बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

माध्यम साम्राज्यवाद की नरकलीला -1-

भूमंडलीकरण एक  विश्वव्यापी संवृत्ति है। इसका साम्राज्यवाद से गहरा सम्बन्ध है। यह नव- औपनिवेशिक शोषण और प्रभुत्व का प्रभावी अस्त्र है। इसके प्रचारक-प्रसारक हैं भूमंडलीय जनमाध्यम और बहुराष्ट्रीय शस्त्र निर्माता कम्पनियां एवं बहुराष्ट्रीय वित्तीय कम्पनियां।
  
द्वितीय विश्व युध्द के बाद समूची दुनिया पर साम्राज्यवाद की पकड ढ़ीली पड़ी थी। अधिकांश गुलाम देश आजाद हुए। साम्राज्यवाद के शोषण एवं उत्पीड़न का दायरा सिकुड़ा। समाजवादी शिविर का जन्म हुआ। सोवियत संघ के नेतृत्व में उभरे समाजवादी शिविर ने नवोदित राष्ट्रों को आत्मनिर्भर विकास का रास्ता अख्तियार करने, बुनियादी उद्योग-धंधों का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस सबका विरोध और समाजवादी सत्ता का विरोध करने के लिए शीतयुध्द की राजनीति शुरु की गयी और शस्त्रास्त्रों की अंधी प्रतिस्पर्धा शुरु की गयी। 'समाजवाद  के खतरे' और 'मार्क्सवाद के भूत' के जरिये सारी दुनिया में, खासकर तीसरी दुनिया और पूर्वी यूरोप में वैचारिक हमला बोला गया।इसी संदर्भ में माध्यम साम्राज्यवाद का विकास हुआ।                                                                                              
साम्राज्यवादी हितों के विस्तार के लिए हथियारों के उत्पादन,सूचना तकनीकी के उत्पादन एवं माध्यम कार्यक्रमों के उत्पादन पर विशेष जोर दिया गया। इन तीन क्षेत्रों के जरिये अमरीकी साम्राज्यवाद ने विश्व भर में अपनी प्रभुता स्थापित की और अपनी शक्ति का विस्तार किया ।विगत पचास वर्षों में इन क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की परिसंपत्तियों में बेशुमार वृध्दि हुई ।
वहीं दूसरी ओर समाजवादी व्यवस्था को गहरा आघात लगा।तीसरी दुनिया के देशों को नए सिरे से नव औपनिवेशिक शोषण की चक्की में पिसना पड़ रहा है ।गरीबी, भुखमरी, बेकारी, सामाजिक विखण्डन और कर्जों के दबाव से गुजरना पड़ रहा है।                                                                                         
द्वितीय विश्वयुध्द के बाद साम्राज्यवादी देशों की समस्या थी कि संपत्ति, सत्ता और ताकत का कैसे विस्तार किया जाय?जाहिरा तौर पर यह विस्तार शांतिपूर्ण विकास कार्यों से संभव नहीं था। सिर्फ युध्दों का माहौल बनाए रखकर ही साम्राज्यवादी हितों का विकास संभव था। युध्दों के लिए शस्त्रों की जरुरत थी और यही एकमात्र क्षेत्र था जो साम्राज्यवाद के विकास की गारंटी कर सकता था।  यही वजह है कि शस्त्र उद्योग का बड़े पैमाने पर विकास किया गया।यही एकमात्र उद्योग था जहां बेशुमार मुनाफा था।

सन्1978 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के विशेषज्ञों की ''हथियारों की होड़ और सैन्य खर्च के आर्थिक - सामाजिक परिणाम,महासचिव की अधुनातन रिपोर्ट '' में बताया गया कि ''लड़ाईयां दूसरे विश्व युध्द के बाद के दौर का एक स्थायी लक्षण रही हैं। हथियारों का प्रयोग काफी बडे पैमाने पर वास्तव में निरन्तर,अक्सर एक ही समय अनेक स्थानों पर किया जा रहा है।हताहतों की संख्या बढ़ती रही है।

दूसरे विश्वयुध्द के बाद कई करोड़ तक पहुँच गयी है। बडी हद तक ये लड़ाई-झगड़े दुनिया के मुख्य औद्योगिक क्षेत्रों के बाहर हुए हैं,यद्यपि कुछ स्थितियों में कुछ मुख्य शक्तियाँ इनमें प्रत्यक्ष रुप से शामिल रही हैं,और युध्द का साजो-सामान तो बिना अपवाद इन्हीं शक्तियों ने मुहैया किया है।   इन लडाईयों के हिंसात्मक स्वरुप ,उनकी व्यापकता तथा अत्यन्त विनाशकारिता का कारण यह है कि अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां दो हिस्सों में बंटी हुई हैं तथा आधुनिक शस्त्रास्त्र तत्काल सुलभ हैं। और ये दोनों बातें अस्त्रों की होड़ का मुख्य लक्षण हैं।''
सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र में छह प्रमुख देश आते हैं जिनके खाते में संसार भर के सैन्य व्यय,सैनिक शोध एवं विकास व्यय का बहुत बड़ा हिस्सा आता है।ये देश हैं-अमरीका,सोवियत संघ,चीन, फ्रां,ब्रिटेन, और जर्मनी। विश्व में शस्त्रों का 90 फीसदी निर्यात यही देश करते हैं।अन्य देशों को जाने वाले मुख्य प्रकार के हथियारों की कुल मात्रा का 95 फीसदी इन्हीं देशों से जाता है। आज शस्त्रास्त्र प्रतिस्पर्धा से कोई देश बचा नहीं है। हथियारों के सौदागर अपने माल की बिक्री बढाने के लिए यह प्रचार करते रहते हैं कि यदि इन हथियारों को प्राप्त कर लिया तो उनके देश की प्रतिष्ठा बढ़ेगी , बडी-बडी शक्तियों के दबाव और आदेश का मुकाबला करने की क्षमता बढेग़ी।

लेकिन हथियार किसे बेचे जाएं यह एक राजनीतिक फैसला होता है। सैनिक सलाहकारों एवं प्रशिक्षकों को कहां भेजा जाये, किसे गोला -बारुद की सप्लाई की जाये,इत्यादि फैसले राजनीतिक हितों को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं। इस संदर्भ में साम्राज्यवादी मुल्कों के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है और छोटे-अविकसित देशों के हितों की अनदेखी की जाती है।                                                                                                                               

संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेषज्ञों की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि'' हथियारों की होड़ दिनोंदिन विश्वव्यापी परिघटना बनती जा रही है। यद्यपि इसकी तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में घटती बढ़ती रहती है;मगर शायद ही कोई देश और बड़ा क्षेत्र इससे बचा हो।''

विशेषज्ञों ने इसके आर्थिक दुष्परिणामों की ओर ध्यान खींचते हुए लिखा कि ''यह मामला अत्यन्त असमान विनिमय का होता है जिससे गरीब और धनी देशों के बीच दूरी को पाटने के प्रयासों पर विशेष चोट पड़ती है।शस्त्रों के आयार्तकत्ता के लिए यह अपव्यय मात्र है जिसे लाभप्रद ढंग़ से उपयोग में लाया जा सकता है। शस्त्र यदि दान में मिलें तब भी देखरेख,संचालन तथा अवसंरचना का खर्च घाटे के मद में ही जोड़ना पडेगा।
स्टाकहोम अंतर्राष्ट्रीय शान्ति शोध संस्थान  एक विश्लेषण के आधार पर इस ठोस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ''आखिरकार हथियारों का इस्तेमाल यदि युध्द में नहीं किया जाता तो भी वे संतुलित आहार ,स्वास्थ्य सेवा,आवास, और शिक्षा जैसी बुनियादी विकास आवश्यकताओं से आर्थिक संसाधन दूसरी ओर खींचकर अप्रत्यक्ष रुप से 'हत्या'करते हैं।''वस्तुत:शस्त्रों की दौड में शामिल होकर कोई भी देश ताकतवर नहीं बनता अपितु कमजोर बनता है।                                             

आन्द्रेई कोजीरेव ने ''शस्त्व्यापार नये-नये खतरे'' कृति में लिखा है कि''शिकार और खेल को अलग कर दीजिए तो किसी अस्त्र का एकमात्र प्रयोग एवं एकमात्र सामाजिक आवश्यकता उत्पीड़कों की संस्थाबध्द हिंसा है-जो अन्यायपूर्ण इस्तेमाल है। इसके विपरीत उत्पीड़ितों की हिंसा -जो जबावी इस्तेमाल है और न्यायपूर्ण होती है।कुछ पूँजीवादी समाजशास्त्रियों का कहना है कि हिंसा मनुष्य की एक स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है, उसके अस्तित्व का एक अनिवार्य पक्ष है।यह एक निराशावादी , मानवविरोधी निष्कर्ष है।''                                                                                                  
फ्रेडरिक एंगेल्स के शब्दों में''बल केवल साधन है;उद्देश्य आर्थिक लाभ है।''                                                                             


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