लोक संस्कृति और लोक कलाओं का उत्तर - आधुनिक अवस्था में स्वरुप बुनियादी तौर पर बदल जाता है। इन कला रुपों में दैनन्दिन जीवन की गहरी छाप होती है। उत्तर -आधुनिक स्थिति इनका औद्योगिकीकरण कर देती है। उन्हें संस्कृति उद्योग का माल बना देती है। उनका मानकीकरण करती है।उनमें व्याप्त स्थानीयता का एथनिक संस्कृति के नाम पर दोहन करती है।इनकी प्रतिरोध क्षमता खत्म कर देती है। अब ये कला रुप सजावट की वस्तु और बाजारु कला रुप मात्र होकर रह जाते हैं।
संस्कृति उद्योग की कलाकारों और कलाओं की परंपरा को बचाने में कोई रुचि नहीं होती । उसकी बुनियादी तौर पर इनसे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने में रुचि होती है।संस्कृति उद्योग के द्वारा इनका विस्तार होता है। साथ ही कलाओं के प्रति अज्ञान और उनसे दूरी भी बढ़ती है।
हम संस्कृति को जितना उद्योग के हवाले करते जाते हैं उतना ही सांस्कृतिक अलगाव के शिकार बनते जाते हैं।आज सांस्कृतिक सीढ़ी पर जो सबसे उपर खड़ा है वह जनता की संस्कृति से सबसे ज्यादा अलग-थलग है।
असल में,कलाएं जब संस्कृति उद्योग का हिस्सा बन जाती हैं, तब उनका मासकल्चर में रुपान्तरण हो जाता है। अब हम संस्कृति या लोक संस्कृति के अंग नहीं रह जाते अपितु मासकल्चर का अंग बन जाते हैं।मासकल्चर मूर्ख और पेटू की संस्कृति है।अहं की संस्कृति है। सामाजिक ज़ुर्म की संस्कृति है।गौण वस्तुओं की संस्कृति है। यह नकल की संस्कृति है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में '' आज हम बाजार की भीड़ और शोरगुल में सम्मिलित हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं....बड़े-बड़े अक्षरों के और ऊँचे स्वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में संकोच नहीं होता।मजे की बात यह है कि जो कुछ हम कर रहे हैं सब नकल है। इसमें सत्य की मात्रा न के बराबर है।इसमें शान्ति नहीं ,संयम नहीं ,गाम्भीर्य नहीं ,शालीनता नहीं । इस नकल युग के आने के पहले हममें एक स्वाभाविक मर्यादा थी।इस मर्यादा से निर्धनता में भी हम संपन्न थे।उस समय मोटा खाने से या मोटा पहनने से हमारा गौरव घटता नहीं था।''
'' आज हमारी भद्रता सस्ते कपड़ों से अपमानित होती है ,घर में विलायती ढ़ंग की सजावट न हो तो उस पर आंच आती है।बैंक में हमारे नाम परजो अंक लिखे हैं वे कम हों तो हमारी भद्रता कलंकित होती है।हम यह भूल बैठे हैं कि ऐसी प्रतिष्ठा को सिर पर ढ़ोकर उसका आदर करना वास्तव में अत्यन्त लज्जा का विषय है। जिन बेकार उत्तेजनाओं और उन्माद को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है।''
कहने का तात्पर्य यह कि मासकल्चर ने भद्रता और सामाजिक हैसियत को वस्तुओं से जोड़ दिया है। भद्रता को बाजार के नियमों से जोड़ा। फलत: भद्रता सतही और प्रदर्शन की चीज हो गयी।उसका मानवीय आत्मीयता से संबंध टूट गया।
लोक संस्कृति सामूहिक बोध पैदा करती थी किन्तु मासकल्चर ने प्रभेदों को पैदा किया।ये प्रभेद आंतरिक और बाह्य दोनों हैं। इकसार संस्कृति के कारण हमारी प्रभेदों पर नजर नहीं जाती ,इसके परिणामस्वरुप मासकल्चर से उपजे तनावों,अन्तर्विरोधों , सामाजिक वैषम्य और दरिद्रता को हम देख नहीं पाते। मासकल्चर के द्वारा पैदा की गयी समस्याओं के समाधान हम अमरीका की नकल पर कर रहे हैं इससे समस्याएं और भी उलझेंगी।
प्रश्न उठता है कि प्रभेद कहां पैदा होते हैं ? वहीं जहाँ अविश्वास और भय का पदार्पण होता है, जहां एक दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है, वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता।
मासकल्चर की विशेषता है कि वह संबंधहीन स्वाधीनता की वकालत करती है , उपभोग की स्वाधीनता की हिमायत करती है। यह शून्यतामूलक स्वाधीनता है जो निषेधात्मक है। जो मनुष्य को पीड़ित करती है।
जो लोग प्रभेद पैदा करते हैं ,जो संस्कृति प्रभेद पैदा करती है , प्रभेदों का पोषण करती है , उसे स्वाधीनता का पक्षधर कहना निरर्थक है। मासकल्चर जिस स्वाधीनता और मुक्ति की बात करती है वह संबंधहीनता पैदा करती है ,उसके माध्यम से सामाजिक परिपूर्णता प्राप्त करना असंभव है।
प्रभेदों को खत्म करने में वस्तुएं कभी भी सहायक नहीं हुई हैं। बल्कि वस्तुओं ने सामाजिक ईर्ष्या -डाह ,प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वन्द्विता को तीव्र किया है।वे निष्प्राण और तर्कशून्य होती हैं।इसी तरह तकनीकी को प्रभेदों को खत्म करने का माध्यम नहीं बनाया जा सकता। तकनीकी में वाणी नहीं होती। वह विश्व के स्वर में अपना स्वर नहीं मिला सकती। उसके पास हृदय की पुकार का उत्तर नहीं है। आज बड़े-बड़े माध्यम प्रचार कर रहे हैं कि यदि अभावों को दूर करना है तो तरह - तरह के उपकरण जुटाओ। किन्तु उपकरण हमारे सवालों को हल करने में असमर्थ रहे हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था कि '' मानव जीवन में जहॉ अभाव है वहीं उपकरण जमा हो जाते हैं , जहॉ पूर्णता है वहॉ मनुष्य का अमृत रुप व्यक्त होता है।इस अभाव और उपकरण के पक्ष मेंर् ईष्या है ,द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार हैं,वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरे पर आघात करता है।''
टैगोर की राय थी कि मासकल्चर 'शोर' या 'कोलाहल' की संस्कृति है।और 'कोलाहल के नशे में संयम असम्भव है।' इसीलिए इसे असंयम की संस्कृति कहना समीचीन होगा है। यह प्रौद्योगिकी पर बल देने वाली संस्कृति है।इसमें फलभोग की तीव्र इच्छा-शक्ति है। इसका ज्यों-ज्यों लोक बढ़ता जाता है ,मनुष्य दूसरों को अपमानित करने में नहीं हिचकता।यह सभ्यता चाहे जितना विस्तार करे मनुष्य का आत्मिक सत्य इस सबसे दुर्बल हो जाता है।
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