इतिहास के बिना ऐतिहासिक परिवर्तन
पुनश्च, आज के उत्तरआधुनिकवाद तथा युगों के अंत की पूर्व विवेचना में कुछ महत्वपूर्ण विभेद हैं। अब तक 'आधुनिकता' के अंत (अथवा 'पाश्चात्य सभ्यता के पतन') को हमेशा एक ऐतिहासिक स्थिति के रूप में समझा गया है, जो ऐतिहासिक ज्ञान के लिए उपलब्ध है। इसमें स्वयं ही ऐतिहासिक परिवर्तन और राजनीतिक कार्रवाई की भी संभावना है। आज डेविड हार्वे और फ्रेडरिक जेमसन जैसे मार्क्सवादी बुध्दिजीवी भी हैं जो 'उत्तरआधुनिकता' की चर्चा एक ऐतिहासिक स्थिति; समकालीन पूंजीवाद के एक दौर, एक सामाजिक और सांस्कृतिक रूप, जिसकी ऐतिहासिक उत्पत्ति तथा भौतिक आधार हो और जो परिवर्तन और राजनीतिक एजेंसी के अध्यधीन हो, के रूप में करते हैं।4 हम उनकेऐतिहासिक निर्णयों से असहमत हो सकते हैं। लेकिन हम उनसे इतिहास के बारे बहस भी कर सकते हैं। बहरहाल, 'उत्तरआधुनिकवाद' कुछ और ही है और वही इस पुस्तक की विषयवस्तु है।
सर्वप्रथम, यहां 'उत्तरआधुनिकतावादी' वाम के सर्वाधिक महत्वपूर्ण थीम का खाका प्रस्तुत है (मैं इस पद का उपयोग व्यापक रूप से उन विविध बौध्दिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों के लिए करूंगा जो हाल के बरसों में उभरे हैं, जिनमें 'उत्तरमार्क्सवाद' तथा 'उत्तरसंरचनावाद' भी शामिल हैं)। उत्तरआधुनिकतावादी भाषा, संस्कृति और 'विमर्श' से पहले ही अभिभूत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कुछ उत्तरआधुनिकवादियों के लिए इसका शाब्दिक अर्थ यह है कि मानवजाति और उसके सामाजिक संबंध केवल भाषा द्वारा ही बनते हैं या न्यूनतम शब्दों में यों कहें कि भाषा ही सब कुछ है जिसके जरिए हम दुनिया को जान सकते हैं। अन्य किसी वास्तविकता तक हमारी पहुंच नहीं। अपने अति 'विरचनावादी' संस्करण में उत्तरआधुनिकतावाद ने न केवल भाषाविज्ञान के सिध्दांत के उन रूपों को अपनाया है जिनके अनुसार हमारे विचार हमारी बोलचाल की भाषा की संरचना के अनुसार बनते और सीमित होते हैं। इसका सीधा अर्थ यह भी नहीं कि समाज और संस्कृति की संरचना भाषा के 'समान' होती है, जिसके नियम और पैटर्न सामाजिक संबंधों को वैसे ही शासित करते हैं जैसे व्याकरण के नियम या उनकी 'अंत:संरचना' भाषा को शासित करती है। समाज महज भाषा के समान नहीं है। यह भाषा ही है और चूंकि हम सभी अपनी भाषा से बंधे हैं अत: जिन विशिष्ट 'विमर्शों' में हम जीते हैं उसके बाहर हमारे लिए कोई मानक सत्य, ज्ञान का कोई बाहरी संदर्भ बिंदु उपलब्ध नहीं है।
अन्य उत्तरआधुनिकतावादी हो सकता है 'विमर्श' के महत्व पर जोर देते हुए भी भाषा को इसके शब्दों और बोली के सरल अर्थ में इतनी महत्ता नहीं देते हों। लेकिन कम से कम वे ज्ञान की 'सामाजिक संरचना' पर बल देंगे। इसके मद्देनजर ज्ञान की सामाजिक संरचना पर यह जोर स्पष्टतया अनापत्तिजनक और पारंपरिक लग सकता है। मार्क्सवादियों को भी ऐसा ही लगेगा, जिन्होंने हमेशा यह माना है कि कोई भी मानव ज्ञान हम तक तटस्थ रूप में नहीं पहुंचता। सभी ज्ञान भाषा तथा सामाजिक आचरण के माध्यम से बंट जाते हैं। लेकिन उत्तरआधुनिकतावादियों के दिमाग में इस विवेकपूर्ण प्रस्थापना से कहीं अधिक उग्र कुछ है। उत्तरआधुनिकतावादी ज्ञानमीमांसा का सर्वाधिक स्पष्ट निरूपण उनकी वैज्ञानिक ज्ञान की अवधारणा है। कभी-कभी वे यहां तक दावा करते हैं कि पाश्चात्य विज्ञान, जो इस दृढ़ विश्वास पर आधारित है कि प्रकृति कुछ निश्चित सार्वभौम, अपरिवर्तनीय, गणितीय नियमों द्वारा शासित होती है, साम्राज्यवादी और दमनकारी सिध्दांतों की अभिव्यक्ति मात्र है जिस पर पाश्चात्य समाज आधारित है। लेकिन उस उग्र दावे को छोड़कर, आधुनिकोत्तरवादियों की या तो जान बूझकर या भ्रम और बौध्दिक भावुकतावश ज्ञान के प्रतिरूपों को इसकी वस्तुओं के साथ मिलाने की आदत है; उदाहरण के लिए मानो वे केवल यह नहीं कह रहे कि भौतिकी विज्ञान एक ऐतिहासिक निर्मिति है जो अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न सामाजिकसंदर्भों में परिवर्तित हुई है, प्रत्युत यह भी कि स्वयं प्रकृति के नियम भी 'सामाजिक रूप से निर्मित' तथा ऐतिहासिक रूप से परिवर्तनीय हैं।
उत्तरआधुनिकता प्राय: यह नकारेंगे कि वे ज्ञानमीमांसक सापेक्षवादी हैं। बल्कि वे इस बात पर जोर देंगे कि वे जानते हैं कि बाहर एक वास्तविक दुनिया है। लेकिन बिडंवना यह है कि अपना बचाव करने में ही यह संभव है कि वे बात को अपने विरुध्द साबित कर दें और जिस सम्मिश्रण (या भ्रम) का आरोप मैं उन पर यहां लगा रहा हूं, वे उसे प्रदर्शित कर दें, मानो केवल भौतिक विज्ञान ही नहीं बल्कि ऊष्म गतिकी के नियमों द्वारा प्रदर्शित भौतिक वास्तविकता भी स्वयं ऐतिहासिक दृष्टि से चर सामाजिक निर्मिति है। वे निश्चित ही इसे अक्षरश: सत्य नहीं मानते; लेकिन मानव ज्ञान विशिष्ट भाषाओं, सभ्यताओं और हितों के अंत:क्षेत्र में है और विज्ञान को कुछ उभयनिष्ठ बाह्य सत्य को समझना या इसके करीब नहीं आना चाहिए और आ सकता भी नहीं है। इस ज्ञानमीमांसापरक पूर्वकल्पना का व्यावहारिक परिणाम इससे कुछ मिलता जुलता है। यदि वैज्ञानिक 'सत्यता' का मानक स्वयं प्राकृतिक जगत में नहीं बल्कि विशिष्ट समुदायों के खास प्रतिमानों में है तो प्रकृति के नियम भी वही होंगे जो समुदाय विशेष समय विशेष में कहेगा।
अपने आपको 'उत्तरआधुनिकतावादी' मानने वाले सभी बुध्दिजीवी जान-बूझकर इस प्रकार के उग्र मीमांसक सापेक्षवाद, यहां तक कि अहंमात्रवाद का समर्थन नहीं करेंगे। यद्यपि यह उनके ज्ञानमीमांसागत अवधारणाओं का अपरिहार्य परिणाम प्रतीत होता है। लेकिन न्यूनतम शब्दों में, उत्तरआधुनिकतावाद का निहितार्थ है 'सर्वसत्तात्मक ज्ञान' तथा 'सार्वभौमिक' मूल्यों की जोरदार अस्वीकृति, जिनमें 'विवेकशीलता' की पाश्चात्य अवधारणाएं, समानता के आम प्रत्यय, चाहे उदारवादी हो या समाजवादी और मानव मुक्ति की सामान्य मार्क्सवादी अवधारणा शामिल है। प्रत्युत उत्तरआधुनिकतावादी 'विभेद' पर जोर देते हैं जिनमें खास स्थायी अस्मिताएं जैसे लिंग, नस्ल, समुदाय, लैंगिकता, उनके नानाविध, विशिष्ट और अलग दमन तथा संघर्ष; खास ज्ञान, जिसमें संजातीय समूहों के लिए विज्ञान भी शामिल हैं।
इन मूलभूत सिध्दांतों का आशय यह है कि हमें वामपंथियों की पारंपरिक 'अर्थशास्त्रीय' चिंताओं तथा राजनीतिक अर्थव्यवस्था जैसे ज्ञान के रूपों को अनिवार्य रूप से अस्वीकार कर देना चाहिए। दरअसल हमें इतिहास के मार्क्सवादी सिध्दांतों सहित प्रगति के पाश्चात्य विचारों जैसे सभी 'महान आख्यानों' का अनिवार्यत: तिरस्कार करना चाहिए। इन सभी थीमों को प्रतीकात्मक रूप से 'न्यूनीकरणवाद', 'संस्थापनावाद' या 'तत्ववाद' की व्याख्या में एक साथ मिला दिया जाता है। मार्क्सवाद को जिसकी एक विशेष रूप से उग्र धारा समझा जाता है। इसका आधार यह है कि यह कथित रूप से मानव अनुभव के विविध स्वरूपों को दुनिया के बारे में एकाश्म दृष्टि में परिणत कर देता है। मार्क्सवाद ऐतिहासिक निर्धारक के रूप में उत्पादन की रीति को, अन्य 'स्थायी अस्मिताओं' की तुलना में वर्ग को, तथा यथार्थ के 'तर्कमूलक विन्यास' की तुलना में 'आर्थिक' अथवा 'भौतिक' निर्धारकोंको विशेषाधिकार प्रदान करता है। 'तत्ववाद' की इस व्याख्या में न केवल विश्व के वास्तव में एकाश्मिक और एकांगी विश्लेषणों (मार्क्सवाद का स्तालिनवादी विश्लेषण) बल्कि किसी भी प्रकार के कारण-कारक विश्लेषण को भी अपने दायरे में समेटने की प्रवृत्ति है।
उत्तरआधुनिकतावादी शब्दावली का अर्थ आगे दिए गए लेखों में और भी स्पष्ट हो जाना चाहिए; लेकिन अभी यह स्पष्ट है कि इन सभी उत्तरआधुनिक सिध्दांतों में विश्व तथा माानव ज्ञान की विखंडित प्रकृति पर बल दिया गया है। इन सभी का राजनीतिक निहितार्थ सुस्पष्ट है : मानव स्वभाव इतना अस्थिर और विखंडित (विकेंद्रित विषय) है और हमारी पहचान इतनी परिवर्तनीय अनिश्चित और नाजुक है कि एक समान सामाजिक 'स्थायी अस्मिता' एक समान अनुभव तथा समान हितों (जैसे वर्ग) पर आधारित सामूहिक कार्रवाई और एकजुटता का कोई आधार नहीं हो सकता।
अपनी न्यूनतम उग्र अभिव्यक्ति में भी उत्तरआधुनिकतावाद 'सर्वसत्तात्मक' ज्ञान अथवा दृष्टि पर आधारित किसी मुक्तिकारी राजनीति की असंभावना पर बल देता है। यहां तक कि पूंजीवाद विरोधी राजनीति भी अत्यधिक 'सर्वसत्तात्मक' या 'सार्वभौमवादी' है। उत्तरआधुनिक विमर्श में एक सर्वसत्तात्मक तंत्र के रूप में पूंजीवाद शायद ही उपस्थित है और इसलिए पूंजीवाद की समालोचना भी निषिध्द है। दरअसल इसमें किसी पारंपरिक अर्थ में भी 'राजनीति' शब्द को प्रभावी रूप में इनकार कर दिया जाता है जिसका अभिप्राय वर्गों अथवा राज्यों की सर्वापरि शक्ति अथवा उनके विरोध से हो और 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स' अथवा 'व्यक्तिगत राजनीति' जैसे विभाजित संघर्षों का मार्ग प्रशस्त किया जाता है। यद्यपि और भी सार्वभौम परियोजनाएं हैं जिनके प्रति उत्तरआधुनिक वामपंथियों का आकर्षण है, जैसे पर्यावरण संबंधी राजनीति। लेकिन यह समझना कठिन है कि पर्यावरण संबंधी राजनीति अथवा वास्तव में कोई भी राजनीतिक कार्रवाई, उत्तरआधुनिकतावाद के सर्वाधिक मौलिक सिध्दांतों के अनुरूप कैसे हो सकती है जो कि एक गहरा ज्ञानमीमांसापरक संदेहवाद और व्यापक राजनीतिक पराजयवाद है।
तब यह उत्तरआधुनिकतावाद 'आधुनिक' युग के अंत संबंधी पूर्व की थ्योरीज की तुलना कहां बैठता है? तुरंत जो बात ध्यान में आती है वह यह है कि उत्तरआधुनिकतावाद, जिसमें युग के अंत संबंधी पुराने निदानों की कई विशेषताएं शामिल हैं, ऐसा प्रतीत होता है, उल्लेखनीय रूप से अपने ही इतिहास से बेखबर है। आज के उत्तरआधुनिकतावादियों का यह दृढ़ विश्वास है कि वे जो कहते हैं वह अतीत से एकदम पृथक स्थिति को दरशाता है लेकिन कई बार ऐसा लगता है वे पूर्व में कही गई सभी बातों से बिलकुल बेखबर हैं। यहां तक कि ज्ञानमीमांसापरक संदेहवाद, सार्वभौम सत्य और मूल्यों पर आघात, आत्मअस्मिता पर संदेह, जो कि वर्तमान बौध्दिक फैशन का बहुत बड़ा अंग है, का भी एक इतिहास है जो उतना ही पुराना है जितना कि दर्शनशास्त्र और खास रूप से, युग की नवीनता का उत्तरआधुनिक अर्थ एक अत्यधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक यथार्थ की अनदेखी या इसके इनकार पर निर्भरकरता है। वह यथार्थ है पूंजीवाद की 'सर्वसत्तात्मक' एकता जिसने बीसवीं सदी के सभी युग-विच्छेदों को एकसूत्र में बांध रखा है।
यह हमें उत्तरआधुनिकतावादियों की सर्वाधिक सुस्पष्ट विशिष्टताओं से रू-ब-रू कराता है : युगपरक विभेदों तथा विशिष्टताओं पर उनके जोर देने के बावजूद, सभी मान्यताओं तथा ज्ञान की ऐतिहासिकता को उजागर करने के उनके दावे के बावजूद (या सटीक रूप में मानव ज्ञान तथा यथार्थ की खंडित प्रकृति और 'अंतर' पर उनके द्वारा जोर दिए जाने के कारण) वे इतिहास के प्रति उल्लेखनीय रूप से संवेदनहीन हैं। उनकी यह संवेदनहीनता उनके मौलिक विवेकहीनता तथा 'प्रबोधन' मूल्यों पर उनके आक्रमण के विरुध्द प्रतिक्रियात्मक प्रतिध्वनियों के प्रति उनके बहरेपन में कम उजागर नहीं होता है।
तब यहां युग-परिवर्तन के वर्तमान विश्लेषणों तथा अन्य सभी विश्लेषणों के बीच एक प्रमुख अंतर है। पूर्व के सिध्दांत, परिभाषानुसार इतिहास की किसी खास अवधारणा पर आधारित होते थे तथा ऐतिहासिक विश्लेषण के महत्व पर बल दिया जाता था।
उदाहरण के लिए सी. राइट मिलस ने इस बात पर बल दिया कि तर्कना और स्वतंत्रता के संकट, जिससे उत्तरआधुनिक युग का आरंभ हुआ 'संरचनात्मक समस्याएं' दरशाते हैं और उन्हें व्यक्त करने के लिए आवश्यक है कि हम युगपरक इतिहास तथा मानव जीवन चरित के पुराशास्त्रीय अर्थ में काम करें। केवल इसी अर्थ में संरचना तथा परिवेश के संबंधों का पता लगाया जा सकता है, जो आज इन मूल्यों को प्रभावित करते हैं तथा इसके कारण-कारक संबंधों का विश्लेषण किया जा सकता है। मिलस यह भी मानकर चलते थे कि पुराशास्त्रीय प्रबोधन के समान ही, इस प्रकार के ऐतिहासिक विश्लेषण का मुख्य उद्देश्य मानव स्वतंत्रता तथा एजेंसी के स्थान चिन्हित करना, अपने विकल्प निर्धारित करना तथा 'इतिहास निर्माण में मानव के निर्णयों की गुंजाइश को बढ़ाना' है। अपनी निराशावादिता के बावजूद, वह मानते थे कि उनके समय में ऐतिहासिक संभावना की सीमाएं 'वाकई बहुत विस्तृत' थीं।
यह कथन प्राय: हर सूक्ष्म विश्लेषण की दृष्टि से वर्तमान उत्तरआधुनिकतावादी सिध्दांतों का प्रतिस्थापनामूलक है, जो प्रभावी रूप में संरचना अथवा संरचनात्मक संबंधों के अस्तित्व तथा 'कारण-परिणाम विश्लेषण' की संभावना को इनकार करते हैं। संरचनाओं और कारणों का स्थान विखंडों और आकस्मिकताओं ने ले लिया है। सामाजिक तंत्र (यथा पूंजीवादी तंत्र) जिसका अपना तंत्रगत तथा 'गति के नियम' हों, जैसी कोई चीज नहीं रह गई है। केवल विभिन्न प्रकार के दमन, शक्ति, विशिष्टता तथा 'विमर्श' रह गए हैं। हमें न केवल प्रगति की प्रबोध धारणाओं जैसे पुराने 'महान आख्यानों' को अस्वीकार करना है बल्कि बोधगम्य ऐतिहासिक प्रक्रिया तथा कारणत्व के विचार को भी छोड़ना है और स्पष्टतया इसी के साथ ही 'इतिहास निर्माण' के किसी भी विचार को भी त्यागना है। कोई भी सुसंरचित प्रकिया नहीं है जो मानव ज्ञान के लिए (या यह अवश्य माना जाना चाहिए कि मानव कार्रवाई के लिए) उपागम्य हो, केवल अराजक, असंबध्द और अवर्णनीय विभेद हैं।
पहली बार हमें ऐसा लगता है कि हमारे सामने पदों का विरोधाभास उपस्थित है यानी इतिहास की अस्वीकृति पर आधारित युग परिवर्तन का सिध्दांत।