शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मंहगा है टीवी गनोरंजन

मीडिया का वर्तमान परिप्रेक्ष्य डिजिटल केन्द्रित है। डिजिटल में दाखिल होने के बाद मीडिया की भूमिका बुनियादी तौर पर बदल गई है। प्रत्येक माध्यम का चरित्र बदला है। बदले रूपों को हमें प्रत्येक मीडिया के संदर्भ में स्वतंत्र रूप से विश्लेषित करने की जरूरत है।
टेलीविजन के बारे में हमारी कोई भी राय हो, टेलीविजन को हम कुछ भी नाम दें। टेलीविजन को देखें या न देखें, इसके बावजूद यह सच है कि टीवी ने हमारी आंखों को घेर लिया है। हम घंटों टीवी के सामने बैठे रहते हैं।

 टीवी समाचार और धारावाहिकों का लक्ष्य है दर्शक की चेतना के सबसे निचले स्तर को सम्बोधित करना। अभिरूचि के निम्नतम स्तर को सम्बोधित करना,निम्नतम बौध्दिक स्तर को सम्बोधित करना। टीवी का मुख्य लक्ष्य है दर्शक को बांधे रखना।  

टीवी के बारे में यह जनप्रिय है कि वह '' विवेकहीन मनोरंजन'' है। हमारे बीच ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो यह नहीं मानते कि टीवी ने कुछ बिगाड़ा है। हम कभी भी यह चर्चा नहीं करते कि टीवी में अप्रासंगिक क्या आ रहा है ? अतार्किक क्या आ रहा है ? हम तो यही मानकर चल रहे हैं कि हमारा मनोरंजन हो रहा है। इसका अर्थ भी है कि हमने अपने तार्किक विवेक को ताक पर रख दिया है। जो लोग यह मनोरंजन परोस रहे हैं उन्हें भी यह सोचना चाहिए कि क्या उन्हें रचनात्मक अभिव्यक्ति का अवसर मिल रहा है। हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या 'पेशेवर जगत' के बाहर की दुनिया को गंभीरता से ले रहे हैं या नहीं। क्या हम अपने पेशेवर जगत के माल के उत्पादन, विनिमय और सेवाओं को गंभीरता से ले रहे हैं या नहीं। यदि हम अपने आनंद-मनोरंजन के समय को अनालोचनात्मक ढ़ंग से खर्च करते हैं तो बेशुमार संपदा का उत्पादन कर सकते हैं।

     ज्यादा टेलीविजन देखने का गंभीर नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। इसकी कभी  हमने चर्चा तक नहीं की है। हमारी टीवी पर बढ़ती हुई निर्भरता ने हमें मनोरंजनरहित अवस्था में पहुँचा दिया है। हम इकसार मासमीडिया के आदी हो गए हैं। हमें टीवी कम से कम राजनीतिक,सामाजिक ,आर्थिक और सांस्कृतिक खबरें देता है। आज टीवी सूचना सम्पन्ना नहीं बनाता बल्कि सूचना विपन्ना बनाता है। टीवी ने हमें दर्शकमात्र बनाकर रख दिया है, दर्शक और नजारे ही हमारी जिन्दगी का मंत्र बन गए हैं। दर्शकीय भाव से जिन्दगी को संतोष कम मिलता है, खोखलापन बढ़ता है।  

     दर्शक बन जाने और नजारे के आदी हो जाने के बाद अब हमें सिर्फ स्टार और चर्चित व्यक्तित्वों के ही दर्शन होते हैं। फलत: मीडिया व्यक्तित्वों के ग्लैमराईजेशन का शिकार बन जाता है। हमें सूचना संपन्ना बनाने के नाम पर इन चर्चित व्यक्तित्वों की अर्थहीन सूचनाएं बार-बार प्रसारित की जाती हैं, चंद चर्चित ज्ञानी लोग आए दिन टीवी पर अपना अज्ञान बघाारते रहते हैं। ये चंद लोग इस भ्रम में रहते हैं कि वे सारी दुनिया पर बोल सकते हैं, सारी दुनिया को जानते हैं, सभी विषयों के बारे में जानते हैं। 

     आप टीवी देखने पर जितना समय खर्च करते हैं ,धीरे धीरे आप भूल जाते हैं कि आखिरकार आप भी वे तमाम काम कर सकते हैं, उनमें आनंद ले सकते हैं, जिन्हें टीवी परोस रहा है। टीवी के कार्यक्रमों को देखकर उत्तोजित होने से अच्छा है स्वयं उन कार्यों को करना जो टीवी दिखाता है, देखकर रोमांचित होने से अच्छा स्वयं करके रोमांचित होना।

      मसलन् पर्यटन कार्यक्रम देखने से ज्यादा रोमांचित है पर्यटन करना। एमटीवी देखकर रोमांचित होने से बेहतर है स्वयं संगीत का अभ्यास करना। पोर्नोग्राफी देखकर रोमांचित होने से बेहतर है स्वयं और समाज को प्यार करना। एडवेंचर फिल्म देखने से बेहतर स्वयं एडवेंचर एक्शन करना। यदि आप टीवी में ज्यादा समय खर्च करते हैं तो आपको जीवन में ज्यादा समय नहीं मिलता। आप जितना टीवी देखते हैं उतने ही खोखले होते जाते हैं।
   
    टीवी आपके जीवन के वास्तविक रोमांच को खत्म कर देता है। यही वह बिंदु है जब आपके जीवन में मीडिया मुगल दाखिल होते हैं और आपको जीवन का विकल्प प्रदान करते हैं। विकल्प के तौर पर वे दूसरे दर्जे की सेक्स और हिसा की सामग्री पेश करते हैं। यह सामग्री उत्तेजित करती है, प्रभावित भी करती है। इसके बदले में आपको भुगतान करना पड़ता है। 

टीवी का रोमांच और मनोरंजन मुफ्त में नहीं मिलता, उसका पैसा देना होता है। यह पैसा कई स्तरों पर देते हैं, विज्ञापन में पैसा देते हैं, केबल चार्ज के रूप में देते हैं, ब्रॉडबैण्ड के रूप में देते हैं। टीवी सेट खरीदते समय पैसा देते हैं।  सिनेमा टिकट खरीदते समय पैसा देते हैं। कम्प्यूटर खरीदते समय पैसा देते हैं। 

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