आज दुनिया में तकरीबन 200 देश हैं। जिनमें पांच हजार एथनिक समूह रहते हैं। दो-तिहाई देशों में एकाधिक एथनिक और धार्मिक समूह हैं जो कुल जनसंख्या का 10 फीसदी अंश हैं। अनेक देशों में बड़ी संख्या में मूल बाशिंदे रहते हैं जिन्हें उपनिवेशिकरण और बाद के विकास ने हाशिए पर पहुँचा दिया है। समस्या यह है कि क्या अमेरिकी कंपनियां ,खासकर मीडिया और उपभोक्ता सामान की कंपनियां इस वैविध्य को उपभोक्तावाद की तेज लहर पैदा करके नष्ट कर रही हैं या नहीं ? क्या इंटरनेट मौजूदा उपभोक्तावादी रूझानों से अलग हटकर नई परंपरा शुरू करके जिन्दा रह सकता है ? क्या इंटरनेट का विज्ञापन और उपभोक्तावाद के विकास के लिए इस्तेमाल रोका जा सकता है ? इंटरनेट के लिए अबाधित संप्रसारण अधिकार चाहिए, उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण चाहिए और इन सबके कारण कारपोरेट घरानों के मुनाफों में वृध्दि होगी। वैषम्य बढ़ेगा।सामाजिक-राजनीति तनाव में इजाफा होगा।इंटरनेट और कम्प्यूटर तकनीकी के विकास के दौर में अल्पसख्यकों को सबसे ज्यादा संकटों का सामना करना पड़ रहा है। प्रशासन से लेकर राजनीति सभी स्थानों पर उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है। उनकी भाषा,संस्कृति,संस्कार आदि पर हमले बढ़े हैं।उनके प्रति घृणा अभियान तेज हुआ है। इसके लिए बड़े पैमाने पर सूचना और मीडिया क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन संगठनों को पैसा देती रही हैं जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा अभियान में सक्रिय हैं। हमारे देश में आरएसएस के सहयोगी संगठनों को घृणा फैलाने के काम के लिए जिन कंपनियों ने पैसा दिया उनमें सूचना और मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियां सर्वोपरि हैं।इस संदर्भ में पहला सवाल यह है कि सूचना और मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जनतंत्र के प्रति क्या रूख है ? जनतांत्रिक व्यवस्था में वे किस तरह की राजनीतिक शक्तियों के साथ होती हैं ? अल्पसंख्यकों के प्रति उनका क्या रूख है ? अब तक के विश्व अनुभव से साफ तथ्य सामने आए हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जनतंत्र के प्रति बैर भाव रहा है। हम यह भी सोचें कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जनता जब संघर्ष के लिए मैदान में आ जाती है तब मीडिया और संचार के बड़े संस्थान किसके साथ होते हैं ? तनाव की स्थिति में साधारण जनता के पास क्या विकल्प होंगे ? इन सवालों पर विस्तार से सोचने की जरूरत है।
अभी तक का विश्व अनुभव रहा है कि ग्लोबल मीडिया ने देशज सांस्कृतिक अस्मिताओं की उपेक्षा की है।उन्हें हाशिए पर ठेला है। सारी दुनिया में पूंजीपति वर्ग का अल्पसंख्यक अस्मिताओं के साथ भेदभाव भरा रवैयया रहा है। यह भेदभाव नौकरी, शिक्षा, मकान,स्वास्थ्य,राजनीतिक अभिव्यक्ति के अधिकार और ऐसी बहुत सारी सुविधाएं जो मानवीय जीवन के लिए अनिवार्य हैं, उनके वितरण में अल्संख्यकों के प्रति भेदभाव बरता गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खूबी है कि उनके द्वारा निर्मित तकनीकी में जनतंत्र होता है किंतु राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में ये कंपनियां तबाही मचाती रहती हैं, हमें सोचना होगा कि हम इनकी लूट और तबाही के खिलाफ संघर्ष करें या इस भ्रम में जिएं कि इंटरनेट ने जनतंत्र पैदा किया है ? अल्पसंख्यकों के लिए अभिव्यक्ति के अवसर पैदा किए हैं ? हाल ही में इण्डोनेशिया में जनतंत्र की स्थापना के संघर्ष के लिए इंटरनेट का वहां छात्रों ने जमकर इस्तेमाल किया था उसे अमेरिका ने पसंद नहीं किया।उसने बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों पर दबाव डाला है कि इंटरनेट का राजनीतिक तौर पर इस तरह का दुरूपयोग नहीं हो इसके लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए। क्योंकि इण्डोनेशिया के तानाशाह को अमेरिका और पश्चिमी धनी देशों का खुला समर्थन था। संचार और मीडिया के नाम पर जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपार दौलत बटोर रही हैं उनके लिए जनतंत्र और मानव विकास का अर्थ उनके मुनाफे का खात्मा।यह स्थिति वे कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं होगे। इंटरनेट जनतंत्र उन्हीं के लिए है जो साधन-सम्पन्न हैं। इसका इस्तेमाल करने की न्यूनतम सुविधाओं से लैस हैं। सच्चाई यह है कि विश्व की अधिकांश जनता उन स्थितियों में नहीं पहुँच पायी है जहां उसे सामान्य शिक्षा मिली हो। अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता की स्थिति में वेब का साधारण जनतंत्र जनता के लिए यूटोपिया है किंतु मध्यवर्ग के लिए सच्चाई है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषणकारी रूप पर पर्दा डालने का साधन है। आज भी सारी दुनिया में 1.8 विलियन लोग ऐसी स्थितियों में रहते हैं जहां जनतंत्र के औपचारिक बुनियादी तत्वों का अभाव है। सारी दुनिया के अल्पसंख्यकों में से 359 मिलियन लोग ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने का एक रूप है आम आदमी को उसकी मातृभाषा के इस्तेमाल से वंचित करना। मातृभाषा में शिक्षा,राजनीति,न्याय आदि हासिल करने से वंचित करना। इसके लिए सामान्यत: लोगों पर दबाव डाला जाता है कि वे प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति को अपना लें। सारी दुनिया में लम्बे समय से दस हजार से ज्यादा भाषाएं चली आ रही थीं। किंतु विगत दो सौ वर्षों में प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति अपनाने का यह दुष्परिणाम निकला है कि तकरीबन चार हजार भाषाएं खत्म हो गई हैं।अब मात्र छह हजार भाषाएं बची हैं। मानव विकास रिपोर्ट 2004में अनुमान लगाया गया है कि आने वाले 100 वर्षों में इनमें से 50-90 फीसदी भाषाओं का लोप हो जाएगा। आज भाषायी वैविध्य के सामने मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है। समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाने के लिए अफ्रीकी देशों की स्थिति पर सोचें तो पाएंगे कि वहां 2,500 भाषाएं थीं। इनमें अनेक भाषाएं ऐसी भी थीं जिनमें अनेक सामान्य तत्व थे। जिनके सहारे लोग शिक्षा और राज्य के कामों में इन भाषाओं का सीमित रूप में इस्तेमाल कर सकते थे। इस क्षेत्र के तीस से ज्यादा देशों में जिनकी जनसंख्या 518 मिलियन थी,यानी कुल जनसंख्या का अस्सी फीसदी हिस्सा, ये लोग सामान्य तौर पर जिस भाषा का इस्तेमाल करते थे उससे भिन्न इनकी सरकारी भाषा थी। इस क्षेत्र के देशों के मात्र 13 फीसदी बच्चे मातृभाषा में शिक्षा हासिल कर पाते हैं। सवाल यह है कि क्या मातृभाषा में शिक्षा हासिल न करने से विकास बाधित होता है ? अनेक अनुसंधान बताते हैं कि हां। अनुसंधान बताते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाले बच्चों की भूमिका अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों से काफी बेहतर रही है। मातृभाषा का सार्वजनिक और निजी जीवन में प्रयोग बहुत महत्व रखता है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने त्रिभाषा फार्मूला सुझाया है जिसके तहत 1. एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा हो, अधिकांश पूर्व उपनिवेशों में यह प्रशासन की भाषा रही है, किंतु भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में कम से कम एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का सामान्य ज्ञान जरूरी है। जिससे आप ग्लोबल अर्थव्यवस्था और नेटवर्क में शिरकत कर सकें। 2. एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा हो , इस भाषा के जरिए स्थानीय स्तर पर विभिन्न भाषाभाषी लोगों के साथ संपर्क किया जा सके। 3. मातृभाषा, लोग अपनी मातृभाषा का उस समय इस्तेमाल कर सकें जब वो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर संपर्क में न हों । यूनेस्को की सिफारिश है कि इन तीनों भाषाओं को हमें सरकारी स्तर पर स्वीकृति देनी चाहिए। साथ ही भिन्न परिस्थितियों में इनके भिन्न किस्म के प्रयोग के बारे में भी सोचना चाहिए। हमें एक ही भाषा में शिक्षा की बजाय एकाधिक भाषा में शिक्षा के प्रति आग्रह पैदा करना होगा।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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hey very good bhut hi accha likha ha tumne
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