प्रभा खेतान की मौत को आज एक साल हो गया है। आज ही अचानक उनकी मौत की खबर अरूण माहेश्वरी ने दी थी। सोचा था कभी मौका मिलेगा तो जरूर लिखूँगा। कई बार दोस्तों ने भी अनुरोध किया था किंतु लिख ही नहीं पाया। प्रभाजी की मौत मेरी व्यक्तिगत क्षति थी। मेरे साथ उनका बीस सालों से गहरा संबंध था। बीस सालों में उनके सुख-दुख के तमाम क्षणों में शामिल होने का मौका भी मिला था। प्रभाजी से मिलने के बाद कोलकाता के हिंदीभाषी समाज का अमानवीय चेहरा भी देखने में आया। आरंभ में प्रभाजी को यहां के तमाम लेखक और तथाकथित बुद्धिजीवी बुरी नजर से देखते थे। जबकि आरंभ से ही प्रभाजी ने अपनी लेखिका के रूप में पहचान बनानी शुरू कर दी थी।
प्रभाजी कैसे स्त्रीवाद के मार्ग पर आयीं और उनके साथ हिंदी के समर्थ लेखकों के कितने गहरे संबंध थे,यह तथ्य सभी लोग जानते हैं। लेकिन प्रभाखेतान स्त्रीवादी कैसे बनी यह संभवत: कम ही लोग जानते हैं। राजेन्द्र यादव और उनके जैसे बड़े लेखकों की उनके लेखन के पीछे प्रेरणा थी,स्त्रीवाद का मार्ग पकड़ने के बाद प्रभाजी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हिंदी में गर्व के साथ अपने को स्त्रीवादी कहना उन्हें अच्छा लगता था,जबकि आज भी अनेक नामी लेखिकाएं स्त्रीवादी कहने में अपमानित महसूस करती हैं। प्रभाखेतान आजादी के बाद की पहली बड़ी हिंदी लेखिका थी जो गर्व के साथ स्त्रीवादी कहती थी और कमोबेश स्त्रीवाद को व्यवहार में जीने की भी कोशिश करती थी।
प्रभा खेतान ने स्त्रीवाद के सर्वोत्तम पक्ष अन्य के प्रति संवेदनशीलता को अपनी शक्ति बनाया। उनके लिए स्त्रीवाद कोई किताबी सिद्धान्तमात्र नहीं था। उनके द्वारा 'अन्य के प्रति संवेदनशीलता' का जो रूप मैंने व्यक्तिगत तौर पर देखा है वह हिंदी साहित्य में विरल है। मसलन् प्रभाजी को यदि यह बोल दिया जाए कि फलां लेखक बीमार है उसे मदद की जरूरत है, उसका हॉस्पीटल का बिल भुगतान नहीं हुआ है, कोई कैंसर का मरीज है उसे दवा वगैरह के लिए मदद की जरूरत है,प्रभाजी एक पैर से निस्वार्थ भाव से मदद करती थीं। यह पूछती ही नहीं थीं कि तुमने इस लेखक के बारे में अथवा इस साधारणजन के बारे में मदद के लिए क्यों कहा,वह तुम्हारा कौन लगता है,तुम क्या जानते हो,हमें इसकी मदद से क्या मिलेगा इत्यादि तमाम किस्म के सवाल वे कभी नहीं पूछती थीं।
लेखकों के द्वारा लेखन और पत्रिकाओं के लिए आए दिन मदद के लिए पत्र आते थे और पूछती थीं कि क्या करूँ, 'हंस' जैसी पत्रिका संकट में है क्या करूँ,वे चाहती थीं मदद करना लेकिन मुझे अपनी सलाह का हिस्सा बनाकर यह काम करती थीं। व्यक्तिगत तौर पर मुझसे बेइंतिहा प्यार करती थीं। सप्ताह में एक दो दिन हम लोगों का मिलना,बैठना बातें करना होता था।बाद में सुंदर भोजन के साथ देर रात गए बैठक खत्म होती थी। कुछ साल बाद हम दोनों की मंडली में अरूण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी भी शामिल हुए। अब हम चारों लगातार बैठते और विभिन्न किस्म के विषयों पर बातें करते। अरूण और सरला मार्क्सवादी हैं और प्रभाजी स्त्रीवादी । अनेक बार मार्क्सवाद और सीपीएम से जुड़े सवालों पर तेज बहस भी हो जाती थी इतनी तेज की देखते ही बनता था। लेकिन प्रभाजी कभी तेज बहसों की वजह से संबंध नहीं तोड़ती थीं। बल्कि हुआ उलटा ये बहसें प्रभाजी के लिए विचारधारात्मक आनंद देने का काम करने लगीं और वे लेखन में और भी ज्यादा आक्रामक होती चली गयीं। प्रभाजी की पारिवारिक पृष्ठभूमि ,स्त्रीवाद और लेखन के बीच तीन-तेरह का रिश्ता था। इस रिश्ते को उन्होंने बड़े ही सदभाव के साथ निभाया। इस संबंध की खूबी यह थी कि उनके वर्गीय नजरिए के साथ विचारधारात्मक प्रतिबद्धता कभी आड़े नहीं आयी। प्रभाजी मारवाडी परिवार के धनियों के साथ सादगी और ठाट के साथ मिलती थीं। उनके पास पैसा काफी था लेकिन अमीरों में वे पैसे के कारण नहीं लेखन के कारण खासतौर पर स्त्रीवादी उपन्यास लेखिका के रूप में सम्मान के साथ स्वीकृत थीं।
मारवाडी अमीर उनके लेखन की संपदा,चमक और वैभव के सामने फीके नजर आते थे, उनके इस फीकेपन को वे आनंद भाव से लेती थीं। प्रभाजी की सबसे बडी शक्ति उनकी दौलत नहीं लेखन था। लेखक के नाते जिस गंभीर संवेदनशीलता की जरूरत होती है उसे उन्होंने अपने जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना लिया था। यह संवेदनशीलता कभी कभी कष्ट भी देती थी,इसके बावजूद अपने संवेदनशील स्वभाव को उन्होंने त्यागा नहीं।
प्रभाजी के लेखन का सबसे उज्ज्वल पक्ष है हिंदी में स्त्रीवाद । हिंदी में स्त्रीवाद जनप्रिय बने और राजेन्द्र यादव 'हंस' के जरिए यह काम करें। यह कीड़ा प्रभाजी के दिमाग की ही उपज था। उल्लेखनीय है राजेन्द्र यादव जब जमकर कथा साहित्य लिख रहे थे तब वे स्त्रीवाद के उतने भक्त नहीं थे, जितने वे 'हंस' के प्रकाशन के बाद बने। राजेन्द्र यादव को स्त्रीवाद के मार्ग पर लाने वाली मुख्यप्रेरणा प्रभाजी ही थीं। दलितों और स्त्रियों के प्रति 'हंस' पत्रिका के प्रतिबद्धभाव को बनाने में प्रभाजी ने मुख्यप्रेरक की भूमिका अदा थी। संभवत: आज उनके मरने के बाद राजेन्द्र यादव प्रभाजी के इस कर्ज को न मानें। लेकिन मैं उन तमाम अंतरंग क्षणों का गवाह हूँ जब प्रभाजी ने 'हंस' को आत्मनिर्भर बनाने में मदद की थी तो उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था, एक ही स्वार्थ था राजेन्द्र यादव जैसा बड़ा लेखक स्त्रियों और दलितों के सवाल पर साहित्य के मैदान में डटा रहे। हिंदी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका के रूप में 'हंस' को लिया जाए और इस आकांक्षा को साकार करने के लिए उन्होंने 'हंस' की हर संभव मदद की।
प्रभाजी की आंतरिक इच्छा थी कि हिंदी में स्त्रीवादी लेखन ज्यादा से ज्यादा हो,वे स्वयं भी इस काम को करती थीं ,अन्य लोगों को भी प्रेरित करती थीं। मेरी आरंभ में उनसे जब मुलाकात हुई तो उनके पास स्त्रीवाद और गंभीर लेखन से संबंधित बहुत कम किताबें थीं बाद में लगातार बातें करते करते उन्होंने अपनी निजी लाइब्रेरी समृद्ध कर डाली। मेरे देखते ही देखते सैंकड़ों किताबें खरीद डालीं। एक लेखिका में नए विचारों को जानने का यह आग्रह अपने आपमें प्रशंसा की चीज है। कलकत्ते में अधिकांश मारवाडी और हिंदी लेखकों के यहां अत्याधुनिक विषयों की गिनती की दो-चार किताबें ही मुश्किल से मिलेंगी। प्रभाजी के पास तमाम किस्म की अत्याधुनिक किताबों का जखीरा था। नए विषयों की गंभीर किताबों से प्रेम और अन्य के प्रति संवेदनशीलता ये दोनों ही तत्व उन्हें अपने वर्गीय दायरे के बाहर जाकर निजी विचारधारात्मक संघर्ष के जरिए अर्जित करने पड़े।
मैं जब सन् 1989 में कोलकाता में नौकरी करने आया था तो यहां एक-दो लेखकों को ही जानता था। बाकी शहर नया था। अचानक एक गोष्ठी में मुझे युवाओं के बीच बोलने के लिए बुलाया गया मैं गया ,वहां पर प्रभाजी भी थीं। वहीं पर पहली भेंट हुई और यह पक्की दोस्ती में तब्दील हो गयी। उस समय तक वे जनवादी लेखक संघ की सदस्य नहीं थीं। मैंने उनसे जब लेखक संघ की सदस्यता लेने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं जानती ही नहीं हूँ कि जनवादी लेखक संघ क्या है। मजेदार बात यह है उस समय जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राजेन्द्र यादव हुआ करते थे और वे उनके सबसे करीबी थे। मैंने कहा कि आपको कभी राजेन्द्र यादव ने जनवादी लेखक संघ की सदस्यता लेने के लिए नहीं कहा,तो उन्होंने कहा नहीं। सबसे दिलचस्प सूचना यह कि सन् 1989 के पहले कोलकाता में जनवादी लेखकसंघ के तत्वावधान में एक सात दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई थी उसमें देशभर के नामी लेखक आए थे, लेकिन प्रभाजी को उस गोष्ठी का निमंत्रण पत्र तक नहीं मिला था। वे जनवादी लेखक संघ के कार्यक्रमों की सामान्य सूचना पाने वालों की सूची तक में दर्ज नहीं थीं। ऐसा क्यों हुआ यह तो जलेस के लोग ही जानें। लेकिन मेरे लिए प्रभाजी की यह बात आज भी चुभती रही है कि जलेस के लोग मुझे लेखिका ही नहीं मानते। मेरे कहने के बाद वे जनवादी लेखक संघ की सदस्य बनीं और अंत तक उससे जुडी रहीं। मेरे साथ कोलकाता जिला की उपाध्यक्ष भी रहीं। यह वह प्रस्थान बिंदु है जहां से प्रभाजी मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों के सीधे संपर्क में आयीं। इसके बाद उनकी मार्क्सवाद और स्त्रीवाद को लेकर साझा यात्रा चलती रही और इसका उन्होंने अंतिम दिन तक पालन किया। प्रभाजी की ही क्षमता दी थी उन्होंने ऐसे समय में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की खुलकर मदद की जब आमतौर पर बुद्धिजीवी माकपा,मार्क्सवाद,वामपंथ से नंदीग्राम और दूसरे मसलों की वजह से भाग रहे थे, ऐसे समय में उन्होंने माकपा की जो मदद की वह बेमिसाल है। वे नंदीग्राम सिंगूर के मसले पर माकपा के नजरिए से असहमत थीं लेकिन यह भी कहती थीं कि मार्क्सवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं है।नंदीग्राम की फायरिंग की घटना से भयानक उद्वेलित थीं इसके बावजूद उन्होंने माकपा का जमकर साथ दिया। यह काम वे क्यों कर रही थीं, उनका क्या स्वार्थ था,कोई नहीं जानता। लेकिन अन्य की मदद में मार्क्सवादी संगठन का आना वह भी ऐसे व्यक्ति के व्यवहार में जो पार्टी मेम्बर नहीं है,स्वयं में उनकी सामाजिक बेचैनी का प्रतिफलन था।
मार्क्सवादियों में अरूण माहेश्वरी,सरला माहेश्वरी और मैं ही उनके एकमात्र दोस्तों में थे, बाकी दूर दूर कोई मार्क्सवादी उनका दोस्त नहीं था,यहां तक कि माकपा के प्रति राजेन्द्र यादव का भी रूझान बदल चुका था। इस सबके बावजूद स्थानीय स्तर पर मार्क्सवाद के प्रचार में मदद और राष्ट्रीय स्तर पर स्त्रीवाद के प्रचार में मदद करना ये दो लक्ष्य पूरी निष्ठा के साथ चल रहे थे।
उनके स्त्रीवादी नजरिए से सैंकड़ों पाठक प्रभावित हुए हैं। लेखकों में स्त्रीवाद को सम्मान की नजर से देखा जाने लगा। स्त्रीवाद और मार्क्सवाद को स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य के साथ साधने का एक फायदा यह हुआ कि कोलकाता में भी उनके जितने निंदक थे, उनके खिलाफ घृणा का प्रचार करने वाले थे उन्हें भी प्रभाजी के व्यक्तित्व का लोहा मानना पड़ा। प्रभाजी जानती थीं कि कौन लेखक अथवा व्यक्ति उनके खिलाफ कुत्सा प्रचार करता है वह व्यक्ति जब उनके सामने आता था तो उससे बडे ही प्यार से मिलती थीं उसका जमकर स्वागत सत्कार करती थीं। उनके इस व्यवहार को देखकर घृणा के प्रचारक पानी-पानी हो जाते थे। इस समूची प्रक्रिया का आनंद के क्षणों में विस्तार से वर्णन करके भी सुनाती थीं। बाकी फिर कभी।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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