गुजरात में विगत 15 सालों में जो मतदाता बने हैं उनमें से अधिकांश बेरोजगारऔर अर्द्ध रोजगार करते हैं। बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज स्वयं में बड़ी समस्या है। इस वर्ग में ''खाओ कमाओ, मौज करो'' की उपभोक्तावादी विचारधारा प्रबल है और इस समुदाय को सकारात्मक और जिम्मेदार राजनीति से नफरत है। यही वर्ग आज सबसे ज्यादा हिन्दुत्व की विचारधारा के पक्ष में है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ है। अल्पसंख्यकों के प्रति जिस तरह का अभूतपूर्व हिंसाचार सन् 2002 में हुआ था उसमें युवावर्ग की केन्द्रीय भूमिका थी और यही युवावर्ग आज उन्मादी समूह की तरह गुजरात में सक्रिय है। इसमें शहरी मध्यवर्ग से लेकर दलित- आदिवासी का एक हिस्सा भी शामिल था।
गुजरात के चुनाव में हिन्दुत्व के सामाजिक एवं धार्मिक श्रेष्ठत्व के सिध्दान्त को केन्द्र में रखा गया। मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए जाति और धर्म के समीकरणों का व्यापकरूप में इस्तेमाल किया गया। दंगों के लिए अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा को बुनियादी आधार बनाया । चुनावों में संघ परिवार का एक ही संदेश था भाजपा को मुसनमानों के वोट नहीं चाहिए। अल्पसंख्यकों की गुजरात में कोई जगह नहीं है। वे गैर-कानूनी हैं। वे राज्य में रहना चाहते हैं तो दोयम-दर्जे के नागरिक होकर रहें अथवा शरणार्थी का जीवन जीने के लिए तैयार रहें।
गुजरात में संघ का माहौल अचानक नहीं बना है। इसमें संघ परिवार को वर्षों वैचारिक अभियान चलाना पड़ा है। इसकी विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों ने जमीन तैयार की है। भाजपा के सत्ता में आने के पहले अनेक वर्षों से नए सम्प्रदायों और आश्रमों की गुजरात में बाढ़ आ गयी। सारा गुजरात हिन्दू धार्मिकता में डुबो दिया गया। उनके अनुयायियों का बहुत बड़ा हिस्सा संघ की राजनीति का सामाजिक आधार है। ये ऐसे हिन्दू सम्प्रदाय हैं जिनका पुराने किस्म के हिन्दूधर्म से कोई संबंध नहीं है। बल्कि ये नए युग के भूमंडलीकरण का वैचारिक हिस्सा हैं। ये सम्प्रदाय अपने हजारों-लाखों शिष्यों की टोलियों में उभरकर आए हैं,ये ग्लोबल संप्रेषक हैं। इन धार्मिक सम्प्रदायों की गतिविधियों को सर्वधर्मसद्भाव के नाम पर कांग्रेस ने भी खूब बढ़ावा दिया।
उल्लेखनीय है कि गुजरात में भाजपा के शासन स्थापित होने के पहले भी दंगे होते थे। साम्प्रदायिक गोलबंदियां थीं। किंतु प्रशासन कमोबेश तटस्थ था। किंतु भाजपा के शासन में आने के बाद प्रशासन का भगवाकरण किया गया। इससे समूचे गुजरात में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को टिकाऊ बनाने में मदद मिली।
भाजपा के गुजरात में शासन में आने के पहले अल्पसंख्यकों को नागरिक माना जाता था,वे नागरिक अधिकारों का इस्तेमाल कर रहे थे। किंतु भाजपा के सत्ता में आने के बाद से स्थिति में परिवर्तन आना शुरू हुआ और सन् 2002 में यह स्थिति बनी अल्पसंख्यकों पर व्यापक हमले हुए और उनकी समूची अर्थव्यवस्था और बस्तियों को नष्ट कर दिया गया। अल्पसंख्यकों को शरणार्थी बना दिया गया। शत्रु बना दिया गया। घृणा का पात्र बना दिया गया। स्थायीतौर पर हिन्दू-मुसलमान के भेद को आमजीवन का हिस्सा बना दिया गया। इस प्रक्रिया में सबसे खराब भूमिका राज्य प्रशासन की रही। उसने अल्पसंख्यकों के अधिकार और जानोमाल की हिफाजत करने से इंकार कर दिया।
मोदी ने अपनी मीडिया रणनीति के जरिए यह सवाल उठाया आप मोदी के पक्ष में हैं या विपक्ष में । आमतौर पर इस तरह का मुद्दा भारतीय राजनीति में सिर्फ एक बार ही हुआ है और वह है 1971 के लोकसभा चुनाव के समय जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसी आधार पर अपनी इमेज बनायी थी और दो-तिहाई बहुमत से चुनाव जीता था।
व्यक्तित्व को दल से महान् बनाने की कला मोदी ने इंदिरा से सीखी है और इस कला के आधार पर कांग्रेस को पीट दिया। कांग्रेस का प्रचार अभियान काफी देर से शुरू हुआ जबकि मोदी ने अपना चुनाव प्रचार अभियान छह महिने पहले से ही शुरू कर दिया था। मोदी ने अपने पांच साल के शासनकाल में प्रशासन और राजनीति को अपने पर ही केन्द्रित रखा और पार्टी का कद कम किया। इससे लोगों में पहलीबार संघ के नायकानुवर्तित्व की धारणा साकार हुई।
संघ की नीति के अनुरूप भाजपा में जनतंत्र नहीं होता अथवा मंत्रालयों को किसी भी किस्म की स्वायत्तता नहीं होती। मोदी ने संघ की धारणा के अनुरूप इमेज निर्मित की और उसके माफिक परिणाम भी निकले। अन्य भाजपा शासित राज्यों में मुख्यमंत्री अभी तक ऐसा नहीं कर पाए हैं। कांग्रेस ने मोदी के शासनकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों का पुलिंदा जारी किया था किंतु इसमें से किसी को भी आम जनता में प्रचारित नहीं कर पाए।
इसके विपरीत मोदी ने आरंभ से ऐसी इमेज बनाई कि वह भ्रष्टनेता नहीं है। मोदी का कोई परिवार नहीं है और वह अकेला है अत: उसे आमलोगों को इस तथ्य को गले उतारने में सफलता मिल गई कि वह भ्रष्ट नहीं है। मोदी की साम्प्रदायिक इमेज के बारे में गुजरात के बाहर बातें की जा सकती हैं किंतु गुजरात में उसकी साम्प्रदायिक इमेज पर कांग्रेस ने एक भी शब्द नहीं बोला।
मोदी का गुजरात के विकास का नारा एकदम खोखला नारा था, किंतु जनता ने इस पर ध्यान नहीं दिया। वह नेता पर मुग्ध थी,उसके कद से अभिभूत थी। सच यह है कि भारत के जो छह राज्य सबसे ज्यादा कर्ज में डूबे हुए हैं। उनमें गुजरात का नाम भी आता है। इसके अलावा महाराष्ट्र,पश्चिम बंगाल,केरल,पंजाब और राजस्थान हैं। केन्द्रीय वित्तमंत्री के अनुसार ( हिन्दू बिजनेस लाइन,14 दिसम्बर 2007) गुजरात के पास सन् 2001-02 में जो कर्जा था वह सन् 2006-07 में 45,301 करोड़ से बढ़कर 94,009 करोड़ हो गया। इस अवधि में गुजरात में कर वसूली में सुधार नहीं आया बल्कि सारा राज्य रिजर्वबैंक के कर्ज पर चलता रहा हैं। इसके बावजूद जिस चीज ने मोदी की इमेज में इजाफा किया वह था उसके द्वारा पूंजी निवेश में बढ़त हासिल करना 51 सेज प्रकल्पों को बगैर किसी बाधा के लागू करना। लड़कियों की शिक्षा के काम को प्राथमिकता देना। गांवों में बिजली का पहुँचना और बिजली चोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना। बिजली चोरों में ज्यादातर पटेल थे उनके खिलाफ बाकायदा मुकदमे ठोके गए। बिजली चोरी पर एक हद तक अंकुश लगा और राज्य में बिजली उत्पादन और वितरण को पेशेवर शक्ल प्रदान की और इसके कारण गांव के किसानों के गुस्से का सामना करना पड़ा।
मोदी ने जब विकास को मुद्दा बनाया और प्रचार अभियान के दौरान अपनी उपलब्धियों को गिनाना शुरू किया। ऐसे आंकडों का इस्तेमाल किया जो उसके पक्ष को मजबूत बनाते थे और उन आंकड़ों को छोड़ दिया जो उसके पक्ष को कमजोर बनाते थे। अपने आंकड़े पेश करते समय बार-बार गुजरात के शांत वातावरण का जिक्र जरूर किया। साम्प्रदायिक सद्भाव के उपकरण के तौर पर बिजली,पानी आदि का इस्तेमाल किया। मसलन् बिजली सभी गांवों में पहुँचायी गयी ,सबके घरों में गयी है ,इस अर्थ में हिन्दू-मुस्लिम भेद नहीं माना । इससे प्रौपेगैण्डा को हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव के आरोपों के दायरे बाहर ले गया। बिजली और पानी के बहाने भेदभावरहित राजनीति की बात करते हुए मोदी ने असल में भेदभावरहित काल्पनिक इमेज की रचना की और मतदाताओं को आकर्षित किया। मतदाताओं की इच्छाओं के साथ नत्थी किया।
मोदी और कांग्रेस में साझा समझ थी कि दंगे के लिए संघ का नाम न लिया जाए। विकास पर बातें की जाएं। विकास का श्रेय यदि मोदी को मिलता है तो केन्द्र में बैठे कांग्रेस नेताओं को भी श्रेय दिया जाए। दोनों ने ही अपने-अपने तरीके से नए सामाजिक ग्रुपों में पैठ बनाने की कोशिश की। कनवर्जंस की राजनीति का ही असर है कि गुजरात में संघ परिवार का राज्य की स्वायत्त एवं स्वतंत्र प्रशासनिक संरचनाओं के साथ अंतर खत्म हो गया है। सभी संरचनाएं संघ में समाहित हो गयी हैं।यही फिनोमिना पश्चिम बंगाल में भी है,समस्त संरचनाएं माकपा में समाहित हो गयी हैं।
गुजरात में प्रशासनिक और राजनीतिक संरचनाओं कां संघ परिवार के साथ अंतर मिट गया है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कह सकते। भाजपा खुलकर संघ के लिए काम करने को तैयार है तो दूसरी ओर मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर कांग्रेस ने 2002 के दंगे का अपने घोषणापत्र में जिक्र तक नहीं किया। संघ के खिलाफ मनमोहनसिह,सोनिया गांधी ने अपने भाषणों में एक भी वाक्य नहीं बोला। बल्कि अखबार की रिपोर्ट बताती हैं कि कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों के चयन में विश्वहिन्दू परिषद के प्रवीण तोगड़िया और अनेक बागी नेताओं के सुझावों का पालन किया।
पहले राजनीतिक समझ वर्गीय और सामाजिक यथार्थ पर आधारित थी। आजकल वर्गीय-सामाजिक यथार्थ की समझ जगह मुद्दों की समझ प्रधान है। वोटबैंक की राजनीति प्रधान है। समझ का स्रोत वोटबैंक है न कि यथार्थ। समस्याओं को स्वायत्त और सीमित परिप्रेक्ष्य में पेश किया जा रहा है।
पहले यथार्थ में जीते थे अब अतिशयोक्ति में जीते हैं। हाइपररीयल का युग अतिशयोक्ति का युग है।'हाइपर' का अर्थ है 'इससे ज्यादा'। यह ऐसा प्रयोग है जो हमें 'भौतिकवाद-आदर्शवाद', 'व्यक्ति-समग्र', 'धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता', 'हम और तुम' की बिडम्बनाओं के परे ले जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य है सामाजिक और कायिक संदर्भ के फ्रेम को एकीकृत करना। इसे एकीकरण की भाषा के जरिए अर्जित किया जाता है। फलत: एकीकृत यथार्थ वैधता अर्जित कर लेता है।
सच यह है एकीकृत यथार्थ जैसी कोई चीज नहीं होती यथार्थ अपने तरीके से भिन्न दिशा में सक्रिय रहता है। यथार्थ के भिन्न धरातल होते हैं। मसलन्! भौतिकवादियों और भाववादियों , धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता, हम और तुम का धरातल और यथार्थ एक नहीं हो सकता। हाइपररीयल इन सब पर पर्दा डालता है, अन्तर्विरोधों को छिपाता है। यही मोदी का सर्जक है।
सर, आप को नहीं लगता कि आप बहुत ज्यादा लिखते हैं? इतना ज्यादा लिखने से पाठकों के लिए बड़ी मुश्किल होती है. आप एक दिन में तीन पोस्ट ठेलते हैं. सुबह एक पोस्ट लिखा और दोपहर तक दूसरी. पाठकों पर कुछ रहम कीजिये. वैसे भी आप विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. इतना लिखेंगे तो पढ़ाएंगे कब? या फिर हिंदी विभाग के हेड बनाना चाहते हैं और इतना इसलिए लिख रहे हैं ताकि यह सब वामपंथी लाबी को दिखा सकें और हिंदी विभाग के हेड हो जाएँ.
जवाब देंहटाएंब्लॉग है यह. एक पोस्ट लिखने के बाद पाठकों को पढ़ने दीजिये. उनकी प्रतिक्रियाएं पढ़िए. हो सके तो उनकी टिप्पणियों का जवाब दीजिये. अगर नहीं देना चाहते तो भी नई पोस्ट दूसरे दिन लिखिए. कहीं ऐसा तो नहीं कि आप अपने पाठकों को ओछा और नासमझ समझते हैं इसलिए उनकी टिप्पणियों का जवाब नहीं देते? अगर ऐसा है तो आप कहीं न कहीं ब्लॉग का जो बेसिक आईडिया है, उसका अपमान कर रहे हैं.
आपका लेखन देखकर एक विज्ञापन याद आ गया...कलम के विज्ञापन में पंच-लाइन थी;
जवाब देंहटाएं"लिखते-लिखते लव हो जाए."
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंएक और अच्छे लेख के लिए आपको बधाई .....
जवाब देंहटाएंबाप रे! हिन्दी का प्रोफेसर पाठक को फाठक बना देता है तो भगवान (अगर है, तो) ही मालिक! :)
जवाब देंहटाएंशिवकुमार जी, आपकी सभी चिन्तीएं आधारहीन हैं। पाठक समझदार होता है। मेरे पास वह सब है जिसे आपने मेरे लेखन के प्रेरक तत्वों के रुप में लिखा है सिवाय वाम की कृपा के। मैं बहुत अच्छा प्रोफेसर हूँ,नियमित पढ़ाता हूँ। लेखक मैं नेट गति का हूँ। मैं पाठकों को अपमानित करने के लिए नहीं उनसे इंटरनेट की गति के साथ संवाद करने के लिए लिखता हूँ। मैं अपने लिखे की आलोचना का जबाव नहीं देता क्योंकि पाठकों की आलोचना से मुझे बल मिलता है। संवाद - संपर्क बनता है। अगर कोई सवाल पाठक पूछता है तो जबाव जरुर देता हूँ। फाठकों की यदि ज्ञानपिपासा को मेरा लेखन बढ़ावा देता है तो लिखना सार्थक है। लेखन का एक ही लक्ष्य है संवाद करना,सम्मान करना और समृद्ध (पाठकों और स्वयं को) करना। मैं कैरियर बनाने के लिए नहीं लिखता
जवाब देंहटाएंपाण्डेयजी, गलती बताने के लिए शुक्रिया। चुटकी लेने के लिए डबल शुक्रिया,ऐसे ही चौकन्ने बने रहें।
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