मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

बौध्दिक संपदा के सवाल


    उत्तर -आधुनिक युग की सबसे बड़ी समस्या बौध्दिक संपदा के अधिकारों से जुड़ी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज समूची दुनिया पर एकच्छत्र बौध्दिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए गैट समझौते के तहत दबाब ड़ाल रही हैं। बौध्दिक संपदा के विभिन्न रुपों को अपने स्वामित्व में ला रही हैं। अत: बौध्दिक संपदा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरुरत है। यहां रचनाकारों से जुड़े सवालों पर संक्षेप में विचार किया जाएगा।
    उत्तर-आधुनिक के लिए साहित्य 'कंडोम' की तरह है ,यानी इस्तेमाल करो और फेंको का सिध्दान्त वे अधिकारों के क्षेत्र में भी लागू करते हैं। रचना लिखो और भूल जाओ। वे अधिकारों की बजाय उपभोग पर जोर देते हैं। लेखकीय अधिकारों को बाजार की शक्तियों के हितों के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करते हैं। कायदे से लेखकीय अधिकारों को लेखक और राष्ट्र के हितों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बाजार के संदर्भ में लेखक के अधिकार सीमित होते हैं।जबकि राष्ट्र और नागरिक के संदर्भ में व्यापक सामाजिक -सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्त्ति करते हैं। गैट समझौते की यह सीमा है कि उसमें बाजार के सार्वभौम लक्ष्यों की पूर्त्ति को प्रधानता दी गयी है।गैट वार्ताओं में व्यापार से संबंधित मुद्दे प्रमुख थे।लेखक और सर्जक के हितों के लिहाज से सोचा ही नहीं गया। गैट समझौता लेखकीय अधिकारों की दृष्टि से बर्न कन्वेंशन और  संशोधित ब्रूसेल्स घोषणा के प्रावधानों का उल्लंघन करता है।
    गैट समझौते में व्यक्तिगत हितों की बजाय सांस्थानिक हितों को महत्व दिया गया। लेखक की बजाय प्रकाशक के हितों को तरजीह दी गयी। लेखक के हितों को प्रकाशक के हितों के मातहत कर दिया। 

   ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लेखक के अधिकारों पर विहंगम दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि 18वीं और 19वीं शताब्दी में 'बौध्दिक संपदा संरक्षण' कानून बनाने का सिलसिला शुरु हुआ।यह वह दौर था जब साहित्य चोरी जोरों से हो रही थी।खासकर जर्मनी और अमेरिका में साहित्यिक कृतियों की अवैध रुप में बिक्री और छपाई व्यापक पैमाने पर हो रही थी। उन दिनों कॉपीराइट कानून में इसके खिलाफ कोई प्रावधान नहीं था।खासकर विदेशी लेखकों की कृतियों और चोरी और मुद्रण के खिलाफ कोई कानून नहीं था। परिणामस्वरुप अंग्रजी के आधे से ज्यादा उपन्यासों का चोरी छिपे प्रकाशन हो जाता था। इस तरह की परिस्थितियों में सन् 1840 से 1866 के बीच विभिन्न देशों में 88 द्विपक्षीय समझौते हुए। पूरी दुनिया में तेजी से पूंजीवादी व्यवस्था फैल रही थी। जिसके कारण लेखकों के सामने नई चुनौतियां पैदा हुईं।
    इसी संदर्भ में 1858 में ब्रूसेल्स में 'अंतर्राष्ट्रीय कॉपीराइट' कॉन्फ्रेंस हुई और राष्ट्र को आधार बनाकर साहित्यिक-कलात्मक कृतियों के अधिकारों के बारे में सोचा गया। सन् 1878 में अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कांग्रेस का आयोजन किया गया। जिसमें साहित्य को 'बौध्दिक संपदा' मानने पर जोर दिया गया। इसी संस्था के प्रयासों से 'इंटरनेशनल लिटरेरी एंड आर्टिस्टिक एसोसिएशन का गठन हुआ।यह संगठन आज भी मौजूद है। इस संस्था का लक्ष्य था साहित्य को 'बौध्दिक संपदा' के रुप में संरक्षित रखना। इसकी सालाना कॉन्फ्रसों [लंदन 1879 ,वियना 1881, रोम 1882]में लेखकों के अधिकारों से जुड़े सवाल केन्द्र में थे।
    सन् 1882 में रोम कॉफ्रेंस में 'साहित्य को बौध्दिक संपदा ' मानते हुए प्रस्ताव पास किया गया। बाद में'इंटरनेशनल पोस्टल यूनियन' की बैठक में ऐसा ही प्रस्ताव आया।सन् 1886 में स्विट्जरलैंड के बर्न शहर में सम्मेलन हुआ जिसमें लेखकों की रचनाओं और कलाकृतियों के संरक्षण और बहुपक्षीय समझौते से संबंधित प्रस्ताव आया।साथ ही'साहित्य संपदा संघ' बनाने का प्रस्ताव आया। इस सम्मेलन से पहले 1884 ,1885 ,और1886 में तीन राजनयिक सम्मेलन इसी प्रश्न पर हुए। बर्न समझौते के तहत यूनियन में शामिल राष्ट्र के नागरिक या कानूनी प्रतिनिधि को ,चाहे उसका कार्य प्रकाशित हो या अप्रकाशित हो ,कानूनी संरक्षण दिया गया।
   
    उन्नीसवीं सदी में ही औद्योगिक संपदा के संरक्षण के लिए पेरिस में 1883 में सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन की घोषणाओं की तर्ज पर बर्न सम्मेलन हुआ।पेरिस कन्वेंशन की तर्ज पर ही 'विश्व बौध्दिक संपदा संगठन' के जरिए बहुपक्षीय समझौतों को संपन्न करने पर जोर दिया गया। बाद में इससे यूनेस्को के जरिए 'सार्वभौम कॉपीराइट कानून' बनाने में मदद मिली।
           नई सूचना तकनीकी के आने के बाद खासकर फोनोग्राम ,फिल्म ,रेडियो, टेलीविजन और उपग्रह प्रसारणों के कारण पुराने कानूनों में संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई।इस दिशा में 1961 में रोम और 1971 में जेनेवा सम्मेलनों में विचार-विमर्श हुआ। नई तकनीकी के आने के बाद कॉपीराइट के दायरे में लेखक के अलावा  माध्यम,वितरक,उपग्रह चैनलों और केबल के जरिए चोरी छिपे प्रसारण और पुनरुत्पादक भी शामिल हो गया।सन् 1993 में यूनेस्को और 'विश्व बौध्दिक संपदा संगठन' द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने उपग्रह संप्रेषण को 'ब्रॉडकास्टिंग' में शामिल किया। यह भी तय पाया गया कि ब्रॉडकास्टिंग करने वाले देश और संदेश ग्रहण करने वाले देशों को कॉपीराइट में शामिल किया जाय।साथ ही 'सीधा प्रसारण' को ब्रॉडकास्टिंग माना गया और बर्न कन्वेंशन में शामिल किया गया।जबकि केबल प्रसारणों को 'पब्लिक कम्युनिकेशन' 1980 में माना गया। इसके पहले 1973 और 1982 के 'विश्व दूरसंचार' कन्वेंशनों ने 'ब्राडकास्टिंग' और 'पब्लिक कम्युनिकेशन' के बीच के अंतर को मिटा दिया।
   कम्प्यूटर के आने के बाद कापीराइट के नए आयाम खुले।कम्प्यूटर प्रोग्राम के कॉपीराइट के मसले पर 1978 में विचार-विमर्श शुरु हुआ।इस विचार -विमर्श से निष्कर्ष निकला कि कम्प्यूटर प्रोग्राम के लिए कॉपीराइट कानून ही पर्याप्त है। किन्तु 'इलैक्ट्रोनिक पब्लिशिंग' के आने के बाद नई समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। कापीराइट कानून छपी पुस्तक पर लागू होता है।यदि कोई पुस्तक 'फ्लोपी' में हो तब यह कानून लागू नहीं हो सकता। इसी तरह इलैक्ट्रोनिकी संचित सांख्यिकी से प्राप्त सूचनाओं को जब इंटरनेट से प्राप्त करते हैं तब आंकड़ा निर्माता के अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए ?

   आज आंकड़ों पर केन्द्रित नैटवर्कों का जाल तेजी से फैलता जा रहा है। सन् 1980 में 400 नैटवर्क थे जो 1986 में 3000और 1996 में यह संख्या बढकर 10000 को पार कर गई। आज अमरीका का बौध्दिक संपदा का अर्थशास्त्र 327 विलियन डॉलर से ज्यादा बैठता है। इसमें 5.5 मिलियन लोग काम कर रहे हैं।ये आंकड़े 1991 के हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बौध्दिक संपदा के सवाल पर अमरीका और अन्य विकसित देशों के बड़े दांव लगे हुए हैं।
            

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