प्रमोद मल्लिक साहब,वाममोर्चा जब सन्77 में सत्ता में आया था तो मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज बुलंद करके ही आया था और उस नीति का लंबे समय उसने पालन भी किया। आज उन इलाकों में जाएं जहां पर तृणमूल कांग्रेस के लोग पंचायतों से लेकर संसद तक जीते हैं तो आपको उनकी कार्यप्रणाली देखकर हैरानी होगी। माओवादी लालगढ इलाके में हफता वसूली से लेकर तथाकथित जनअदालतों के जरिए आम लोगों को बिना किसी कारण के दण्डित कर रहे हैं। विश्वास न हो तो एकबार नंदीग्राम की यात्रा जरूर कर लें। किस तरह का विकल्प माओवादी,कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर तैयार किया है उसकी श्ाक्ल देखकर बिहार का माफिया राज भी बौना नजर आएगा। बंदूक की नोंक पर माकपा के सदस्यों और हमदर्दों को माकपा का साथ छोडने के लिए दबाव डाला जा रहा है, आतंकित किया जा रहा है, ऐसा नहीं करने पर गले में जूतों की माला पहनाकर जुलूस निकाले जा रहे हैं,जुर्माना ठोका जा रहा है। जहां पर ऐसा नहीं कर पा रहे हैं वहॉं सरेआम कत्ल किया जा रहा है। विगत चार महीनों से हिंसा का ताण्डव चल रहा है। गरीब किसानों और आदिवासियों की रक्षा करने में माकपा भी असमर्थ है,माओवादी हिंसा में मारे गए ज्यादातर लोग गरीब हैं। माओवादियों का यदि जनता में व्यापक समर्थन है तो उन्होंने हिंसाचार और असंवैधानिक सत्ताकेन्द्रों की स्थापना के जरिए लालगढ में आतंक का राज क्यों कायम किया हुआ है ? आतंक और हिंसा के हथियार की माओवादियों को जन समर्थन के अभाव में ही जरूरत पडी है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या माकपा के आतंक का विकल्प माओवादी आतंक है?
प्रमोद मल्िल्ाक साहब,नक्सल अथवा माओवादियों की आलोचना करना घृणा अभियान में शामिल होना नहीं है। समस्या यह भी नहीं है कि नक्सलवादियों का वर्चस्व क्यों है,समस्या क्रांति होने में भी नहीं है। समस्या है निर्दोष लोगों की हत्या वे क्यों कर रहे हैं। नक्सल चुनाव जीतें या हारें,इलाके में जनता उनका साथ दे या न दे,माकपा को खदेड दे,इन सबमें किसी भी नागरिक को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन यदि हिंसाचार के कंधे पर सवार होकर यदि क्रांति और माओवादी आएंगे तो इस पर सभी शांति पसंद नागरिकों को विरोध करना चाहिए। कल क्रांति होगी या नहीं होगी,यह तो क्रांतिकारी संगठनों को भी पता नहीं है। लेकिन क्रांति के नाम पर ,पुलिस और माकपा एजेण्ट के नाम पर माओवादी हिंसा जरूर हो रही है इसमें प्रतिदिन निर्दोष ग्रामीण मारे जा रहे हैं। माओवादियों को यदि जनता का समर्थन होता तो वे हिंसा नहीं करते। जिन्हें जनसमर्थन हासिल होता है वे कम से कम हिंसा करते हैं। जिन्हें कम जनसमर्थन हासिल होता है वे ज्यादा हिंसा करते हैं। गुजरात का अनुभव सामने है वहां साम्प्रदायिक ताकतों ने इतनी व्यापक हिंसा की थी अब मोदी के खिलाफ आवाज तक नहीं निकलती। आप अच्छी तरह जानते हैं उग्रवादी हिंसा जिन इलाकों में रही है वहॉं जनता की आवाज सुनाई नहीं देती,सिर्फ आतंकी संगठनों की ही आवाज सुनाई देती है। पंजाब से लेकर असम,कश्मीर से लेकर नागालैण्ड तक का यही तजुर्बा है। आप जिस जनसमर्थन की बातें कर रहे हैं वैसा जनसमर्थन तो तालिबान को भी मिला हुआ है,क्या आतंक के कारण सतह पर जनता की चुप्पी को माओवादियों के लिए जनसमर्थन कहना सही होगा। आप जानते हैं कि अफगानिस्तान में लाखों नाटो सैनिकों के बावजूद तालिबान आज भी खत्म नहीं हुआ है। माओवादी संगठन क्रांतिकारी संगठन नहीं है। बल्कि अपराधी कर्मों में लगे हिंसक गिरोह हैं। आपको पूरा हक है उनकी हिमायत करें। लेकिन यह सोचकर करें कि भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र माओवादियों की देन नहीं है। माओवादी लोकतंत्र से नफरत करते हैं। यह खुला सच है यह घृणा का प्रचार नहीं है बल्कि इस तथ्य और सत्य को माओवादी स्वयं स्वीकार करते हैं। जिस चीज को वे स्वीकार करते हैं,मैं तो उसी को दोहरा रहा हूँ,इसमें किसी दल विशेष की हिमायत करना कहाँ से आ गया। आपकी माकपा के प्रति जितनी आलोचनाएं हो सकती हैं उससे ज्यादा हमारी भी हैं। लेकिन ये आलोचनाएं भक्ति और घृणा के भाव से परे होकर सत्य के आधार पर निर्मित हुई हैं। आपकी क्रांति की भक्ति स्वागतयोग्य है, अपराधियों की भक्ति आलोचना के लायक है।
( मोहल्ला लाइव पर छत्रधर महतो की गिरफतारी पर चली बहस में प्रमोद मल्लिक के विचारों पर व्यक्त टिप्पणी)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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