अशोक बाजपेयी 'हम सही ' की बीमारी के शिकार हैं। अब 'हम' और 'तुम' का जमाना खत्म हो चुका है। अब सिर्फ लेखन है। 'हम' और 'तुम' उसमें विलीन हो चुके हैं। यह सृजन का सर्वोच्च क्षण है। नामवर सिंह जैसी क्षमता और नजरिया अर्जित करना मुश्किल चीज है। वे इस क्षण का आईना हैं। आज के युग में लेखक किसी एक का नहीं होता,वह सबका होता है। उदयप्रकाश हों या नामवर सिंह हों,उन दोनों ने कोई गलती नहीं की है। जो लोग लेखक को वर्ग,प्रतिबद्धता,विचारधारा,पार्टी के खूंटे से बांधकर देखते हैं, वे अभी तक सभ्यता के विकास को समझ ही नहीं पाए हैं,लेखक में अछूतभाव नहीं होता, लेखक के लिए कोई अछूत नहीं होता। 'यहां जाओगे, वहां नहीं जाओगो,इससे इनाम लोगे, उससे नहीं लोगे,उस वर्ग के चरित्रों पर लिखोगे,इस वर्ग के चरित्रों पर नहीं लिखोगे।' इस तरह का अछूतभाव लेखक के कर्म का हिस्सा नहीं है। उदयप्रकाश की जिन लोगों ने आलोचना की उन्हें आलोचना का हक है, आज कोई नामवर सिंह की आलोचना करना चाहे तो उसे भी लोकतांत्रिक हक है। बुनियादी चीज है लेखन, न कि लेखक। आज नामवरसिंह ,उदयप्रकाश,अशोक बाजपेयी आदि की लेखक,आलोचक के रूप में पहचान या सत्ता खत्म हो चुकी है। नामवर सिह यह तथ्य जानते हैं और मानते भी हैं। उनका यही बाकी हिदी लेखकों से अंतर है। अभी सिर्फ लेखन बचा है। हम लेखक,आलोचक,विधाएं ,नैतिकता,अनैतिकता आदि केटेगरी में सोच रहे हैं जबकि इन सबका लेखन में विलय हो चुका है। अब सिर्फ लेखन बचा है, अशोक बाजपेयी अंग्रेजी के विद्वान हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि देरिदा ने इस प्रसंग में क्या लिखा है। लेखन ने समस्त पहचान के रूपों को खत्म कर दिया है। कम्प्यूटर युग में एक ही पहचान बची है लेखन की पहचान। लेखन में कोई अछूत नहीं होता। लेखक में अछूतभाव के न होने का ही सुफल है कि हमारे तमाम बड़े लोग आज भी नोबुल पुरस्कार को सबसे बडा मानते हैं जबकि उस पुरस्कार को देने वाले संस्थान का हथियार बनाने से संबंध है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि ग्लोबलाईजेशन के खिलाफ सारी दुनिया में जेहाद बोलने वाले संगठनों के मददगारों में अमेरिका के सबसे घटिया इजारेदार घरानों के चंदे का खुला इस्तेमाल किया गया है। हम जिसे वर्ल्ड सोशल फोरम के नाम से जानते हैं उसके चंदादाताओं में ग्लोबलाईजेशन का समर्थन करने वाली कंपनी फोर्ड फाउंडेशन का नाम शामिल है,भारत में तकरीबन 4000 हजार करोड रूपये विभिन्न किस्म के स्वयंसेवी संगठनों को विदेशी कंपनियों के द्वारा दिया जाता है, इसमें दर्जनों वे कंपनियां हैं जो खुली लूट खसोट के लिए बदनाम हैं, युद्ध में सक्रिय हैं। इसके बावजूद यदि ये स्वयंसेवी संस्थाएं पवित्र हैं तो इसका प्रधान कारण है इनका कर्म, न कि चंदा। आज आप वैचारिक, वर्गीय, जातिगत आधार पर छुआछूत बनाए नहीं रख सकते। नामवर सिंह ने जसवंत सिंह के पुस्तक लोकार्पण में जाकर कुछ भी गलत नहीं किया, ठीक वैसे ही उदयप्रकाश ने भी कुछ गलत नहीं किया था,हिंदी में बहस करने वालों की मुश्किल है कि वे जानते ही नहीं हैं कि समाज किस युग में पहुंच गया है, चीजों को कैसे देखें। अशोक बाजपेयी जैसे बडे लेखक की बुद्धि भी अभी भी पुराने प्रेसयुगीन और मध्यकालीन वर्गीकरणों में फंसी हुई है,यह देखकर आश्चर्य लगता है। अशोक बाजपेयी कलावंत हैं,चित्रकारों के इतिहास और उनकी सृजन प्रक्रिया को भी जानते हैं, उन्होंने नैतिकता के बारे में जो नजरिया पेश किया है क्या उसी पैमाने से किसी चित्रकार के द्वारा किसी औरत को भाडे पर अपने स्टूडियो में लाने,नग्न करके बिठाने और फिर उसे देखकर चित्र बनाने को सही ठहराया जा सकता है ? क्या रचनाकारों और बुद्धिजीवियों की वेश्याओं के साथ उठक बैठक को सही माना जा सकता है ? हम यह भूल ही गए हैं कि अब नामवर सिंह, उदयप्रकाश,अशोक बाजपेयी नहीं बचे हैं लेखक के रूप में उनका अंत हो चुका है अब सिर्फ उनका लेखन बचा है। उनकी नैतिकता,अनैतिकता,विचारधारा, प्रतिबद्धता आदि का फैसला उनके लेखन के आधार पर ही होगा। अशोक बाजपेयी की दिक्कत यह है कि वे लेखन पर नहीं, लेखक के आनेजाने पर बोल रहे हैं। नैतिकता पर बोल रहे हैं। लेखक की नैतिकता का आईना उसका लेखन है उसे अन्यत्र नहीं खोजा जाना चाहिए।
(अशोक बाजपेयी के द्वारा जनसत्ता में लिखे लेख पर देशकाल डॉट कॉम में चली बहस पर लिखी टिप्पणी,इस टिप्पणी में बाजपेयी ने मांग की थी कि नामवरसिंह ने जसवंत सिंह के पुस्तक लोकार्पण में जाकर वैसे ही गलत किया जैसे उदयप्रकाश ने भाजपासांसद से पुरस्कार लेकर गलत किया,उदयप्रकाश की आलोचना हुई किंतु नामवर की वामपंथियों ने आलोचना क्यों नहीं की,उपरोक्त टिप्पणी उसी प्रसंग में लिखी गयी है।)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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