बुद्धिजीवी स्वभाव से ठलुआ होता है। भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवी का ठलुआपन अब और भी परेशानी पैदा कर रहा है। यह पढा लिखा अनपढ है। उसने अपनी अपडेटिंग बंद कर दी है। संचार क्रांति के लिए जरूरी है इस ठलुआ बुद्धिजीवी की चौतरफा धुनाई। जिस तरह शिक्षित न होना अपमान की बात मानी जाती थी उसी तरह साइबर शिक्षित न होना भी अपमान की बात है। हमारे पिछडेपन का संकेत है। साइबर पिछडेपन पर वैसे ही हमला बोलना चाहिए जैसे निरक्षरता पर हमला बोलते हैं। निरक्षरता सामाजिक विकास की सबसे बडी बाधा थी तो साइबर निरक्षरता महाबाधा है। साइबर बेगानेपन को किसी भी तर्क से वैधता प्रदान करना देशद्रोह है,सामाजिक परिवर्तन के प्रति बगावत है। इसे किसी भी तर्क से गौरवान्वित नहीं किया जाना चाहिए। अखबार और पत्रिका का संपादक है वह गर्व से कहता है हम कम्प्यूटर पर नहीं लिखते,हम इंटरनेट पर नहीं लिखते। सवाल किया जाना चाहिए क्यों नहीं लिखते ? कम्प्यूटर पर नहीं लिखना,इंटरनेट पर नहीं पढना और नहीं लिखना निरक्षरता है। निरक्षरता पर हमारे बुद्धिजीवी को गर्व नहीं करना चाहिए। बल्कि उसे शर्म आनी चाहिए।
कम्प्यूटर लेखन,इंटरनेट लेखन नये युग की साक्षरता है। अक्षरज्ञान पुराने युग की साक्षरता थी जो आज सामाजिक और बौद्धिक विकास के लिए अपर्याप्त है। साइबर निरक्षर वैसे ही होता है जैसा निरक्षर होता है। कॉलेज,विश्वविद्यालयों से लेकर स्कूलों में पढाने वाले शिक्षक अपने साइबर अज्ञान का महिमामंडन करते रहते हैं। आज के युग में साइबर अज्ञानी और कम्प्यूटर पर लिखने से परहेज करने वाला लेखक बुनियादी तौरपर निरक्षर लेखक है।
साइबर संस्कृति का तेजी से विकास हो रहा है। हम चाहें या न चाहें साइबर संस्कृति हमारे घर आ गयी है। साइबर संस्कृति के घर आने के साथ ही साइबर भाषाएं भी घर में आने के लिए दस्तक दे रही है। भारतसरकार की मदद से सभी 22 भाषाओं के फॉण्ट मुफत में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। भारत सरकार ने भारतीय भाषाओं के फाण्ट और यूनीकोड सिस्टम के विकास पर तकरीबन 1300 करोड रूपये खर्च किए हैं। जाहिर है भाषा के निर्माण में अब तक का यह सबसे बडा निवेश है। इसके दूरगामी सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक परिणाम सामने आएंगे। भारत सरकार ने हाल ही में अपने एक फैसले के तहत बीस हजार कॉलेजों और पांच हजार शोध संस्थानों को 'सूचना,संचार और तकनीकी मिशन' के तहत ब्रॉडबैण्ड सुविधा मुहैयया कराने का फैसला किया है। इसके अलावा आज भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के फाँण्ट मुफत में उपलब्ध हैं। कल बंगलौर में बांग्ला,कोंकणी, संथाली, सिन्धी और मणिपुरी भाषा के साफटवेयर को जारी करने बाद आज भारत की सभी 22 भाषाओं में कम्प्यूटर लेखन की व्यवस्था उपलब्ध हो गयी है। इसे आसानी से www.ildc.in से डाउनलोड किया जा सकता है। अभी तक भारतीय भाषाओं के सात लाख सीडी डाक से भेजे जा चुके हैं। तकरीबन 39 लाख लोगों ने इंटरनेट से डाउनलोड किया है। भारत की जनसंख्या और संभावित कम्प्यूटर यूजरों के लिहाज से यह संख्या बहुत ही कम है। भारतीय भाषाओं के मुफत साफटवेयर की उपलब्धता के कारण इन भाषाओं का इंटरनेट पर इस्तेमाल और भी तेजी से बढेगा। केन्द्र सरकार की योजना के अनुसार प्रति छह गांवों में से एक गांव में 'कॉमन सर्विस सेंटर' खोला जाएगा,जिसके जरिए जनता को स्थानीय भाषा में ईमेल करने की सुविधा उपलब्ध होगी। इस प्रक्रिया में स्थानीय भाषाओं में कम्प्यूटर का इस्तेमाल तेजी से बढेगा।
भारतीय भाषाओं के कम्प्यूटरी रूपान्तरण की प्रक्रिया बेहद धीमी और गैर शिरकत वाली है फलत: भारत में अभी भी कम्प्यूटर भाषा में दुरूस्तीकरण धीमी गति से चल रहा है। अनेक भाषाओं के साफटवेयरों के बारे में शिकायतें भी आ रही हैं। ये शिकायतें जायज हैं, लेकिन इनका समाधान तब ही संभव है जब बुद्धिजीवियों खासकर भाषायी बुद्धिजीवियों की कम्प्यूटर भाषा के दुरूस्तीकरण में दिलचस्पी पैदा हो। वे 'ई साक्षर' बनें। भाषायी बुद्धिजीवी अभी तक कम्प्यूटर का न्यूनतम प्रयोग करते हैं। वे अभी भी कलम -कागज के युग के आगे नहीं जा पाए हैं। कम्प्यूटर लेखन को युवाओं का खेल मानते हैं। ब्लागरों को छिछोरा मानते हैं। ज्यादातर बुद्धिजीवी अभी भी कम्प्यूटर सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते।वे साहित्य को तो मानते हैं और जानते हैं लेकिन 'ई' साहित्य को लेकर उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य, मीडिया, रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देती है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करती है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है।
अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर पर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं। शिक्षितों की अज्ञानता का जब यह आलम है तो आम छात्रों तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा ? जरूरत इस बात की है कि 'ई' साक्षरता और 'ई' लेखन को नौकरीपेशा शिक्षकों और वैज्ञानिकों के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। जो शिक्षक ,शोधार्थी और वैज्ञानिक नियमित 'ई' लेखन नहीं करे उसकी पगार,स्कालरशिप,तरक्की,इनक्रीमेंट रोक लेने चाहिए। जो लोग भारत सरकार का बौद्धिक उत्पादन के लिए धन पाते हैं उन्हें बदले में अपने विषय में 'ई' लेखन के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। भारत की नयी ज्ञान संपदा का बडा हिस्सा अभी भी अंग्रेजी में आ रहा है अत: हमारे बुद्धिजीवियों को अपनी भाषा में कुछ न कुछ सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध करानी चाहिए। हमें यह भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ कि जगदीशचन्द्र बोस,सत्येन्द्रबोस जैसे महान वैज्ञानिक बांग्ला में भी विज्ञानलेखन कर लेते थे और आज अमर्त्यसेन जैसा लेखक अपनी मातृभाषा में एकदम नहीं लिखता। अपनी भाषा के प्रति बुद्धिजीवी के इस बेगानेपन से हमें लडना चाहिए।
(मोहल्ला लाइव पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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