डिजिटल तकनीक आने के बाद संस्कृति का आसान ऊँचा हुआ है,संस्कृति दीर्घायु हुई है।संस्कृति के प्राचीन रूपों के पुनरूत्थान की संभावनाएं प्रबल हुई हैं। इसने संस्कृति और तकनीकी के बीच मित्रता को और भी प्रगाढ़ बनाया है।वे लोग जो संस्कृति और तकनीकी में तनाव और अन्तर्विरोध देखते रहे हैं,आज वे भी डिजिटल के जादू पर मंत्रमुग्ध हैं।तकनीकी और संस्कृति के अन्त:संबंध पर विचार करते हुए हमेशा यह समस्या रही है कि बौध्दिकों का एक बड़ा हिस्सा तकनीकी के विकास का अंध विरोधी रहा है।किंतु डिजिटल के आने के बाद वे भी चुप हैं और डिजिटल के जरिए पुरानी संस्कृति के नवीकृत रूपों का आनंद ले रहे हैं। तकनीकी और संस्कृति के अन्त:संबंध पर विचार करते समय तथ्य ध्यान रखें कि ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं,साथ ही इनका स्वायत्ता संसार भी है।हम ऐसी संस्कृति की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें तकनीकी का इस्तेमाल न किया गया हो, इसी तरह हम ऐसी तकनीकी की कल्पना नहीं कर सकते जिसके निर्माण में संस्कृति की निर्णायक भूमिका न रही हो। यह बात दीगर है कि शोषण पर टिकी व्यवस्थाओं में शासकवर्ग तकनीकी और संस्कृति के बीच कृत्रिम टकराव पैदा करते हैं और दोनों को ही अपने अधिकार में ले जाता है। किंतु बौध्दिकों,संस्कृतिकर्मियों और साहित्यकारों में जैसे-जैसे तकनीकी और संस्कृति के अन्त:संबंध को लेकर पुख्ता समझ बनती चली जाती है,तकनीकी और संस्कृति दोनों ही वर्चस्वशाली ताकतों के खिलाफ संघर्ष का हथियार बनती चली जाती हैं।इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम डिजिटल युग में संस्कृति की अवस्था, रूपों,समस्याओं और संभावनाओं पर गंभीरता से विचार करें तो अनेक नए तथ्यों से दो-चार होना पड़ेगा।
साइबर स्पेस वैकल्पिक चेतना है।यह दूसरी प्रकृति है। अब लोग 'साइबोर्ग' होते जा रहे हैं। साइबर स्पेस में खोजते रहते हैं,विचरण करते हैं, पढ़ते हैं ,आनंद लेते हैं, अपनी इच्छित इमेज बनाते रहते हैं। आज व्यक्ति के अस्तित्व के लिए अनंत विकल्प सइबर स्पेस दे रहा है। ये विकल्प मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में उदार बना रहे हैं। साइबर स्पेस में विचरण करने का अर्थ है संकीर्णता की मौत । यहां निर्मिति पर जोर है। एक जमाना था जब निर्मिति को मनुष्य के लिए औपचारिकता के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। साइबर स्पेस में अनौपचारिक प्रतिक्रिया के अर्थ में इस्तेमाल किया जा रहा है। आज हम देख रहे हैं कि कम्प्यूटर व्यक्ति की अस्मिता के निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरकर सामने आया है। कुछ लोग मानते हैं कि यह व्यक्ति की अस्मिता का मर्म भी तय कर रहा है। साइबर स्पेस के बारे में मारकोस नोवाक का मानना है कि यह ग्लोबल सूचन प्रोसेसिंग सिस्टम की सभी सूचनाओं का विशिष्ट दृश्यांकन है। वर्तमान और भविष्य का संचार नेटवर्क है। यह बहुस्तरीय यूजरों की एक साथ मौजूदगी और संपर्क का केन्द्र है। यहां सामग्री जोड़ी या घटायी जा सकती है। वास्तव जगत की नकल है।वर्चुअल रियलिटी है। इसमें दूर से डाटा संकलन किया जा सकता है।दूरसंचार के जरिए दूर से ही नियंत्रण किया जा सकता है।चीजों को अन्तर्गृथित करता है।बौध्दिकतापूर्ण मालों और माहौल को रीयल स्पेस में पहुँचाता है। साइबर स्पेस मौजूदा संपर्क रूपों के एकदम विपरीत है। यह कम्प्यूटरीकृत सूचना से युक्त है। सामान्य तौर पर हम सूचना के बाहर होते हैं। किन्तु साइबर स्पेस में हम सूचना के अंदर होते हैं। ऐसा करने के लिए हमें वाइट्स में अपना रूपान्तरण करना होता है। वाइट्स में रूपान्तरण करते ही व्यक्ति स्वयं सूचना बन जाता है। आज तक वह सूचना के बाहर था किन्तु इंटरनेट आने के बाद वह सूचना के अंदर आ जाता है। व्यक्ति का सूचना में रूपान्तरण विलक्षण परिघटना है। वाइट्स में रूपान्तरित सूचना की रक्षा के लिए ही प्राइवेसी के कानूनों की जरूरत होती है। बाइट्स में रूपान्तरित होने के बाद सूचना स्वायत्त हो जाती है। यदि वह सुरक्षा के घेरे में कैद नहीं है तो उसके दुरूपयोग की अनंत संभावनाएं हैं। सुरक्षा घेरे में रहने के कारण वह बंद रहती है। किन्तु सुरक्षा घेरा हटते ही सूचना का अन्य वस्तुओं में रूपान्तरण हो सकता है। साइबर स्पेस में सूचना की स्वायत्तता तर्क को अतर्क और अतर्क को तर्क बना देती है। यहां औपचारिकता का अनौपचारिकता में और अनौपचारिकता का औपचारिकता में रूपान्तरण्ा हो जाता है। समय की धारणा खत्म हो जाती है।सब कुछ रीयल टाइम या यथार्थ समय में घटित होता है। अब जो सिस्टम का प्रिनिधित्व करेगा वह बाइट्स बन जाता है।
साइबर स्पेस डाटा, सूचना, एवं फॉर्म आदि को डिजिटल तकनीकी में विस्तार देता है। समृध्द करता है। पृथक् करता है। अनंत संभावनाओं के द्वार खोलता है। अब हम प्रतिनिधित्व के युग में पहुँच चुके हैं। यह भी कह सकते हैं कि साइबर स्पेस कल्पना का स्वर्ग है। चरमोत्कर्ष है। यह कविता के तत्वों को भी आत्मसात् कर लेता है। रेखीय चिन्तन कविता की बुनियाद है। उसका क्रमिक स्मृति से संबंध है। इसमें प्रत्येक चीज संचित की जा सकती है। किन्तु इसे खोजने के लिए समय की जरूरत होगी। अत: इसके लिए चिर-परिचित रणनीति अपनायी जाती है। जिससे सूचना हासिल की जा सके। साइबर स्पेस वह जगह है जहां सचेत स्वप्न और अचेत स्वप्न की मुलाकात होती रहती है। यह तर्कपूर्ण जादू की दुनिया है। रहस्य का तर्क है। यह दरिद्रता के ऊपर कविता की विजय है।
साइबर स्पेस तेजी से फैल रहा है।उसकी स्वायत्त दुनिया है। साइबर स्पेस का आज कोई भी विवाद जब उठता है तो उसे एकाकी फिनोमिना के रूप में देखा जाता है। साइबर में स्थानीयता का अभाव है। क्योंकि उसके नेट के दायरे में सारा भूमंडल आता है। कुछ देश आज भी यह सोचते हैं कि इस भूमंडलीय नेटवर्क से काटकर अपना विकास कर लेंगे। उसके प्रत्येक कार्यक्रम की जांच करेंगे। उस पर निगरानी रखेंगे। जो आपत्तिजनक साइट हैं उन्हें प्रतिबंधित करेंगे। ये सारी चीजें असंभव हैं। प्रसिध्द संचार शास्त्री निकोलस नीग्रोपॉण्टी ने लिखा है कि कानूनी नियंत्रण हमेशा स्थानीय होता है। चूंकि यह माध्यम विकासशील है अत: इसके बारे में कोई भी कानून स्थायी तौर पर बनाना असंभव है। इसके विपरीत कानून स्थानीय होते हैं। उनमें स्थानवश भेद होता है। किंतु साइबर स्पेस का मामला थोड़ा भिन्न है। साइबर स्पेस भू-राजनय जगत नहीं है। बल्कि टोपोलॉजी है। यह टोपोग्राफी नहीं है। इसका कोई कायिक आधार नहीं है। यही वजह है कि डिजिटल युग में संप्रभुता बेमानी है। अर्थहीन है। संप्रभुता की असली परीक्षा श्लील अथवा अश्लील के आधार पर संभव नहीं है। नैतिकता के आधार पर नहीं होती। बल्कि पैसे के आधार होती है। सवाल यह है कि डिजिटल से लोग कितना कमाते हैं। जो जितना ज्यादा कमाता है वह अपने राष्ट्र की पहचान से जुड़ने लगता है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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