से आगे जा चुके हैं।

भूमंडलीकरण और नव्य-उदारतावाद के दौर में संघ के प्रतीकात्मक हमले तेज हुए हैं। मोदी इन्हीं हमलों की पैदाइश है। संघ की प्रतीकात्मक जंग का महानायक है मोदी। संघ के प्रतीकात्मक हमलों के निशाने पर जहां एक ओर अल्पसंख्यक हैं वहीं दूसरी ओर ग्लोबलपंथी ताकतें और ग्लोबल प्रतीक और ग्लोबल उत्सव भी हैं।

हमारे दैनन्दिन जीवन में जिस तरह विध्वंस की इमेजों की फिल्मों के जरिए खपत बढ़ी है ,विध्वंस हमें अच्छा लगने लगा है और उसमें मजा आता है। हमारे इसी विध्वंस और हिंसा प्रेम को संघ परिवार अपने विध्वंसात्मक कर्मों के लिए इस्तेमाल कर रहा है। संघ के विध्वंसात्मक कर्मों को देखकर अब हमें गुस्सा नहीं आता बल्कि देखकर मजा आता है,रोमांचित होते है और ऐसे ही घटनाक्रमों की और भी ज्यादा मांग करने लगे हैं ।यह वैसे ही है जैसे हम हिंसक फिल्में देखते हुए और भी ज्यादा हिंसक फिल्मों की मांग करते हैं। यह वैसे ही है जैसे पोर्नोग्राफी देखकर आप और पोर्नोग्राफी की मांग करते हैं।
    
 हमने अपने को सहजजात संवृत्तियों के हवाले कर दिया है। सहजजात संवृत्तियों के प्रति हमारे आकर्षण ने संघ के हमलों के प्रति सहिष्णु,उदार और अनुयायी बना दिया है। जब मुस्लिम बस्तियों पर हमले किए गए और मुसलमानों को जिंदा जलाया गया तो हम भूल ही गए कि ऐसा करके संघ परिवार ने देश की आम जनता को संकेतों के जरिए समझा दिया है कि तुम्हारा हिंसक आनंद का सारा सामान हमारे पास है।

अब वे हिंसा के नए खेल के नियम तय कर रहे हैं। नए नियम के मुताबिक संघ परिवार अब ज्यादा उन्मादी,बेलगाम और हिंसक हो गया है। साम्प्रदायिक ताकतें आज इतनी ताकतवर हैं कि वे कहीं पर भी हमला करती हैं और उनके संगठन के मुखिया अथवा हत्यारे लोग खुलेआम घूमते रहते हैं। पहले की तुलना में वे अब ज्यादा असहिष्णु ,आक्रामक और बर्बर हो गए हैं। आज उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है। उनकी किसी के प्रति जबावदेही नहीं है।
    
साम्प्रदायिक ताकतें आतंक की प्रतीक बन गयी हैं। उनकी कोई सकारात्मक विचारधारा नहीं है, उनके पास हमले का कोई कारण नहीं है, उनके पास हिंसा के पक्ष में कोई तर्क नहीं है और उनके पास किसी भी किस्म की राजनीति भी नहीं है। यदि कोई चीज है तो आक्रामक साम्प्रदायिकता है। इस आक्रामक साम्प्रदायिकता की प्रयोगस्थली है गुजरात।

साम्प्रदायिकता वायरस की तरह है,यह हर जगह फैल चुका है। इससे सरकार, सत्ता और संस्थान सभी डरने लगे हैं। इसकी कोई सीमा अथवा प्रान्त नहीं है। इसकी कोई एक परिभाषा नहीं है। साम्प्रदायिकता की अपनी संस्कृति होती है जिसे आप उसके अहर्निश घृणा अभियान और हिंसाचार में देख सकते हैं। घृणा का अपना तंत्र होता है और अपना शत्रु भी होता है। घृणा से घृणा पैदा होती है। इसी अर्थ में घृणा अपना भक्षक स्वयं निर्मित करती है।
                घृणा हमेशा सत्तावर्ग के संरक्षण में विकास करती है। साम्प्रदायिक घृणा का भी सत्ता के संरक्षण में विकास हुआ है। सचेत रूप से संघ को सत्ता का संरक्षण प्राप्त रहा है और इसमें कांग्रेस की समय-समय पर प्रत्यक्ष भूमिका रही है। साम्प्रदायिकता शॉकवेब की तरह है और यह अपने करेंट के झटकों से सभ्यता,धर्म आदि को पीड़ित किए हुए है। कहने को साम्प्रदायिकता प्रत्यक्ष व्यक्त करती है किंतु प्रत्यक्ष से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसकी अप्रत्यक्ष विचारधारात्मक भूमिका। जिसकी तरफ हम कभी ध्यान ही नहीं देते। साम्प्रदायिकता प्रत्यक्ष से ज्यादा अप्रत्यक्ष रूप में खतरनाक होती है।





1 टिप्पणी:

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...