आज विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर की टिप्पणी चर्चा में है। ऐसा क्यों है कि एक मंत्री का साधारण आदमी से बात करना भी नीतिगत समझ माना जाए,क्या एक मंत्री को अपनी निजी बातचीत का हक नहीं है, क्या तकनीक हमारे बोलने के हक को छीन लेती है,क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सही टिप्पणी की, इस सभी सवालों के जबाव इस तथ्य पर निर्भर करते हैं कि आपकी संचार तकनीक की क्या समझ है।
संचार तकनीक समानतापंथी होती है। सबको शिरकत का समान अवसर देती है। इसका इस्तेमाल करते समय चिन्तित या परेशान होने की जरूरत नहीं है। तकनीक को भय की भाषा में नहीं समझा जा सकता। अब तक संचार तकनीक के मानव सभ्यता ने जो खेल देखे हैं वे यही संदेश देते हैं कि तकनीक से बडा समानतावादी कोई नहीं है। संचार तकनीक उन सबकी मदद करती है जो इसमें शिरकत करते हैं,चाहे उनकी विचारधारा कुछ भी हो, वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों। किसी भी जाति या नस्ल के हों। तकनीक सबकी होती है और सबकी मदद करती है। संचार तकनीक अपनी शिरकत वाली भूमिका के कारण लोकतंत्र का सबसे प्रभावशाली अस्त्र भी है।
संचार तकनीक की सर्वोत्तम कृति है इंटरनेट। इंटरनेट के आने के बाद तो तकनीक की शिरकत वाली भूमिका अपने चर्मोत्कर्ष पर दिखाई दे रही है। तकनीक तब ही लोकतांत्रिक भूमिका अदा करती है जब वह सहज रूप से आम लोगों की पहुँच के दायरे में हो। समाज में धीरे धीरे डिजिटल विभाजन कम हो रहा है। डिजिटल संचार तकनीक आज साधारण आदमी के पास पहुँच रही है,हो सकता है अगले पांच-दस सालों में यह विभाजन गुणात्मक रूप से कम हो जाए। क्योंकि डिजिटल जगत में प्रवेश और शिरकत को विभिन्न स्रोतों के जरिए बढावा दिया जा रहा है।
हाल ही में 'माई स्पेस' बनाम 'फेसबुक' के बीच की बहस सामने आई है। सारी दुनिया में 'माईस्पेस' से 'फेसबुक' जाने वालों की तादाद में इजाफा हो रहा है। दो सप्ताह पहले 'कॉम स्कोर' ने अमरीका में 'माईस्पेस' और 'फेसबुक' के बारे में आए बदलावों के बारे में आंकड़े जारी किए हैं। इन आंकड़ों को देखकर यही लगता है कि 'माई स्पेस' के अब दिन लद गए हैं और लोग तेजी से 'फेसबुक' में जा रहे हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि 'माई स्पेस' के यूजरों के आंकडों में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि 'फेसबुक' में जाने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है जबकि 'माईस्पेस' के यूजरों की तादाद जितनी विगत वर्ष थी वह आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। अमरीका में 70 मिलियन लोगों ने 'माईस्पेस' की यात्रा की। यह संख्या बहुत बड़ी है। आज यह भी माना जा रहा है कि 'माई स्पेस' बंद गली है,कठमुल्लेपन का रास्ता है, घेटो है। इसकी तुलना में 'फेसबुक' खुला मार्ग है। यहां आप ज्यादा खुला संवाद करते हैं। आदान-प्रदान करते हैं। भारत में 'माईस्पेस' में ज्यादा रमण कर रहे हैं आम यूजर। जबकि अमरीका में 'माईस्पेस' और 'फेसबुक' की तगडी प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है। तमाम किस्म की सोशल साइटस 'माईस्पेस' में चल रही हैं जहां लोग मिल रहे हैं, आदान प्रदान कर रहे हें। लेकिन 'फेसबुक' में बडे ग्रुप बन रहे हैं। भारत में बड़े ग्रुप अभी बनने शुरू नहीं हुए हैं। अभी हमारे यूजर 'माईस्पेस' में रमण कर रहे हैं,खासकर तरूणों का बड़ा तबका है जो रमण कर रहा है। 'माईस्पेस' में व्यक्तिगत संवाद ज्यादा हो रहा है। जबकि 'फेसबुक' में व्यापक सामाजिक संवाद हो रहा है। अमेरिका में स्कूली बच्चों के पूरे के पूरे स्कूल 'फेसबुक' में जा रहे हैं एक ही कक्षा के विद्यार्थी एक निबंध की तरह तरह से व्याख्याएं कर रहे हैं, उनके सवालों के जबाव विद्वान लोग दे रहे हैं। निबंध की व्याख्या में विद्वानों के गुटों का शामिल होना, एक बृहत्तर विमर्श को जन्म दे रहा है।
इंटरनेट की दुनिया में 'माईस्पेस' पहले आया बाद में 'फेसबुक' आया। जो लोग 'माईस्पेस' का इस्तेमाल कर रहे थे वे पूरी तरह बोर हो चुके थे ऐसे में 'फेसबुक' का पदार्पण हुआ तो चीजें दूसरी दिशा में आकर्षित करने लगीं। अपनी अभिव्यक्ति की सीमाओं को तोड़ने के लिए लोग तेजी से 'फेसबुक' की ओर मुखातिब हुए हैं। भारत में 'माईस्पेस' का युवा ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। न्यूनतम लोग हैं जो 'फेसबुक' में दाखिल हुए हैं। तुलना करें तो पाएंगे 'माई स्पेस' खतरों के खिलाड़ियों का संसार है जबकि 'फेसबुक' कल्पना का स्वर्ग है। विदेश राज्यमंत्री की टिविटर में लिखी प्रतिक्रिया उस खतरे के संसार की झलक मात्र है बाकी जो लोग उसमें रमण करते रहते हैं वे खूब आनंद भी लेते हैं और अनेक लोग हैं ,खासकर तरूणों को अनेक बार खतरों का भी सामना करना पड़ता है।
तरूणों द्वारा जिस भाषा का 'माईस्पेस' में इस्तेमाल किया जा रहा है वह चौंकाने वाली है। इसके विपरीत 'फेसबुक' में भद्रता का साम्राज्य है। 'माईस्पेस' की समूची संस्कृति को काले लोगों के प्रतिवादी स्वरों ने घेर लिया है, वहां भाषा,संस्कृति,राजनीति,पापुलर कल्चर आदि के क्षेत्र में भाषायी ताण्डव चल रहा है उसे देखकर पंडितों की हवा निकली हुई है। हिंदी के कई ब्लाग और वेबसाइट हैं जहां पर हिंदीप्रेमियों की आक्रामक भाषा देखकर किसी भी विद्वान का मन खट्टा हो सकता है और कोई विद्वान् यह सहज ही तय कर लेगा कि अब मैं इंटरनेट पर संवाद करने नहीं जाऊँगा ।
पिछले दिनों नामवर सिंह,राजेन्द्र यादव और प्रभाष जोशी के लिखे को लेकर जो बहस चली है उसने भाषा के भदेस रूपों को इतने आक्रामक रूप में व्यक्त किया है कि पंडितों के होश उड़े हुए हैं। कुछ लोग जो अपने ब्लाग पर लिखते थे वे डरकर लिखना बंद कर चुके हैं।यह बहुत ही अच्छा भाषिक अध्ययन होगा कि किस तरह की हिंदी नेट के विभिन्न रूपों में इस्तेमाल की जा रही है। उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है। तरूणों की भाषा में अस्वीकार का स्वर प्रबल रहा है। इनमें ज्यादातर ऐसे भी हैं जो प्रविलेज सामाजिक पृष्ठभूमि से नहीं आए हैं और जीवन की कठिन जद्दोजहद करते रहे हैं। जाहिर है ऐसी पृष्ठभूमि से आने वाले तरूणों की भाषा में आक्रोश,अविश्वास और अनास्था के स्वर ज्यादा व्यक्त होंगे, इसकी तुलना में जो संपन्न है और प्रविलेज अवस्था में हैं उनकी भाषा में शालीनता ज्यादा व्यक्त होती है। सम्पन्न और विपन्न के बीच की भाषा का यह अंतर इंटरनेट पर साफ दिखाई देता है। यह भाषिक अंतर 'माई स्पेस' के द्वारा सृजित संस्कृति का अभिन्न अंग है। इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइट को लेकर तरूणों में यह दुविधा रहती है कि उन पर जाएं या न जाएं। चाटरूम में जाएं या न जाएं,जाएं तो किस भाषा में बात करें। 'माई स्पेस' में जाने वाले रमण करने वाले जानते हैं कि 'जैसी चौखट होती है वैसे ही किबाड़ फिट होते हैं।' यूजर की जैसी अभिरूचि है वह वैसे ही लोगों से बातें करता है,नेट पर मिलता है। अभिरूचियों का संसार आपकी सामाजिक पृष्ठभूमि से भी जुडा है,उम्र से भी जुडा है। फलत: सिर्फ अभिरूचियां ही नहीं अन्य चीजें भी प्रकारान्तर से आपके संसार में दाखिल हो जाती हैं।
इंटरनेट मौजूदा सामाजिक यथार्थ का आईना है । प्रचलित सामाजिक गतिशीलता की अभिव्यक्ति भी है। फलत: वह ऐसे वैविध्यमय यथार्थ को व्यक्त कर रहा है जिसे पहले कभी देखा ही नहीं गया है। इंटरनेट के संसार में जाति और नस्ल के भेद अब चौंकाते नहीं हैं। यहॉं पर जिन लोगों को हम बातें करते पाते हैं ,भावनात्मक आदान प्रदान करते पाते हैं,वे साक्षात रूप में कभी एक दूसरे से नहीं मिलेंगे। यानी जो भावनात्मक स्पेस में सहभागिता निभा रहा है वह सामाजिक अथवा कायिक स्पेस में सहभागिता नहीं निभा रहा होता है। कायिक स्पेस और भावनात्मक रूप में अलग बने रहते हैं।
'फेसबुक' में जाने वाले आमतौर पर अभिजन ही हैं,ये वे लोग हैं जो आम जनता के साथ ,विभिन्न किस्म के जनसमूहों के साथ संवाद करना चाहते हैं। कोई भी राजनेता जो सार्वजनिक जीवन में है और कम्प्यूटर तकनीक के प्रयोगों से वाकिफ है उसके लिए 'फेसबुक' एक अच्छा माध्यम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं 'फेसबुक' में नहीं जाते किंतु उनके सहकर्मी मंत्री यदि उसमें शामिल होते हैं तो उन्हें कोई एतराज भी नहीं है। 'फेसबुक' का संवाद अनौपचारिक संवाद है। यह वैसा ही संवाद है जैसा अमूमन नेतागण अभी बैठक में मिलने वालों ,दोस्तों और परिचितों में करते हैं, और उस दौरान वे अनेक ऐसी भी बातें करते हैं जिनका सार्वजनिक तौरपर कभी उद्घाटन करना संभव नहीं होता। ये 'ऑफ द रिकार्ड ' बातें होती हैं और इन पर कभी सार्वजनिक विवाद नहीं होता। लेकिन 'फेसबुक' ने निजी बैठकों में होने वाली अनौपचारिक चर्चाओं को सार्वजनिक कर दिया है। ये व्यक्तिगत संवाद की कोटि में आती हैं। इनमें किसी भी किस्म की राजनीति,नीति, औपचारिकता खोजना बेवकूफी है। इसी चीज को मद्देनजर रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने विदेशराज्यमंत्री की तथाकथित टिप्पणी पर कोई भी अनुशासनात्मक कार्रवाई करने से मना कर दिया। स्वयं विदेश राज्यमंत्री ने अपनी टिप्पणी के लिए माफी मांग ली। लेकिन कांग्रेस जैसे तकनीकी ज्ञान संपन्न दल और उसके प्रवक्ता ने शशिथरूर की आलोचना करके अपनी राजनीतिक और नेट तकनीक संबंधी अपरिवक्पता का ही परिचय दिया है।
भारतीय राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे आम जनता के साथ खुलकर संवाद नहीं करते,संचार क्रांति अभी उनके दफ्तर में भी पूरी तरह घुस नहीं पायी है। वे अभी भी संचार के परंपरागत रूपों का ही इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में इंटरनेट पर संवाद करने वाले शशि थरूर की संवादात्मक भूमिका को वे समझ ही नहीं पाएंगे।शशि थरूर का लेखन जिन लोगों ने पढा है,उनके नीतिगत नजरिए को जो लोग जानते हैं वे सहज रूप में समझ सकते हैं कि उनके अंदर गरीब जनता,पिछडी जनता अथवा गैर अभिजन समुदायों के प्रति किसी भी तरह का भेदभावपूर्ण नजरिया नहीं है।
कायदे से हमारे मंत्रियों,सांसदों,विधायकों को अनिवार्यत: नेट पर अपनी जनता के साथ अहर्निश संवाद,संपर्क और संप्रेषण की प्रक्रिया में रहना चाहिए। इस कार्य के लिए भारत की गरीब जनता उन्हें मुफ्त में संचार की तमाम सुविधाएं देती है,जिसमें फ्री फोन से लेकर सचिव रखने तक की सुविधाएं शामिल हैं। इसके बावजूद वे कभी रीयल टाइम में अपनी जनता के संपर्क और संवाद के दायरे में नहीं होते। कायदे से केन्द्र सरकार को राजनीतिक पारदर्शिता पैदा करने,राजनेता और जनता के बीच में संवाद और संपर्क को पुख्ता करने के लिए सभी मंत्रियों,सांसदों,विधायकों आदि के लिए 'फेसबुक' में जाना और संवाद करना अनिवार्य कर देना चाहिए। लोकतांत्रिक प्रणाली को इससे बल मिलेगा।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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