साम्प्रदायिक ताकतें आतंक की प्रतीक बन गयी हैं। उनकी कोई विचारधारा नहीं है, उनके पास हमले का कोई कारण नहीं है, उनके पास हिंसा के पक्ष में कोई तर्क नहीं है और उनके पास किसी भी किस्म की राजनीति भी नहीं है। यदि कोई चीज है तो आक्रामक साम्प्रदायिकता है। इस आक्रामक साम्प्रदायिकता की प्रयोगस्थली है आजगुजरात है कल कोई और राज्य भी हो सकता है।
साम्प्रदायिकता वायरस की तरह है,यह हर जगह फैल चुकी है। इससे सरकार, सत्ता और संस्थान सभी डरने लगे हैं। इसकी कोई सीमा अथवा प्रान्त नहीं है। इसकी कोई एक परिभाषा नहीं है। साम्प्रदायिकता की अपनी संस्कृति होती है जिसे आप उसके अहर्निश घृणा अभियान और हिंसाचार में देख सकते हैं। घृणा का अपना तंत्र होता है और अपना शत्रु भी होता है। घृणा से घृणा पैदा होती है। इसी अर्थ में घृणा अपना भक्षक स्वयं निर्मित करती है।
घृणा हमेशा सत्तावर्ग के संरक्षण में विकास करती है। साम्प्रदायिक घृणा का भी सत्ता के संरक्षण में विकास हुआ है। सचेत रूप से संघ को सत्ता का संरक्षण प्राप्त रहा है। साम्प्रदायिकता शॉकवेब की तरह है और यह अपने करेंट के झटकों से सभ्यता, धर्म आदि को पीड़ित करती है।
साम्प्रदायिकता इजारेदार पूंजीवाद के प्रत्यक्ष अन्तर्विरोधों को व्यक्त करती है किंतु प्रत्यक्ष अन्तर्विरोधों से ज्यादा महत्वपूर्ण इसके विचारधारात्मक अप्रत्यक्ष अन्तर्विरोध होते हैं जिनकी तरफ हम कभी ध्यान नहीं देते। साम्प्रदायिकता प्रत्यक्ष से ज्यादा अप्रत्यक्ष रूप में खतरनाक होती है। वह जितनी बाहर खतरनाक है उससे ज्यादा आंतरिक तौर पर खतरनाक है। उसका आंतरिक स्रोत है अंधविश्वास,पुनर्जन्म की धारणा और अविवेकवादी परंपराएं।
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