साइबर संस्कृति से परहेज करने वालों की इन दिनों शामत आयी हुई है।प्रभाष जोशी-राजेन्द्र यादव जैसे बडे लेखक जो नेट से नफरत करते हैं अथवा नेट पर लिखे को संवाद योग्य नहीं समझते,उनकी दिमाग की नसें तनी हुई हैं। वे नेट से होने वाले हमलों से घायल हैं और कराह रहे हैं। साइबर घायलों का कहीं इलाज नहीं होता, कोई अस्पताल उनकी केयर नहीं करता।यहां तक कि गांठ की बुद्धि भी काम नहीं देती।समझ में ही नहीं आता कि नेट पर इतने ताबडतोड हमले के पीछे राज क्या है ? वह भी ऐसे लेखकों से जिनका साहित्य और पत्रकारिता में कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। नेट लेखकों का यदि जमीनी स्तर पर कहीं कुछ दांव पर लगा हो तो वे अपने लगुए-भगुओं से कहकर ठीक भी करा दें। लेकिन इस नेट का क्या करें इसने तो रातों की नींद और दिन का चैन हराम कर दिया है। नेट पर इन दोनों महानुभावों के बारे में कोई तीखी आलोचना प्रकाशित होती है,तुरंत भक्तगण दौडे जाते हैं,महाराज कुछ करो ये चुप नहीं हो रहे। वे दोनों अपने भक्तों से कहते हैं जाओ और धावा बोल दो। धावा बोलने के चक्कर में कुछ लोग वापस अपने घर आकर सो जाते हैं। जिनकी मजबूरी है वे उल्टी सीधी टिप्पणियां लिखकर अपने गुरू के प्रति दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं।
प्रभाष जोशी-राजेन्द्र यादव को 'हिंदीयुगल' कहना ठीक होगा। इन दोनों की तान को जिस तरह नेट ने बेताला किया है उसने नेट लेखन और प्रिंट लेखन से जुडे कुछ बडे सवालों को उठा दिया है। 'हिंदीयुगल' पर हुए हमले का पहला सबक है नेट का हमला स्थानीय नहीं ग्लोबल होता है। 'जनसत्ता' या 'हंस' को स्थानीय पाठक पढते हैं । नेट को ग्लोबल पाठक पढ़ते हैं। दूसरा सबक ,नेट लेखन और इमेज वर्षा अंतत: वर्चुअल यथार्थ है,यथार्थ नहीं है। इसकी यथार्थ से संगति खोजना बेवकूफी है।
नेट लेखन,इमेज,भाषा,प्रतीक आदि किसी को भी पढने,लिखने और समझने के लिए हमें वर्चुअल रियलिटी से वाकिफ होना होगा। यह लेखन और इमेज का रेगिस्तान है। लेखन के रेगिस्तान के नियम वैसे ही होते हैं जैसे रेगिस्तान के होते हैं। लेखन के रेगिस्तान में लिखे को देखकर हिंदी के इन लेखकों के भक्तों को यह भी लगा कि इस प्रक्रिया में कोई 'फेक' लिख रहा है। मजेदार बात यह थी कि अनेक 'फेक' नाम से बहस में राय भी दे रहे थे, इससे 'फेक' जैसा भी रहा था। नेट लेखन का 'फेक' लगना और अखबार लेखन का वास्तव लगना यह अपने आपमें आनंद की चीज है।
जब नेट पर बहस चल निकली तो बेलगाम थी। जिसके मन में जो आ रहा था लिख रहा था। कोई अनुशासन नहीं,कोई संपादक नहीं।कोई सेंसरशिप नहीं। सब कुछ पारदर्शी वर्चुअल था। बहस में बार बार विषयान्तर हो रहा था लोग बहस को पकड़कर मुद्दे पर ला रहे थे और बार-बार बहस हाथ निकली जा रही थी और यही नेट के रेगिस्तान की खूबी है। जैसे रेगिस्तान में अंधड मिट्टी के टीले को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह ले जाता है ठीक वैसे ही नेट लेखन चीजें जहां हैं वहां नहीं रहने देता। सबवर्सिब भूमिका अदा करता है।
नेट की बहसों में लेखकगण निजी कल्पनाशीलता के आधार पर शिरकत करते हैं। यथार्थ के आधार पर शिरकत नहीं करते हैं। विभिन्न वेबसाइट वालों ने प्रभाष जोशी के रविवार डॉट कॉम वाले साक्षात्कार को प्रकाशित करके उस पर जब बहस चलायी और यूजरों से प्रतिक्रियाएं मांगी तो प्रभाष जोशी का साक्षात्कार बार-बार उनकी बडी ही त्रासद छवि बना रहा था। पढने वाले प्रभाष जोशी को बडे ही दुखी भाव से देख रहे थे और मन ही मन कह रहे थे प्रभाषजी आपने ऐसा क्यों कहा। यदि यह सब न कहते तो इतनी फजीहत तो कम से कम नहीं होती। इस मामले में नेट लेखक रियलिटी टीवी के पैटर्न का अनुगमन करते हैं। नेट पर जो आता जो आता गया अपना राग सुनाता गया और चीजों को पारदर्शी रूप में देखता गया। आप प्रभाष जोशी के पक्ष में बोलें या विपक्ष में अंत में नाटक तो प्रभाषजोशी-राजेन्द्रयादव का ही हो रहा था। नेट लीला का यह रियलिटी टीवी रूप था,जिसमें वर्चुअल रियलिटी अपना खेल खेल रही थी। इसमें 'अच्छे' और 'बुरे' के बीच का वर्गीकरण भी चल रहा था।
नेट लेखन में सामान्य लेखन की तरह नैतिक पक्ष भी प्रच्छन्न रूप में आ धमकता है। इस पूरी प्रक्रिया से सबसे ज्यादा प्रभावित और पीडित महसूस प्रभाष-राजेन्द्र यादव और उनकी भक्तमंडली महसूस कर रही थी। नेट की शक्ति ने प्रभाषजोशी-राजेन्द्र यादव की पूरी किस्सागो क्षमता को सोख लिया था,पढने वाले तकलीफ पा रहे थे,कुछ आराम महसूस कर रहे थे। अब प्रभाषजोशी- राजेन्द्रयादव स्वयं नेट पर एक कहानी बनकर रह गए थे। वे दोनों परेशान थे कि हमने जो कहा नहीं, किया नहीं, पता नहीं कहां से खोज खोजकर हमारे आख्यान के साथ नत्थी कर दिया गया और जो आख्यान बनाया जा रहा था वह टुकडों में बिखरा हुआ था। कोई टुकडा इस वेब पर था तो कोई दूसरा टुकड़ा अन्य वेब पर था। इन दोनों की कहानी का एक हिस्सा 'क' के बयान में था तो अन्य पहलू 'ख' के बयान में था। ये दोनों महारथी अपनी नेट कहानी पहचान नहीं पा रहे थे। इन्हें अपने चेहरे और विचार अपने नजर नहीं आ रहे थे। इसी को कहते हैं नेट विपर्यय।
ये दोनों ही लेखक अपने शब्दों के असर को पहचान नहीं पा रहे थे, सोचने में असमर्थ पा रहे थे कि उनके शब्दों का इतना व्यापक प्रभाव है। जो तल्खी और गुस्सा इन दोनों पर चली बहस में सामने आया है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि शब्दों के प्रभाव को ध्यान में रखकर लिखना चाहिए। जो मन में आया बोल दिया,जो मन में आया लिख दिया, इसका कम से कम लेखक और बडे लेखक को तो खास तौरपर ख्याल रखना चाहिए। इन दोनों के लेखन पर चली बहस ने नेट पाठकों का अच्छा खासा मनोरंजन भी किया,कुछ मर्माहत हुए तो कुछ लोगों को अपना गुस्सा जाहिर करने का मौका मिला।
नेट लेखन में निज-संदर्भ,बिडम्वना,प्रामाणिकता और पुनरावृत्ति पर सबसे ज्यादा लिखा जाता है। यह उत्तर आधुनिक खेल यहां पर भी चला। जो आलोचनात्मक टिप्पणियां आयीं वे यथार्थ का अतिक्रमण करने वाली थीं। यथार्थ में इन दोनों लेखकों ने जो कहा उसकी इनके लेखन के सांस्कृतिक संदर्भ में मीमांसा की गई। प्रभाष जोशी-राजेन्द्र यादव के भक्त चाहते थे,अतीत को अतीत रहने दो उसे अब सामने लाने से क्या लाभ जबकि अन्य कह रहे थे जब बहस उनके लेखन के सांस्कृतिक संदर्भ पर हो रही है तो हमें उनके अतीत और व्यवहार को भी विवादित गद्य के साथ जोडकर देखना चाहिए। वे इन दोनों लेखकों के बहाने वर्तमान में प्रेस और समाज की दशा पर भी बातें कर रहे थे।
'हिंदीयुगल' के भक्त मानकर चल रहे थे नेट की बहस मूर्त्तिभंजन है। जबकि अन्य ऐसा नहीं मानते। इस बहस में सब कुछ निर्मित था,कुछ भी स्वाभाविक नहीं था,इन दोनों का इतिहास भी निर्मित था। हम असल में यथार्थ लेखकों से मुठभेड निर्मित लेखक के जरिए कर रहे थे। उसका वैकल्पिक इतिहास भी बना रहे थे। वर्चुअल रियलिटी का नियम है कि जब तक लोग हजम नहीं कर लेते तब तक समझो कुछ नहीं हुआ है। प्रभाष जोशी-राजेन्द्र यादव को जब लोगों ने हजम कर लिया तब ही पता चला कि आखिर हुआ क्या है ?
'हिंदीयुगल' का वैकल्पिक इतिहास वह है जो यूजरों के अनुभवों से छनकर सामने आया,इसकी हमें कम जानकारी थी। यूजरों ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों की एक-एक रेखा खींचकर जो चित्र बनाया वह वास्तव लेखक की प्रचारित इमेज से एकदम भिन्न था। यह वह इतिहास है जो इन दोनों की व्यावसायिक इमेज और प्रतिष्ठा के बाहर है। जब लोग अपनी राय दे रहे थे तो कुछ लोग प्रमाण मांगरहे थे उनसे यही कहना है कि प्रमाण तो लिखित पंक्तियां ही हैं।इस प्रक्रिया में इन दोनों के बारे में बना हुआ भक्ति का प्रभामंडल नष्ट हुआ । नेट लेखन मूलत: प्रभामंडल नष्ट करता है। यदि आपने भक्ति भाव से लिखा है तो यूजर उसे कभी ग्रहण नहीं करेगा। नेट की बहस में यूजर अपने अनुभवों के साथ दाखिल हो रहे थे और इन दोनों के आभामंडल को नष्ट कर रहे थे। साथ ही इन दोनों की रोमैंटिक इमेज को भी इस बहस ने नष्ट किया। नेट पर सस्ती भावुकता और भक्ति अपील नहीं करती बल्कि आलोचनात्मक विवेक अपील करता है। वैकल्पिक नजरिया अपील करता है।
( मोहल्ला लाइव पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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