( कल राजेन्द्र यादव ने 'देशकाल डाट काम'को दिए साक्षात्कार में साहित्य के जाति आधार की पुन: वकालत की है यह टिप्पणी उसकी प्रतिक्रिया में लिखी गई है)
वे अपने (अ)ज्ञान पर गर्वित हैं,उन्हें यह भी भ्रम है साहित्य का टोकरा उनके सिर पर रखा है, वे अपने को साहित्य का ठेकेदार भी समझते हैं,उनके खिलाफ बोलोगे तो भक्तों की टोली टूट पड़ेगी,वे बड़े हैं,महान हैं,आदरणीय हैं,साहित्यकार सेनानी का पदक बांटते हैं। वे साहित्य के सब कुछ हैं,वे चाहें तो आपको साहित्यकार बना सकते हैं। चाहें साहित्य के मैदान से खदेड़ सकते हैं। वे साहित्य लीला करते रहते हैं, वे साहित्य के लीला कृष्ण है। उनके पास साहित्य गोपों की टोली है। हिंदी साहित्य के सभी मैदान उनके स्वामित्व में हैं। उनके पास साहित्यसेनानियों की लम्बी चौडी फौज है,वे सरस हैं,उदार हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इतिहास मूर्ख हैं। कल ही उन्होंने अपने (अ)ज्ञान का फिर से पिटारा खोला है और उसमें से जो तथ्य और विचार व्यक्त किए हैं,वे हिंदी के लिए चिंता की चीज हैं। 'देशकाल डाट कॉम' में उन्होंने जो कहा है वह हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के संपादक की शोचनीय दशा का जीता जागता प्रमाण है।
राजेन्द्र यादव जाति के आधार पर साहित्य को देखने का अपना स्टैंड नहीं बदला है,भद्रता के नाते सिर्फ खेद व्यक्त किया है। उनका बदला हुआ स्टैंड क्या है ? यह भी बताने की जहमत उन्होंने नहीं की। राजेन्द्र यादव इतिहास और आलोचना की थ्योरी अथवा साहित्यशास्त्र से अनभिज्ञ हैं। वे जानते हैं कि सृजन और का आधार जाति,नस्ल,रक्त,धर्म,जातीयता और राष्ट्र नहीं होता। हिंदी में जातिवाद सबसे प्रिय विषय है और पापुलिज्म बनाए रखने के लिए जातिवाद ,ब्राह्मणवाद आदि का ढोल पीटने से साहित्य की दुकानदारी वैसे ही चलती है जैसे मायावती की चलती है। उन्हें मालूम ही नहीं है कि साहित्य के इतिहास का समूचा ढांचा जाति के आधार को चुनौती देता है। आज तक कभी किसी ने जाति को आधार बनाकर हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा, रामचन्द्र शुक्ल के यहां लेखक के नाम के साथ जाति महज गौण सूचना मात्र है। राजेन्द्र यादव ने लिखा ''''रामचंद्र शुक्ल को पढ़िए, उन्होंने तो जाति आधारित वर्णन ही किए हैं, ये कान्यकुब्ज़ हैं ये फलाँ हैं वगैरा वगैरा।'' इसी को कहते हैं शब्दों को पकडकर झूलना। शुक्लजी ने जब जाति का सेखक के नाम के साथ संकेत दिया था तो उसका मकसद यह नहीं था कि इतिहास को जाति के आधार पर देखो,इतिहास का आधार क्या है,वर्गीकरण का आधार क्या है , कालविभाजन का आधार क्या है, साहित्य को कैसे देखें,इनका उन्होंने अपने इतिहास में यथास्थान जिक्र किया है उसमें जाति को कहीं पर भी पैमाना नहीं बनाया है।कविता कैसे बनती है,उसका सामाजिक स्रोत क्या है,इसके बारे में शुक्लजी ने जाति,नस्ल,धर्म,आदि को आधार नहीं बनाया है। मुक्तिबोध से बडा ब्राह्मणवाद का आलोचक अभी हिंदी में नहीं हुआ उन्होंने भी कविता के आधार के रूप में जाति को आधार नहीं बनाया है बल्कि काव्य के तीन क्षणों में आचार्य शुक्ल की धारणाओं का ही जिक्र भिन्न तरीके से किया है।
सवाल यह कि क्या हम भारत की विगत दो हजार साल की संस्कृति,सभ्यता,साहित्य, कविता,दर्शन आदि की उपलब्धियों को महज इसलिए अस्वीकार कर दें क्योंकि वे ब्राह्मणों के द्वारा रची गयी हैं ? यदि जाति के आधार पर अस्वीकार के भाव में रहेंगे तो हमारे पास देशज सभ्यता के नाम पर क्या बचेगा ? व्यक्ति का जन्म किस जाति में होगा यह उसके हाथ में नहीं होता,ब्राह्मणवाद की आलोचना,जातिवाद की आलोचना, इन दोनों का समाज से उच्छेद जरूरी है,लेकिन अतीत को लेकर अवैज्ञानिक रवैयया नहीं अपनाया जाना चाहिए। यदि वेद या कोई भी रचना ब्राह्मणों की है तो वह हमारी थाती है,उसे कूडे के ढेर पर नहीं फेंक सकते। परंपरा में बहिष्कार के साथ प्रवेश नहीं किया जा सकता,परंपरा में प्रवेश करने के लिए जाति के तर्क से भी कहीं नहीं पहुंचेंगे। परंपरा में जाने के लिए नतमस्तक होकर जाने की भी जरूरत नहीं है,परंपराओं में रचित रचनाओं को ओढने, और कूढे के ढेर पर भी फेंकने की जरूरत नहीं है, परंपरा को अपनी रक्षा के लिए,वैधता के लिए तर्क अथवा हिमायत की भी जरूरत नहीं है, इतिहास में जो चीजें हैं वे हमारी हिमायत और तर्कशास्त्र के बावजूद हैं और रहेंगी,वे पढने और आलोचनात्मक विश्लेषण की मांग करती हैं। इसके कारण ही मूल्यांकन और पुनर्मल्यांकन की जरूरत पड़ती है। बार बार व्याख्या की नए सामयिक संदर्भ में जरूरत पडती है। राजेन्द्र यादव नहीं जानते रचना का अर्थ रचना के अंदर नहीं उसके बाहर होता है,समाज में होता है,पाठक में होता है। वर्तमान में होता है। रचना का अर्थ यदि पाठ के भीतर होता तो एक ही रचना की विभिन्न किस्म की व्याख्याएं न होतीं। व्याख्याओं में परिवर्तन न आया होता। राजेन्द्र यादव जबाव दें रचनाकार किन चीजों पर लिखता है क्या वह जिन चीजों पर सहमत होता है उन पर लिखता है अथवा जिन चीजों को अस्वीकार करता है, असहमत होता है,उन पर लिखता है। राजेन्द्र यादव जानते हैं कि रचनाकार उन विषयों और विचारों पर लिखता है जिन्हें वह अस्वीकार करता है। जिन्हें वह स्वीकार करता है उन पर नहीं लिखता। राजेन्द्र यादव किसी प्रमुख ब्राह्मण कवि की रचना का उल्लेख करें जिसने ब्राह्मणवाद की हिमायत की हो।
साहित्य या कला में दाखिल होते ही जाति,नस्ल,धर्म आदि सभी किस्म की पहचान या अस्मिताएं साहित्य की विराट अस्मिता में विलीन हो जाति हैं, साहित्य और कला में आने के बाद विषयवस्तु, चरित्र,व्यक्तित्व,व्यवस्था अपना रूपान्तरण कर लेती है, अब सृजन है,सृजन में सेक्स, कामोत्तेजना, जाति,लिंग आदि की पहचान साहित्य या कला की पहचान में विलीन हो जाती हैं, लिखने के पहले विषय की जो भी अवस्था हो लिखने के बाद वह पूरी तरह बदल जाता है।लिखे हुए का अर्थ पढते समय बदल जाता है। क्योंकि अर्थ पाठ में नहीं पाठ के बाहर पाठक में होता है। सवाल पुराना है जबाव दो राजेन्द्र यादव अर्थ कहां होता है ? वरना साहित्य लीला बंद करो।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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जगदीश्वर चतुर्वेदी का अपराध यह है कि वे हिन्दी जगत में कुछ ऐसे प्रश्न उठाने की कोशिश कर रहे हैं जिसके लिए हिन्दी जगत तैयार नहीं दिखलाई पडता. हर मामला अगर व्यक्तिगत बनाकर छोड दिया जायेगा तो बहस का जो स्वरूप होगा वही हो जाता है. जगदीश्वर इस चिट्ठे में जो बुनियादी सवाल उठा रहे हैं वह है पाठ और उसके अर्थ का. यहां किस प्रोफेसर ने किसका शोषण किया इस बात को लाने का प्रयोजन ?
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र यादव समेत बहुत सारे बुजुर्ग लेखक नामवर सिंह की लोकप्रियता और उनके विवादों के केन्द्र में रखने की क्षमता के सामने अक्षम हो जाते हैं. ऐसे में वे जाति के नाम पर बहुत ही शानदार हथियार लेकर सूरमा बन बैठे हैं. वे इतिहास मूर्ख हैं यह कहना ठीक नहीं लेकिन जिस आधार पर वे ब्राह्मणों के विशेष गुण – अमूर्त को व्यक्त /साधने की क्षमता आदि- के कायल हो जाते हैं. इस बहाने वे तमाम गैर ब्राह्मण कवियों को हथियार दे देते हैं. अब कोई बडा कवि नहीं बनता है तो सीधा सा कारण है कि वह ब्राह्मण नहीं है और बैठे बैठे निठल्ला चिंतन करने वाली श्रेणी से नहीं आता.
महाराज, कम से कम यह तो सोचा होता कि दूसरे देशों के जो कवि हैं उनपर यह लाजिक क्यों नहीं लगता? क्या भारत की मिट्टी में ऐसा कुछ है कि यह लाजिक सिर्फ यहीं चलता है?
सोशियालाजी में एक फंक्शनलिस्ट स्कूल हुआ करता है जो यह मानता है कि कोई चीज अगर किसी समाज में है तो उसके कारण हैं (वाजिब कारण ). इस दृष्टि के प्रभाव को समझने के लिए यह देखिए कि खुद जगदीश्वर ने यह लिख दिया है कि वेद ब्राह्मणों ने लिखा है! जब वेद लिखे गये थे ब्राहमण कहां थे? वेद व्यास, आदि क्या दुबे चौबे के पूर्वज थे? क्या ऋग वेद कालीन समाज में ब्राहमण जन्म के आधार पर होते थे? कम से कम हमलोग यह नहीं मान सकते कि भारत के समस्त प्राचीन ग्रंथों के रचयिता ब्राहमण लोग थे. कृपया उन्नसवीं सदी में प्राचीन भारत की खोज पर फिर से विचार करिए. (बर्नार्ड कोन से लेकर उपिंदर सिंह की पुस्तकें इस मामले में सहायक हो सकती हैं). ब्राहमण जाति के भीतर जो समय के हिसाब से परिवर्तन हुए हैं दुर्भाग्य से इस पर बहुत सोचा नहीं जाता. बिहार के सबसे बडे जमींदार ब्राहमण थे इस बात को भी याद रखिए और बी पी मण्डल (यादव) बहुत बडे जमींदार परिवार के थे. हजारों ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाति परिवर्तन शील है. जाति का क्रिस्टिलाइजेशन औपनिवेशिक कालीन परिघटना है. पर इस ओर जाने से बहुत पढना लिखना पडेगा. कौन जाये. क्यों न सीधे सीधे पहचान को जाति से जोडो और लाठी लेकर कूद पडो. डेमोक्रेसी है, संख्या बल हमारे साथ है जीत हमारी होगी. एडवर्ड सईद का हवाला कई बार दिया जाता है लेकिन आपको याद हो कि खुद सईद ने भारत आने पर अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘आइडेंटिटी बोर्स मी’. इतना तंग आ गये थे उनकी बात को पक़ड कर पहचान के प्रश्न के स्थूलीकरण से !
निवेदन है कि इस बात को देखें कि मूल प्रश्न यह है कि रचना का अर्थ रचना में है या पाठेतर संदर्भों में?
मैं जगदीश्वर चतुर्वेदी से इस बात में सहमत नहीं हूं कि पाठ का अर्थ प्राप्त करने के लिए पाठ से बाहर जाना अनिवार्य है. पाठ के अध्ययन की कई प्रविधियां हैं और आप पाठ को खोलकर उसके अर्थों की एक श्रृंखला पा सकते हैं. मुझे इस सन्दर्भ में एक निवेदन अन्य विद्वान मित्रों से करना है कि सवालों को देखें सवाल करने वाले कभी कभी सही सवाल को थोडे अटपटे ढंग से भी रखें तो भी सवाल को ही महत्त्वपूर्ण मानें, सवाल करने वाले को नहीं. जगदीश्वर एक साथ उन महानों की महानता के सामने प्रश्न खडे कर रहे हैं जो सामने मंच पर भिडते दिखाई पडते हैं लेकिन आपस में उनके बीच एक गहरा रिश्ता है. क्या कारण है कि हिन्दी में अभी भी ये सत्तर अस्सी पार के लोग एजेंडा सेट कर रहे हैं और वो भी बगैर ज्यादा मशक्कत के?