(स्व.प्रधानमंत्री राजीव गांधी)
(कांग्रेस की नयी पहचान सांसद राहुल गांधी)
सारे समाज में जब अनुदारवादी रूझान चल रहे हों तो राजनीति में भी अनुदारवाद ही आएगा बल्कि कहीं पर फासीवाद भी आ सकता है। ठीक यही गुजरात में हुआ है। गुजरात के युवावर्ग का अधिकांश हिस्सा वह है जिसकी किसी भी किस्म की धर्मनिरपेक्ष राजनीति में व्यस्तता नहीं है। यही स्थिति विगत तीस सालों में पूरे देश में पैदा हुई है।
विगत तीस सालों में उभरकर आया युवावर्ग धर्मरिपेक्ष राजनीति के अनुभव से वंचित हैं। उसने कम्प्यूटर क्रांति,राममंदिर,शाहबानो प्रकरण, आरक्षण आदि के आंदोलन देखे हैं और लगातार प्रतिवर्ष किसी न किसी धर्मनिरपेक्ष नेता अथवा दल को भ्रष्टाचार में फंसते हुए देखा है। इसके कारण उसके अंदर गैर-धर्मनिरपेक्ष संस्कार बने हैं। गैर-धर्मनिरपेक्ष राजनीति के साथ रिश्ते बने हैं। ऐसी स्थिति में सारे देश में उन दलों की बन आयी है जो किसी न किसी बहाने से धर्मनिरपेक्षता की तुलना में अन्य चीजों को महत्व देते हैं।
किसी दल ने क्षेत्रीय अस्मिता को प्रधानता दी ( एनटी रामाराव एवं बाल ठाकरे) तो किसी ने दलितों और पिछड़ों को प्रधानता दी,(लालू,मुलायम, नीतीशकुमार, मायावती)किसी ने गरीब किसानों- मजदूरों (वामपंथी दल) को प्रधानता दी। इस प्रक्रिया में जाने-अनजाने धर्मनिरपेक्षता का एजेण्डा राष्ट्रीय राजनीति से गायब हो गया। यह संभव नहीं है कि क्षेत्रीयदल अपने इलाकों में गैर धर्मनिरपेक्ष एजेण्डा पर कायम रहें और देश के नाम पर संसद के नाम पर गौण रूप में धर्मनिरपेक्षता पर जोर दें। सवाल यह है धर्मनिरपेक्षता का एजेण्डा क्षेत्रीय दलों का प्रधान एजेण्डा क्यों नहीं बन पाया।
उल्लेखनीय है जिस व्यक्ति और दल ने देश में कम्प्यूटर क्रांति की वकालत की उसी दल और व्यक्ति ने राममंदिर का शिलान्यास भी करवाया। मेरा इशारा स्व.प्रधानमंत्री राजीव गांधी की ओर है। हाइपरसंस्कृति, हाइपररीयलटी, हाइपर उपभोक्तावाद और हाइपर राजनीति के जो निर्माता हैं असल में वे ही धर्मनिरपेक्षता की विदाई और अनुदारवादी राजनीति के निर्माता भी हैं। इस अर्थ में उन्होंने सचेत रूप से अनुदारवादी राजनीति की वैचारिक मदद की है।
उल्लेखनीय है सन् 2007 के चुनाव में कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता या प्रधानमंत्री ने गुजरात के चुनाव में संघ परिवार को अपने निशाने पर नहीं रखा । सवाल किया जाना चाहिए क्या गुजरात प्रशासन 'मौत का सौदागर'' है अथवा संघ परिवार ? क्या गुजरात के दंगों की जिम्मेदारी और एकमात्र जिम्मेदारी संघ परिवार की नहीं है ? यदि है तो कांग्रेस को इसे जनता के सामने बोलने में किस बात का संकोच है ? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अथवा प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने 2002 के दंगों और राज्य में अल्पसंख्यकों की शरणार्थी के तौर पर स्थिति के लिए संघ परिवार पर हमला क्यों नहीं किया ?
नव्य आर्थिक उदारतावाद, संघ परिवार, हाइपर उपभोक्तावाद और हाइपर भौतिकवाद पर हमला किए बगैर क्या धर्मनिरपेक्ष-उदार भारत की रक्षा संभव है ? जी नहीं। हमें इस बदले हुए इस वैचारिक समीकरण को गंभीरता के साथ समझना होगा। ये चारों चीजें अभिन्न हैं। इनमें से आप किसी एक को नहीं त्याग सकते। इन चारों का वातावरण बनाने में 'इन्फोटेनमेंट' अथवा 'सूचना-मनोरंजन की हाइपररीयल दुनिया ने व्यापक मदद की है।
हमारे देश का 'मनोरंजन-सूचना उद्योग' नागरिकों और उनके चुने लोगों को प्रतिनिधित्व देने की बजाय व्यापक पैमाने पर गेमशो,रियलिटी शो, मनोरंजन कार्यक्रमों को प्राथमिकता दे रहा है। इसका प्रभाव यह हुआ है कि राजनीति भी शो बिजनेस हो गयी है। राजनीति का शो बिजनेस में रूपान्तरण हाइपररीयल जगत की सबसे बड़ी दुर्घटना है।
अब राजनीतिक रिपोर्टिंग नहीं होती बल्कि राजनीतिक मार्केटिंग होती है। राजनीतिक मार्केटिंग के कारण अब उम्मीदवारों का टीवी बहसों में वैचारिक तर्कों को पेश करने में ध्यान नहीं जाता बल्कि किसी न किसी तरह ताली बजबाने, निरूत्तर करने पर होता है। यह वस्तुत: राजनीतिक मार्केटिंग है।
टीवी पर क्षेत्रीय स्तर पर आयोजित पार्टी के नेताओं और प्रत्याशियों की बहस का
स्तर इतना कमजोर होता है कि देखकर लगता ही नही है कि कोई भी पक्ष तैयारी करके आया है। सन् 2007 के गुजरात की परिस्थितियों का एंकर अथवा संवाददाता प्रचारक की तरह विश्लेषण कर रहे थे। अथवा कुछ निजी चैनलों पर नामी-गिरामी गैर राजनीतिक सैलीब्रेटी बैठे हुए पक्ष और विपक्ष में विश्लेषण कर रहे थे ,तर्क दे रहे थे। यह वस्तुत: राजनीतिक मार्केटिंग का ही नमूना है। यह राजनीतिक प्रचार नहीं है।
हाइपररीयल अवस्था में राजनीतिक प्रचार की बजाय अधिकांश पार्टियां राजनीतिक मार्केटिंग की पध्दति का इस्तेमाल कर रही हैं। मोदी का मुखौटा राजनीतिक मार्केटिंग का आदर्श उदाहरण है। कालान्तर में मीडिया की खरीद-फरोख्त तेजी से फैली है।
आज के युग में राजनीति की इमेज को राजनीतिक यथार्थ के रूप में वरीयता प्रदान कर दी गयी है। इस रणनीति को लागू करने में मोदी और संघ परिवार सबसे आगे रहे हैं।
बौद्रिलार्द के शब्दों में कम्प्यूटर, टेलीविजन और केबल टेलीविजन के द्वारा किए जा रहे इंटरेक्टिव संप्रेषण के कारण यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हाइपररियलिटी का प्रभुत्व खत्म हो जाएगा। बल्कि सच यह है कि इंटरेक्टिव संप्रेषण ने सूचना की सक्रियता और शिरकत बढ़ा दी है। वह स्व- प्रबंधकीय समाज बनाने की बजाय राजनीतिक -आर्थिक शिरकत वाले समाज को पैदा करता है।
बौद्रिलार्द ने लिखा अब लोग सिर्फ टीवी देखते हैं अथवा इंटरनेट पर विचरण करते हैं।अब हम व्यक्ति के नाते ,नागरिक के नाते अपनी भूमिका अदा नहीं करते।
हाइपर रियलिटी के प्रभुत्व के कारण मीडिया की स्वतंत्रता स्थापित हो जाती है। जिसके मन में जो आता है वैसा ही बोलता है। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में व्यक्ति अपनी राय इलैक्ट्रोनिक मीडिया के जरिए व्यक्त नहीं करता और यही स्थिति गुजरात के टीवी कवरेज में भी देखी गयी। कई चैनलों पर कैमरे के सामने दिखने वाले लोग अमूमन दल विशेष के लोग ही थे। इन्हें साधारण नागरिक की प्रतिक्रिया के रूप में नहीं देखना चाहिए। बौद्रिलार्द का कहना है हाइपर रियलिटी के खिलाफ संघर्ष का एक ही तरीका है मीडिया और राजनीति में जनता की व्यापक शिरकत।
बौद्रिलार्द कहता है ज्यादातर लोग टीवी देखते हैं किंतु मीडिया में शिरकत के लिए तैयार नहीं होते। मीडिया में शिरकत में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। स्थिति इतनी बदतर हो गयी है कि ज्यादातर बुद्धिजीवी चुनाव के समय मीडिया में शिरकत करने से परहेज करते हैं। फलत: राजनीतिक शिरकत के प्रति तटस्थता के पक्षधरों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। ज्यादातर मतदाताओं में मतदान के प्रति उपेक्षाभाव अथवा वोट न डालने की प्रवृत्ति बढ़ी है। वे अधिक से अधिक कभी-कभार राज्य का नागरिक समाज से जो संबंध विच्छेद हो रहा है उसके बारे में बोलते हैं,उसकी निंदा मात्र कर देते हैं।
बौद्रिलार्द कहता है ज्यादातर नागरिक अपनी जिम्मेदारियों को राजनेताओं और नौकरशाहों के कंधे पर डालकर अपने कर्म की इतिश्री समझ लेते हैं। वे अपनी नागरिक जिम्मेदारियों से भागते हैं और बगैर किसी बाधा अथवा परेशानी के अपने घर में बैठे आनंद में मग्न रहते हैं। यही वह हाइपररीयल संसार है जिससे सचेत संघर्ष और प्रतिरोध की जरूरत है।
लेख पर मेहनत तो बहुत की है, लेकिन..... धर्मनिरपेक्षता इतनी बढ़िया चीज होती तो दुनिया के महज दो-तीन देशों तक ही क्यों सिमट कर रह जाती. भारत धर्म-निरपेक्ष नहीं है बल्कि प्रो-इस्लामी है. सैंतालीस से आजतक की नीतियां उठाकर देख लें. वैसे मेरा कहना है कि आपलोग इस विचारधारा को इस्लामी-ईसाई मुल्कों में लागू करवाने के लिये कोई आंदोलन इन देशों में जाकर क्यों नहीं प्रारम्भ करते. हमारी इस धर्मनिरपेक्षता से बेहतर तो धार्मिक यूरोपीयन देश कहीं बहुत अधिकर धर्मनिरपेक्ष हैं.
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