आप शीर्षक देखकर भड़कें नहीं,आलोचक और साहित्यकार इसे अपना निजी अपमान भी न समझें। यह सच है और सच बड़ा बेरहम होता है। 'हिंदी आलोचक' नाम की 'हिंदी प्राध्यापक','हिंदी विचारक',हिंदी लेखक',हिंदीवाला' आदि कोटियां बेहूदगियों से भरी हैं। आज हिंदी में साहित्य,आलोचना,शोध,सृजन के नाम पर जितना मलबा जमा है, उतना शायद अन्य किसी भाषा में नहीं मिलेगा। आखिरकार इस मलबे का मालिक कौन है ? इतना मलबा आया कहां से ? जब भी कोई गंभीर चर्चा शुरू होती है बिन मांगे मलबे का उत्पादन शुरू हो जाता है। आखिरकार इतना कचरा ज्ञान और वह भी दंभ, पद,शोहरत और शोहदों के साथ सांस्थानिक शक्ल कैसे लेने में सफल हो गया ? हिंदी में सबसे पहली समस्या है आप कुछ भी लिखें मामला व्यक्तिगत होकर रहेगा। किसी भी मामले को व्यक्तिगत बनाने का अर्थ है अपने ऊपर और समाज के ऊपर मलबा फेंकना। जिस समाज में इतने बड़े पैमाने पर मलबा फेंकने वाले हों ,अर्थ का अनर्थ करने वाले हों,वहां पर सभी किस्म की क्रांतियां सिर पटककर मर जाएं कुछ होने वाला नहीं है,मलबे के मालिक अपनी गंदगी पर मुग्ध हैं कि हमने उसे पछाड दिया,हमने प्रभाष जोशी को नंगा किया,नामवर को कपड़े पहना दिए,राजेन्द्र यादव को टोपी पहना दी।आलोक मेहता को बेनकाब कर दिया। इस तरह की मनोदशा में किसी भी किस्म का विवाद अंतत: मलबे में ही तब्दील होगा और हम खुश भी होते हैं कि 'हमने साले का कचरा कर दिया'।
यह हिंदी की कचरा संस्कृति है, इसे प्रतिवादी संस्कृति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। हमें प्रतिवाद करना चाहिए,लेिकन कचरा उत्पादन से बचना चाहिए। कचरा संस्कृति के उत्पादकों से उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वे सुधरेंगे,आप थक जाएंगे वे सुधरकर नहीं देंगे,वे सारे प्रसंगों को व्यक्ति बनाने की आलोचना में माहिर हैं। लेकिन जो समझदार हैं और हिंदी के उत्थान को लेकर प्रयत्नशील हैं उन्हें इस बदले परिदृश्य पर गंभीरता से सोचना चाहिए। इसके बारे में लोकप्रिय चर्चाएं होनी चाहिए। नेट इन चर्चाओं का शानदार स्थल हो सकता है। नए युग का मूल मंत्र है सार्वजनिक तौर पर बोलो अथवा गायब हो जाओ। हमें उन सभी सवालों को नए सिरे से खोलना चाहिए जिन्हें तय मान लिया गया है।
हम साहित्य और विभिन्न विधाओं के परंपरागत अर्थ को अपदस्थ करने से डरते हैं और हमेशा किसी रामचन्द्र शुक्ल या नामवरसिंह का इंतजार करते हैं कि वह अर्थ परिवर्तन कर दे। हमें अर्थ परिवर्तन से डर लगता है। हम साहित्य में विखंडन से डरते हैं और तुरंत ही हल्ला मचाना शुरू कर देते हैं देरिदा आया, देरिदा आया,भगाओ भगाओ साहित्य में विजातीय तत्व आ गया हमारी समझ विखंडन से नहीं रामचन्द्र शुक्ल से ही बनेगी।ज्यों ही आप ऐसा करते हैं मलबा फेंकना शुरू कर देते हैं और बेशुमार मलबा जमा हो जाता है और खुश होकर अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाने लगते हैं कि देरिदा को खदेड दिया। साहित्य में विखंडन का कार्य है परंपरागत अर्थ को अपदस्थ करना और यह बताना कि कृति किस तरह परंपरागत अर्थ का उल्लंघन करती है। हमारे जुझारू आलोचक जब किसी धारणा पर विचार करते हुए नया खोज नहीं पाते तो तुरंत ही हल्ला करना शुरू कर देते हैं, यह 'असंभव' है।'असंभव' का व्यापक इस्तेमाल करते हैं। हिंदी का मलबे का मालिक यह भूल ही जाता है कि ''असंभव'' का यदि विखंडन किया जाएगा तो 'संभव' निकलेगा। 'असंभव' कुछ भी नहीं है। ऐसी अवस्था में 'संभव' सबसे ज्यादा खतरनाक पदबंध साबित होगा। खतरनाक से तात्पर्य है संभव के सभी नियम , प्रक्रिया,पध्दति, और पाने के अभ्यास उपलब्ध होंगे। इस समूची प्रक्रिया में दाखिल होने का अर्थ है कुछ असंभव का अनुभव भी हो सकता है। इस अर्थ में विखंडन खोज है अथवा कुछ भी नहीं है। इसको पध्दति के रूप में ही समाप्त नहीं कर सकते। बल्कि यह रास्ते खोलता है।आगे जाने के लिए प्रेरित करता है। मसलन् 'दलित साहित्य' पर हिंदी में मच रहे हंगामे पर ही नजर डालें कि आखिरकार 'दलित साहित्य' पर विचार करते हुए 'दलित साहित्य' निकलेगा या 'साहित्य' निकलेगा ? 'स्त्री साहित्य' पर विवाद करते करते 'स्त्री साहित्य' निकलेगा या 'साहित्य' निकलेगा ? जातिवाद पर बहस करते हुए जाति निकलेगी या मनुष्य की सत्ता उभरकर आएगी ? हमारे दोस्त यह समझने की चेष्टा ही नहीं करते कि वे जिस चीज पर विवाद कर रहे हैं उससे क्या निकलेगा। ये भोले आलोचक सोचते हैं कि जिस मसले पर ,जिस नजरिए से विचार कर रहे हैं, उससे वही निकलेगा जो वह निकालना चाहते हैं। इसी तरह सोचें कि प्रभाष जोशी के साक्षात्कार पर बातें करते हुए क्या निकलेगा ? मंथन की प्रक्रिया चीजों,विचारों,मूल्यों और स्थितियों को वे जैसी हैं वैसा नहीं रहने देतीं। मलबे के मालिक चाहते हैं कि मलबे को मलबा रहने दो, दोस्त कचरा जब रिसाईकिंलिंग प्लांट में पुनर्संशोधन प्रक्रिया में चला जाता है तो मलबा नहीं रह जाता, उसकी प्रकृति,उपयोग,भूमिका,लक्ष्य आदि सभी कुछ बदल जाते हैं। हिन्दी वाले मलबे के मालिक बडे ही जिद्दी स्वभाव के हैं वे यह मानकर बैठे हैं कि हम नहीं बदलेंगे। बहस करते समय हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि आखिरकार पहुंचना कहां है ?
( मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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