प्रभाष जोशी, ‘ईमानदार’ हैं। कारपोरेट घरानों के कलमघिस्सु हैं। उन्होंने ‘सच’ कहा है,उसे गंभीरता से लेना चाहिए। पहला सच ,प्रेस (संपादकों,पत्रकारों और प्रेस मालिकों) और राजनेताओं गहरा याराना होता है, उनका भी कितने ही प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के साथ याराना था। धन्य है दोस्ती और पेशे की ईमानदारी। कम से कम अखबार वालों के साथ राजनेता कभी ज्ञान,सलाह और समझ पाने के लिए दोस्ती नहीं करते, प्रचार पाने के लिए दोस्ती करते हैं। स्वयं प्रभाष जोशी यह काम करते रहे हैं,यह तथ्य भी वे लिख चुके हैं। दिक्कत यह है कि जोशीजी पेशेवर मीडिया वाले नहीं हैं,सामंती मीडिया वाले हैं। जोशीजी अपने मालिकों को ‘जनसंपर्क’ एजेंसी खोलने का सुझाव दे ही सकते थे,ऐसी ही एजेंसियां वे सब काम करती हैं, जिनको वे करते रहे हैं अथवा उनके करीबी दोस्त पत्रकार करते रहे हैं। हिंदी प्रेस में यदि इस बार खबरों के लिए लेन-देन हुआ है तो यह कोई नयी बात नहीं है,यह तो बारह महिने चलता रहता है,जोशी जी भी जानते हैं कि किस तरह चलता है यह धंधा। समस्या लेन देन में नहीं है। हम निंदा करेंगे,वे तब भी लेंगे। यह निंदा की समस्या नहीं है। यह चुनाव की समस्या भी नहीं है। यह कारपोरेट प्रेस की दैनन्दिन समस्या है। हमारे सामने प्रभाष जोशी चाहे जितना सौगंध खाएं, कितना ही अपने को सत्यवादी बताएं, कौन नहीं जानता कि प्रत्येक संपादक अपने मालिक के लिए ‘जनसंपर्क’ का काम करता है,पूंजीपतियों के लिए ‘जनसंपर्क’ नहीं करेगा,तो उसे कोई नौकरी पर भी रखने वाला नहीं है, रिटायर्ड होने के बाद भी जब पगार मिलती है तो उसका लक्ष्य लेखन नहीं कुछ और है। प्रभाष जोशी की मुश्किल यह है कि करना चाहते हैं कारपोरेट प्रेस का धंधा, लेकिन सामंती खोल और मूल्यों के आवरण को बनाए रखकर। वे जानते हैं क्या कर रहे हैं लेकिन दावा ‘सत्य’ की रक्षा का कर रहे हैं,’खबर’ की रक्षा का कर रहे हैं। उन्हें इस आवरण को फेंक देना चाहिए। इससे अन्य संपादक भी प्रेरणा लेंगे,कारपोरेट प्रेस के पेशेवर नियमों के तहत प्रभाष जोशी को परखना चाहिए, जातिवाद इसका एक बडा हिस्सा है। अब जोशी जी यह न समझाएं कि जाति हिस्सा नहीं है। सिर्फ पेशेवर तरीकों के आधार पर चयन किया था,हम प्रभाष जोशी और उनके भक्तों से यही कहना चाहते हैं कि प्रभाष जोशी कारपोरेट घराने का पत्रकार है ,जनता के हितों को लेकर लडने वाला पत्रकार नहीं है। जनता के हितों को लेकर लडने वाले पत्रकार को प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री से दोस्ती गांठने की जरूरत नहीं पडती। प्रभाष जोशी कम से कम एक भी ऐसा रहस्योदघाटन बताएं जो कभी उन्होंने अपने दोस्त प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री , अथवा अपने कारपोरेट आकाओं (जो उनके दोस्त थे या हैं ) के बारे में किया हो, कौन नहीं जानता चन्द्रशेखर जब प्रधानमंत्री बने थे तो प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठकर सीधे सौदे पटते थे,प्रधानमंत्री कार्यालय में ही रकम सरेआम ली जाती थी। जोशी जी उन व्यक्तियों को भी जानते हैं जरा सुविधा के लिए स्वयं ही सत्य बोल दें तो पता चल जाएगा कि खबर पर्दा कौन डालता रहा है, ,भारत के इतिहास में प्रधानमंत्री के रूप में चन्द्रशेखर सबसे भ्रष्ट थे। किसी भी कांग्रेसी नेता से इस तथ्य की आसानी से पुष्टि हो सकती है। लेकिन ‘ईमानदारी’ और ‘सत्य’ के लिए आग उगलने वाले प्रभाष जोशी को चन्द्रशेखर के कार्यालय का भ्रष्टाचार नजर ही नहीं आया। बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो मिलाय। कारपोरेट घरानों की राजनेताओं के साथ कैसे ढील होती है और वे इसके बारे में कितने तथ्य जानते हैं ,यदि उसकी थोडी सी भी झलक वे देते तो देश का बडा भला होता।
( प्रभाष जोशी ने 'जनसत्ता' (6सितम्बर 2009 )में 'कागद कारे' स्तम्भ में 'काले धंधे के रक्षक' शीर्षक से एक लेख लिखा है,यह लेख मोहल्ला लाइव पर उपलब्ध है,उसकी प्रतिक्रिया में व्यक्त विचार)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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