संघ के मोदी प्रयोग ने एक और काम किया है उसने भारत में विविधता की सीमारेखा तय कर दी है। धर्मनिरपेक्षता ने विविधता की असंख्य संभावनाओं को खोला था किंतु संघ ने विविधता की सीमा बांध दी है। विविधताओं में अन्तर्क्रिया की भी सीमा तय कर दी है। इस मॉडल को वे धीरे-धीरे सारे देश में ले जाने चाहते हैं। उनका मानना है धर्मनिरपेक्ष अनंत विविधता समस्या की मूल जड़ है। विविधता की जड़ों कोही काटने के फार्मूले के तौर पर ''पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता'' पर जोर दिया गया। यह मूलत: गुजरात की सांस्कृतिक-भाषायी और धार्मिक विविधता का अस्वीकार है। इसमें एकत्व का भाव है। समानता और न्यायभावना नहीं है।
गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसाचार सिर्फ कायिक हिंसा तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि गरीबी, शिक्षा, सामाजिक उत्पीडन आदि के रूप में भी इसको व्यापक रूप दिया गया है। मसलन् कोई व्यक्ति यदि ईसाई है तो उत्पीड़न का शिकार है,अन्तर्जातीय विवाह करता है तो उत्पीड़ित किया जाता है, मुसलमान किसी स्कूल को चलाते हैं तो उनमें हिन्दू बच्चे पढ़ने नहीं जाते, मुसलमान की दुकानों से हिन्दू खरीददारी नहीं कर रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में कोई नाटक खेलता है, पेंटिंग बनाता है,व्याख्यान देता है तो उसके कार्यक्रमों में संघ के हुड़दंगी वीरपुंगव पहुँच जाते हैं। ऐसा करते हुए मोदी ने विगत पांच सालों में समाज में स्थायी विभाजन पैदा कर दिया है। समूची प्रशासनिक मशीनरी संघ के इशारे पर काम कर रही है। संघ का आदेश आखिरी आदेश होता है।
सन् 2002 के पहले तक इतना व्यापक सामाजिक विभाजन समाज में नहीं था किंतु दंगों के बाद उभरी शांति ने विभाजन को मुकम्मल बना दिया है। नेता लोग साम्प्रदायिक सद्भाव की बात करते रहे हैं किंतु वास्तव में गुजरात में साम्प्रदायिक विचारधारा के हमले बंद नहीं हुए हैं। मोदी यदि अपने चुनाव घोषणापत्र को लागू करने में दिलचस्पी लेते तो शायद माहौल कुछ बदला होता किंतु मोदी की दिलचस्पी लोकतंत्र में नहीं थी। मजेदार बात यह है कि अब कहा जा रहा है कि आज गुजरात में जो हुआ है वैसा ही सारा देश में होगा। गुजरात का विकास हुआ है और भविष्य में यदि भाजपा को मौका मिले तो सारे देश का भी गुजरात के पैटर्न पर विकास होगा।
मोदी को विकासपुरूष बनाने वाले मीडिया भाष्यकार यह भूल गए मोदी का साम्प्रदायिक विचारधारा के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। यह विचारधारात्मक तौर पर संभव नहीं है कि संघपरिवार अपना साम्प्रदायिक एजेण्डा विकास के बहाने त्याग दे। बल्कि सच इसके एकदम उलट है संघ परिवार ने विकास को फासीवादी और सर्वसत्ताावादी नजरिए से परिभाषित किया है। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। गुजरात के संदर्भ में भाजपा के साम्प्रदायिक हिंसा में जितने हाथ रंगीन हैं उतने ही कांग्रेस के भी रंगीन हैं। साम्प्रदायिक हिंसाचार के मामले में ये दोनों अपने-अपने तरीके से संघ परिवार की सेवा करते रहे हैं। यह भी कह सकते हैं कि फिलहाल संघ को मोदी ज्यादा पसंद हैं।
फर्ज करो मोदी हार जाते तो क्या होता ? कौन मुख्यमंत्री होता ? निश्चित रूप से जो भी मुख्यमंत्री होता वह संघ का ही व्यक्ति होता। विकल्प साफ थे-केशुभाई पटेल,सुरेशमेहता,शंकरसिंह बाघेला,काशीराम राणा अथवा कोई पुराना नरम हिन्दुत्ववादी कांग्रेसी मुख्यमंत्री होता। चुनाव तो गरम हिन्दुत्व और नरम हिन्दुत्व में ही होना था। जाहिरातौर पर जब हिन्दुत्व ही चुनना है तो जनता ने गरम हिन्दुत्व को चुना और अपने लिए शांति खरीद ली। कम से कम मोदी के जीतने से हिन्दुओं पर हमले तो नहीं होंगे। यदि मोदी हार जाते तो चुप बैठने वाले नहीं थे और नए किस्म के हिंसाचार की लहर के वापस लौटने की संभावनाएं थीं यही वह डर है जिसे मोदी ने अपनी राजनीतिक वीरता की पूंजी बनाया है।
मोदी का जीतना साम्प्रदायिकता की विदाई नहीं है बल्कि साम्प्रदायिकता का बने रहना है। गुजरात की जनता के सामने विकल्प बेहद खराब थे और नरम और गरम साम्प्रदायिकता में से ही चुनना हो तो गरम साम्प्रदायिक कम से कम एक समुदाय विशेष को तो नकली शांति देती ही है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो साम्प्रदायिकता का विकल्प विकास नहीं है बल्कि विकास को बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। ध्यान रहे साम्प्रदायिकता कभी बहाने के बिना अपना आधार विस्तार नहीं कर पाती। साम्प्रदायिकता को इस बार 'पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता'' के नाम पर 'विकास' का प्रपंच खड़ा करने की जरूरत पड़ी है। विकास के नाम पर वे राज्य में जो भी नीति और योजनाएं लागू कर रहे हैं वे सारी केन्द्र सरकार की हैं। राज्य की अपनी कोई स्वतंत्र नीति नहीं है। जो स्वतंत्र नीतियां लागू की गईं उनमें धर्मान्तरण रोकने के नाम पर लाया गया कानून है जो व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करता है।
सवाल उठता है क्या कभी गुजरात साम्प्रदायिकता के जहर से पूरी तरह मुक्त हो पाएगा ? यह तब ही संभव है जब घृणा और हिंसा का राज्य प्रशासन संप्रेषण और संरक्षण बंद कर दे अथवा इसके खिलाफ केन्द्र कोई हस्तक्षेप करके कानून लाए। फिलहाल की स्थिति में यह असंभव लगता है। साम्प्रदायिक ताकतें जिस राज्य में अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो जाती हैं वहां पर असंवैधानिक सत्तााकेन्द्रों की चांदी हो जाती है। प्रशासन निष्पक्षभाव से काम करना बंद कर देता खत्म है।
गुजरात के संघ मॉडल की विशेषता है कि समूची प्रशासनिक मशीनरी का साम्प्रदायिकीकरण। अपराधियों को खुला संरक्षण। सामाजिक जीवन में हिन्दू परंपरावाद का जयघोष। हिन्दू परंपरावाद के आधार पर ही समस्त कला-साहित्य-संस्कृति से लेकर जीवनशैली के रूपों को परिभाषित किया जा रहा है। गैर हिन्दू परंपराओं के खिलाफ हमलावर कार्रवाईयां संगठित की जा रही हैं। परंपरावाद की उपभोक्तावाद के साथ संगति का महिमामंडन चल रहा है,उपभोक्तावाद के गैर-पारंपरिक रूपों के खिलाफ हमले संगठित किए जा रहे हैं। भाजपा और संघ परिवार गुजरात के बाहर कानून व्यवस्था के नियमों के पालन की मांग करता है जबकि भाजपा संचालित राज्यों में इसकी अनदेखी करता है। देश में संविधान और कानून के पालन की मांग करता है किंतु गुजरात में स्वयं ही संविधान और कानून को ठेंगा दिखाता है। इससे कम से कम एक बात साफ है कि भारत के संविधान और कानून को लेकर संघ परिवार में किसी भी किस्म की न्यूनतम आस्था नहीं है। यह बात अनेक मर्तबा सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश अपने फैसलों में कह चुके हैं।
संघ के गुजराती मॉडल की धुरी है संघ का संगठन ,प्रशासनिक मशीनरी और अपराधी गिरोह तंत्र, ये तीनों मिलकर राज्य प्रशासन चला रहे हैं। इन तीनों से मिलकर गुजरात का मॉडल बनता है। जाहिरा तौर पर इतने सख्तशाली सांगठनिक ढांचे को आप चुनाव में परास्त नहीं कर सकते। ठीक यही मॉडल अन्य राज्यों में भी विकसित किया जा रहा है। भारत में पहले से अपराधियों का सबसे बड़ा नेटवर्क रहा है और उनकी अपनी राजनीतिक वफादारियां भी हैं अत: गुजरात के बाहर इस कार्य में धीमी गति से सफलता मिल रही है। किंतु प्रशासनिक संरचनाओं में काम करने वालों का आज भी सबसे बड़ा मजदूर संगठन संघ परिवार के हाथ में है।
'' पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता'' के नारे के तहत 'अन्य' को गूंगा बना दिया गया है। मजेदार बात यह है आप गुजराती अस्मिता के नारे का जाप करते जाइये और भ्रष्टाचारण करते जाइए ,संघ परिवार को कोई शिकायत नहीं है, और नयी चीजों के गुजरात में आने से संघ परिवार को परेशानी है, ज्यादा से ज्यादा उपभोग करने से संघ को कोई परेशानी नहीं है। यदि किसी चीज से परेशानी है तो ऐसे सवालों को पूछे जाने से जो गुजरात प्रशासन को नंगा करते हैं,संघ परिवार की राजनीति को नंगा करते हैं। अथवा मौजूदा साम्प्रदायिक माहौल का विरेचन करने वाले सवालों से संघ को परेशानी है,मोदी प्रशासन को परेशानी है।
:) :)
जवाब देंहटाएंआप और आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ...nice
जवाब देंहटाएंगोदियाल जी से सहमत होते हुए मेरी तरफ़ से भी तीन स्माईली लीजिये… :) :) :)
जवाब देंहटाएं(कहीं से जलने की तेज बदबू आ रही है… मैं तो चला होली मनाने…)
क्या बात है कि मार्क्स बाबा 'वर्ग संघर्ष' की बात कर गये थे और आप 'सामाजिक वैविध्य' की बात कर रहे हैं?
जवाब देंहटाएंआप और आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ...
जवाब देंहटाएंआप सभी को ईद-मिलादुन-नबी और होली की ढेरों शुभ-कामनाएं!!
जवाब देंहटाएंइस मौके पर होरी खेलूं कहकर बिस्मिल्लाह ज़रूर पढ़ें.
बाबा मार्क्स भले ही ''वर्ग-संघर्ष'' की बात कर गये थे, लेकिन उसके बाद एक हिटलर चाचा भी आए थे, जो जातीय सफाये की लाइन देकर गये थे...और बोदी भी यही कर रहै हैं।
जवाब देंहटाएंआप लोग तर्क तो करते नहीं, बस असलियत बोली तो आव देखा न ताव लगे बरसने। भइया, चतुर्वेदी जी का प्रोफाइल ही देख लिये होते, उसमें ज्योतिष की बात भी लिखी है...बूझे की नहीं