फिल्मी संगीत की यह विशेषता है कि इसके आस्वादन की जब आदत हो जाती है तब अभिरुचि एवं व्यक्तित्व में कोई भी महत्वपूर्ण परिवर्तन सहज नहीं रह जाता। इसका प्रधान कारण है व्यक्ति के अंदर 'मेनीपुलेशन' के प्रति अनुकूल परिवेश का तैयार होना, यह 'व्यक्तित्व' की अवस्था न होकर, दासत्व की अवस्था है। 'दासत्व' में मेनीपुलेशन तेजी से प्रभावी होता है जबकि 'व्यक्तित्व' की अवस्था में मेनीपुलेशन की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं।
औद्योगिकीकरण के कारण शहरी जीवन का नियमन और आत्मसातीकरण के रवैय्ये के विकास के कारण मनुष्य अब जन-मस्तिष्क के आश्रित होता है। इस अवस्था का जनमाध्यमों के द्वारा विस्तार दिया जाता है।
जनमाध्यमों के द्वारा उन सब चीजों को विस्तार दिया जाता है जो 'देखी' और 'सुनी' जा सकती हों। ऐसे रूप को निर्मित किया जाता है जो समग्र को हजम करने पर मजबूर करें। अब व्यक्ति के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता, किसी भी चीज के बारे में निर्णय करने की क्षमता से वह वंचित हो जाता है, अब उसके पास स्वतंत्रता नहीं होती, भरोसे योग्य अभिरुचियां नहीं होतीं, बौध्दिक स्वास्थ्य के लिए कौन सी सामग्री का सेवन करें इसकी जानकारी नहीं होती और न ही उसके पास आपत्ति ही होती है।
ऐसी परिस्थितियों में लोकवादी संस्कृति माल के माध्यम से जनता की अभिरुचियों को नष्ट करने की कोशिश करती है, अभिरुचियों का वैशिष्टय खत्म करके इकसार अभिरुचियों को निर्मित करती है, साथ ही, निज के बारे में सोचने में अक्षम बना देती है, वह व्यक्ति को अनुरूपता के अनुकूल प्रेरित करती है।
इसी बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में लोकप्रिय गीत-संगीत अपनी भूमिका अदा करता है। सकारात्मक के बजाय नकारात्मक सिध्दांतों का तेजी से प्रसार करता है। चंद विषयों को ही उठाता है, अन्य की उपेक्षा करता है। ऐसा करके वह लोगों को संतुष्ट नहीं करता अपितु उनका दोहन करता है।
अब समस्या यह हो जाती है कि दोहन से लड़ें या सांस्कृतिक स्वास्थ्य लाभ करें ? या फिर कोई और रास्ता अपनाएं? पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा और प्रविधि के विकास के गर्भ से जो लोकतांत्रिाक प्रक्रिया नि:सृत होती है उसको सही दिशा में कैसे ले जाया जाए इस पर विचार करें। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए फिल्म संगीत एवं गीत कहां तक मददगार हो सकते हैं, यह विचारणीय प्रश्न है।
हिंदी फिल्मी गीतों का इतिहास 'आलम आरा' (1927) फिल्म से शुरू होता है। यह पहली बोलती फिल्म थी। आरंभ की फिल्मों के फिल्मी गीतों में उदासी और दिल का दर्द छाया हुआ था। ये नायक-नायिका के प्रेम पर लिखे गीत हैं। ये लयात्मक और पदात्मक गीत हैं। जबकि आज के पॉप संगीत की धुनों के लिए लिखे जा रहे गीतों में खंडित गद्य है, गीतात्मकता का अभाव है। पुराने गीत भावप्रधान थे, संगीत उनका अनुगामी था। गीतकार गीत लिखते समय देशी वाद्ययंत्राों को ध्यान में रखता था। यह एक तरह से
फिल्मी संगीत साधना का दौर था। किंतु नए इलैक्ट्रोनिक वाद्ययंत्रों और 'सिंथेसाइजर' के आगमन ने 'संगीत साधना' और संगीतकार की समग्र भूमिका को बदल दिया। अब संगीत सृजन की नहीं, संयोजन की चीज बन गया। संगीतकार सर्जक के बजाय संयोजक हो गया। अब सृजन के बजाय निर्मिति पर बल दिया जाने लगा। अब संगीत साधना के बजाय बाजार का माल बन गया। इस प्रक्रिया ने संगीतकार, संगीत, संगीतवाद्य और गीत सबका संहार किया।
आरंभिक दौर के फिल्मी संगीत में 'रियाज' पर जोर था, आजकल 'नकल' या 'पैरोडी' पर जोर है। यह ऐसा संगीत है जो खिचड़ी संगीत है। इसकी न तो परंपरा है और न भविष्य। यह अल्पायु संगीत है। इसी अर्थ में यह उत्तर-आधुनिक संगीत है। परिश्रम, पहचान, मौलिकता से रहित खंडित पद्य को उभारना इसका लक्ष्य है और
वैविध्यपूर्ण, विसंदर्भीकृत संगीत रूपों का सम्मिश्रण इसकी विशेषता है।
वैविध्यपूर्ण, विसंदर्भीकृत संगीत रूपों का सम्मिश्रण इसकी विशेषता है।
फिल्मी संगीत में जिस तरह 'पैरोडी' का वर्चस्व है, गीत में भी 'पैरोडी' का वर्चस्व है। पुनरावृत्ति और उत्तेजना इसकी विशेषता है। गायक को गायकी, लय और तानों की आज जरूरत नहीं है। फिल्मी संगीत के क्षेत्र में धीमी, व्यक्तिगत संवाद बनानेवाली धुनों का अब लोप हो चुका है।
जीवन की गति के साथ आरंभिक दौर में संगीत का रोमानियत भरा जो रिश्ता था वह अब खत्म हो चुका है। रोमानी शैली की जगह उत्तेजनात्मक शैली ने ले ली है। धुन की जगह बेसुरेपन और बेतालेपन ने ले ली है। यह संगीत एवं गीत की जीवन से विदाई की बेला है। अब नकल ही असल और असल ही नकल है।
असली गायक की जगह अब नकली गायक का वर्चस्व है। नए फिल्मी गीत का अपने मूल संदर्भ, फिल्म के संदर्भ, संगीत संदर्भ से कोई संबंध नहीं है। अब कथा, मार्मिक प्रसंग, नृत्य-संगीत के दृश्य फिल्मों से विदाई ले चुके हैं।
इस समूची प्रक्रिया पर माध्यम विशेषज्ञ सुधीश पचौरी का मूल्यांकन गौरतलब है। उनका कहना है : 'अब नायक है, सिर्फ लड़-लड़कर थका हुआ खलनायक है, जो पुराना सभ्य नहीं रह गया, दरअसल रस और कण के सारे नियम खत्म किए जा चुके हैं जिनमें बंधकर एक परिपाक होता था, गाने उसके लिए न केवल सामग्री की तरह थे, अपितु राहत पहुंचाने के नुस्खे भी थे। किंतु अब नायक को न कोठे पर जाने की जरूरत है, न गांव छोड़कर रोने-कलपने की, न परिवार के टूटने की चिंता है और न बच्चा पालने की। गीत स्थितियां, पॉप संगीत स्पर्धाओं (जैसे कर्ज, डिस्को डांसर) में सीमित है या फिर लघु-लघु हो उठे प्रेम प्रसंगों में जो सेक्स प्रसंग अधिक रह गए हैं, प्रेम की जगह सेक्स ने जब से ली, तब से गीत विदा हुए कहे जा सकते हैं, अब नायक-नायिका सिर्फ शरीर हैं, उनके मन नहीं है, आत्मा नहीं है तो आत्मिक आनंद की जरूरत क्यों होने लगी।'
... 'अब गीत मन को संबोधित नहीं होते बल्कि अर्द्ध संभोगाशय को उभारते हैं।'
... 'नया बेहद पापुलर है तो इसलिए क्योंकि वह भड़काऊ है, हिंसक है और विस्फोटक है, थका देनेवाला है और नए युवा के भीतर सहज लब्ध सुख संग्रह और उत्तेजना,सामग्री संचय का जो नया सांस्कृतिक मूल्य मौजूद है उससे नई धुनें, नए गाने, नया गायक मेल खाता है ... जो नया है वह धुन नहीं है, वह गीत नहीं है, वह अधिक-से-
अधिक इंद्रियों पर हिंसा करनेवाला व्यवस्थित शोर है, जो एक दिन हमारे मन के कोमल संस्कार के कोमल भावजगत को नष्ट कर हमें सिर्फ ऐंद्रिक-प्राणी बनाने पर तुला है।'
... 'अब गीत मन को संबोधित नहीं होते बल्कि अर्द्ध संभोगाशय को उभारते हैं।'
... 'नया बेहद पापुलर है तो इसलिए क्योंकि वह भड़काऊ है, हिंसक है और विस्फोटक है, थका देनेवाला है और नए युवा के भीतर सहज लब्ध सुख संग्रह और उत्तेजना,सामग्री संचय का जो नया सांस्कृतिक मूल्य मौजूद है उससे नई धुनें, नए गाने, नया गायक मेल खाता है ... जो नया है वह धुन नहीं है, वह गीत नहीं है, वह अधिक-से-
अधिक इंद्रियों पर हिंसा करनेवाला व्यवस्थित शोर है, जो एक दिन हमारे मन के कोमल संस्कार के कोमल भावजगत को नष्ट कर हमें सिर्फ ऐंद्रिक-प्राणी बनाने पर तुला है।'
पचौरी के शब्दों में, 'एशियाई समाजों में संगीत जीवन की संगति में रहा है, नया संगीत विसंगति से खेलता है, संगीत पैदा नहीं करता, आप उसे आसानी से गा नहीं सकते, गुनगुना नहीं सकते। जो गीत गुनगुनाए नहीं जा सकते, वे गीत अमर नहीं हो सकते ... दरअसल नई फिल्मों को गीतकार नहीं फाइटमास्टर चाहिए।'
इस सबके बावजूद हिंदी फिल्म और संगीत इतना लोकप्रिय क्यों है? सत्यजित राय के शब्दों में इसका प्रधान कारण है, 'सार्वभौम हाव-भाव, सार्वभौम संवेदनाएं, किसी खास समाज के साथ पहचान का अभाव, कृत्रिम और वायवीय समाज का रूपायन। इन्हीं कारणों से हिंदी सिनेमा लोकप्रिय है।'
सत्यजित राय ने हिंदी फिल्मी गीतों की लोकप्रियता के एक अन्य पहलू पर भी प्रकाश डाला है। उनका मानना है कि 'भारतीय समाज में पश्चिमी समाजों की तरह मनोरंजन के साधनों का जबर्दस्त अभाव है। परिणामत: सिनेमा के नृत्य एवं गायन के अभाव की पूर्ति न करें तो अन्य किसी माध्यम से इसकी पूर्ति संभव नहीं है।'
सत्यजित इस धारणा को अस्वीकार करते हैं कि 'भारतीय समाज गीतों से ज्यादा प्यार करता है।' उनका मानना है कि 'अच्छे गीत को महान कविता नहीं होना चाहिए। क्योंकि उसका अपना संगीत होता है, उसे गीत के रूप में ढालना मुश्किल होता है।'
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