(राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा का एक दृश्य)
फासीवादी संगठन तकनीकी की पूजा करते हैं और परंपरावादी आम तौर पर तकनीकी को खारिज करते हैं। नाजी अपनी औद्योगिक उन्नति पर गर्व करते थे। वे आधुनिकतावाद की प्रशंसा करते थे। फासीवादी चिन्तक परंपरावाद के नाम पर आधुनिकतावाद को खारिज करते हैं। पूंजीवादी जीवनशैली को खारिज करते हैं। तर्क के युग को आधुनिक दारिद्रय की शुरूआत मानते हैं। इन्हें आंतरिक फासीवादी कहना उचित होगा।
आंतरिक फासीवाद संस्कृति को संदेह की नजर से देखता है,नपुंसक चिन्तन की हिमायत करते हैं। बौद्धिक जगत पर अविश्वास करते हैं।विश्वविद्यालयों को पतन का केन्द्र मानते हैं, अथवा विश्वविद्यालयों के स्वतंत्र बौध्दिक वातावरण को नष्ट करते हैं, आधुनिक संस्कृति पर हमला करते हैं,उदार बौद्धिकों को निशाना बनाते हैं क्योंकि इन लोगों ने परंपरागत मूल्यों के साथ दगा की है।
फासीवाद को आलोचनात्मक नजरिए और असहमति से सख्त नफरत है। उसे परंपरावाद और अनुकरणभाव से प्रेम है। अनुकरणपंथी उसके अपने हैं और आलोचनात्मक विवेक वाले पराए हैं। सारी मुश्किलें यहीं पर हैं। आलोचना के बिना लोकतंत्र विकसित नहीं होता, आलोचना और असहमति के बिना आधुनिकता विकसित नहीं होती। फासीवादी संगठन जिस तरह का लोकतंत्र निर्मित करना चाहते है उसका प्रयोग गुजरात में चल रहा है यह अपाहिज लोकतंत्र है। इसे स्वस्थ लोकतंत्र नहीं कह सकते। क्योंकि गुजरात में आलोचना और असहमति के लिए कोई जगह नहीं है।
उम्ब्रतो इको के अनुसार आलोचनात्मक नजरिया फ़र्क पैदा करता है। यही आधुनिकतावाद का लक्षण है। आधुनिक संस्कृति में वैज्ञानिक समुदाय असहमतियों की प्रशंसा करते हैं, यह ज्ञान को बेहतर बनाने का रास्ता है। जबकि आंतरिक फासीवाद असहमति को दगा मानता है। असहमति का अर्थ है विविधता।
जबकि आंतरिक फासीवाद सहमति का शोषण करता है। भिन्नता के प्रति स्वाभाविक भय का शोषण करता है। फासीवाद की पहली और फासीवादी आंदोलन की स्थायी अपील घुसपैठियों के खिलाफ होती है। भारत में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ फासीवादी संगठन हंगामा करते रहते हैं। इस अर्थ में आंतरिक फासीवाद नस्लवादी होता है। आंतरिक फासीवाद व्यक्तिगत और सामाजिक कुण्ठा से पैदा होता है। वह कुण्ठित मध्यवर्ग को अपील करता है। यह वर्ग आर्थिक संकट और राजनीतिक अपमान से त्रस्त है। निम्नवर्ग के सामाजिक दबाव से पीडित है।
परवर्ती पूंजीवाद ने गुजरात और महाराष्ट्र में मजदूरवर्ग की वर्गीयचेतना और सांगठनिक गोलबंदियों को प्रभावित किया है। मजदूरचेतना का भगवाकरण किया है,उसे पेटीबुर्जुआ बनाया है। शेयरहोल्डर बनाया है। लंपट राजनीति पर निर्भर बनाया है। यही वजह है गुजरात के अहमदाबाद और सूरत के इलाकों में वाम मजदूर संगठन एकसिरे से अनुपस्थित हैं।
आंतरिक फासीवाद के दौर में लंपट अथवा अपराधी नामक तत्व नजर कम आते हैं इसके विपरीत सारी जनता ही लंपट और अपराधी बन जाती है। पहले गुंडों के गिरोह होते थे जो अपराध करते थे अब जनता के गिरोह अपराध करने लगते हैं। नागरिकों के गिरोह हिंसा करने लगते हैं। इनमें ज्यादातर वे लोग शामिल हैं जो लोग सामाजिक अस्मिता से वंचित हैं। आंतरिक फासीवाद उनको आकर्षित करता है। उन्हीं समुदायों में यह पैदा होता है।
आंतरिक फासीवाद का किसी काल्पनिक स्टीरियोटाईप कहानी के प्रति आग्रह होता है। जिसका सत्य के आख्यान से कम निर्मित सत्य के आख्यान से ज्यादा संबंध है। गुजरात के नए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की यह धुरी है। इसी तरह की कहानियों के जरिए फासीवादी संगठनों ने भारत में समय समय पर अपने को आक्रामक रूप में संगठित किया,जनता को उन्माद में ठेला। आम हिन्दुओं में अपमान की भावना पैदा की और प्रतिकार स्वरूप बदला लेने के लिए जोर डाला। साथ ही यह भी कहा हिन्दू बहुमत में हैं ,शत्रु से ज्यादा हैं, डरने की जरूरत नहीं है।
फासीवादी राजनीति की विशेषता है कि वह निरंतर अपना राजनीतिक फोकस बदलती रहती है। कभी कोई मुद्दा प्रधान होता है तो कभी दूसरा। संघ परिवार के फासीवाद का लक्ष्य भारत के विकास अथवा जनता के जीवन स्तर में सुधार के लिए संघर्ष करना नहीं है। बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य है सामाजिक विभाजन के लिए संघर्ष करना। सामाजिक और धार्मिक विभाजन बनाए रखने के लिए संघर्ष करना। फासीवाद मूलत: नकारात्मक कार्यक्रम के लिए संघर्ष करता है। सद्भाव और शांति को शत्रु के लिए की गई तस्करी मानता है। शांति को जीवन के लिए बुरी चीज मानता है ।
इको के अनुसार आंतरिक फासीवाद 'पापुलर एलीटिज्म' को अपील करता है। 'सलेक्टिव पापुलिज्म' का सहारा लेता है।इसे गुणवत्ता प्रधान पापुलिज्म भी कह सकते हैं। जनतंत्र में व्यक्ति को व्यक्तिगत अधिकार होते हैं। उसकी पहचान का राजनीतिक प्रभाव पड़ता है।मात्रात्मक तौर पर उसकी राय व्यक्त होती है।बहुमत के फैसले का लोग अनुकरण करते हैं।
आंतरिक फासीवाद व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में तो देखता है किन्तु उसके व्यक्तिगत अधिकारों को अस्वीकार करता है। लोगों को वह गुण के रूप में देखता है,यह ऐसा जन है जो कॉमन इच्छाशक्ति को व्यक्त करता है। नेता उसके व्याख्याकार का ढ़ोंग करते हैं।उनकी राय में प्रतिनिधित्व का हक खो देने के कारण नागरिक की कोई भूमिका नहीं होती।उसे तो सिर्फ जन की भूमिका अदा करनी है। जन उसके लिए नाटकीय कहानी है।
हमारा भविष्य तो टीवी और इंटरनेट पापुलिज्म में है जिसमें चुनिंदा नागरिक समुदायों की भावुक प्रतिक्रियाएं पेश की जाती हैं। उन्हें स्वीकार किया जाता है।उसे ही जनता की आवाज कहा जाता है।गुणवत्तामूलक पापुलिज्म के आधार पर आंतरिक फासीवाद 'सड़ी हुई' संसदीय सरकार का विरोध करता है,ऐसे राजनीतिज्ञ जब भी संसद की वैधता पर संदेह व्यक्त करते हैं वे जनता के भावों की अभिव्यक्ति नहीं करते। हम इसमें आंतरिक फासीवाद की गंध पा सकते हैं।
इको ने लिखा है आंतरिक फासीवाद जब भी बोलता है 'न्यूस्पीक' के रूप में बोलता है। इम्प्रोबाइज भाषा में बोलता है ,सामान्य वाक्यों में लिखता है। जटिल और आलोचनात्मक तर्कबोध को सीमित करता है। आंतरिक फासीवाद हमारे अंदर है कभी-कभी वह साधारण कपड़ों में आता है। सरल रूप में आता है। किसी भी सरल या निर्दोष सी चीज के जरिए आ सकता है। हमें उसका उद्धाटन करना चाहिए।चाहे वह जिस रूप में आए। इस संदर्भ में स्वतंत्रता और मुक्ति के पक्षधरों की अंतहीन अंतहीन जिम्मेदारियां हैं।
कम्युनिस्ट क्या करते हैं?
जवाब देंहटाएंजहाँ-जहाँ इनके पाँव पड़े, बंटाधार हो गया। सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप, और भारत में बंगाल तथा केरल!!!! अब स्थिति यह है कि कोई खुले तौर पर कम्युनिज्म की पैरवी करता नहीं दिखता। ('जनवाद', 'प्रगतिशीलता' आदि के बुरके में रहकर लोगों को भ्रमित करने की कवायद करते रहते हैं।)