इंटरनेट के प्रसार ने एकदम नए किस्म के सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक जन-जागरण की शुरूआत की है।ग्लोबल स्तर पर विचारों के आदान-प्रदान के साथ ग्लोबल स्तर के नए सामाजिक आंदोलनों के लिए जनता की शिरकत की अपार संभावनाओं को खोला है। ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ विश्वस्तर पर जनता और स्वैच्छिक संगठनों की लामबंदी को एकदम नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया है।जनतंत्र के एकदम नए अध्याय की शुरूआत की है।
ग्लोबलाइजेशन विरोधी,युध्द विरोधी,पर्यावरणवादी,स्त्रीवादी और जनतंत्रवादी संघर्षों के पक्ष में विश्वस्तर पर जनता और संगठनों को गोलबंद करने और जागृति पैदा करने में इंटरनेट सबसे आगे है। इंटरनेट उस अमूर्त्त जनता को जगाता है जिसे अभी तक देखा नहीं है।उन्हें एकजुट करता है जो हाशिए पर थे।सामाजिक,राजनीतिक,पर्यावरण,शांति आदि के सवालों पर साधारण जनता को अपने विचार व्यक्त करने और चेतना विकसित करने का मौका देता है।आम जनता को ज्वलंत सवालों पर विवादों में शामिल करता है।यह असल में डिजिटल नागरिकता है। यह राष्ट्र-राज्य के दायरे को तोड़ती है।
राष्ट्र-राज्य ने नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी को सीमाबध्द किया।जबकि डिजिटल जनतंत्र इन सीमाओं को तोड़ता है।वह ग्लोबल नागरिकता,ग्लोबल अस्मिता,ग्लोबल राज्य,ग्लोबल प्रशासन और ग्लोबल ध्रुवीकरण और लामबंदी को संभव बनाता है।इस पहलू का आदर्श नमूना है पर्यावरणवादी ग्रीन मूवमेंट।
आज समस्त दुनिया गंभीर प्रशासनिक एवं राजनीतिक संकट से गुजर रही है। कामकाज,प्रशासन के पुराने तरीके और कानून पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए हैं।इस स्थिति का बहुराष्ट्रीय कंपनियां तेजी से लाभ उठा रही हैं।सरकारों को कमजोर बनाया जा रहा है।आंतरिक तनावों को हवा दी जा रही है।राष्ट्र-राज्य के सामने अपने अस्तित्व को बचाने का संकट पैदा हो गया है।ऐसी अवस्था में इंटरनेट ने सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी की अनंत संभावनाओं को पैदा किया है।सोई हुई जनता की आशाओं को जागृत किया है।राष्ट्र-राज्य के अप्रासंगिक होने के क्रम में कम्युनिकेशन के क्षेत्र में गहरी अनास्था पैदा हुई।साधारण लोगों का विश्वास डिगा।किंतु इंटरनेट ने इस कमजोर स्थिति में प्रभावी हस्तक्षेप की संभावनाओं को पैदा करके हमें नए सिरे से संप्रेषित करने,अपने विचारों के आदान-प्रदान को प्रेरित किया है।पुस्तक और पढ़ने की आदत को संजीवनी दी है।जनतंत्र के संबंध में कमजोर पड़ती जा रही धारणा को खत्म किया है।
आज जितने भी नए आंदोलन उठकर सामने आ रहे हैं वे सब राष्ट्र-राज्य की सीमा का अतिक्रमण कर रहे हैं।आज ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक दल और स्वैच्छिक संगठन इंटरनेट और कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इंटरनेट के आने के बाद इ-मीडिया के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसारण की संभावनाएं बढ़ गई हैं।आज हमें स्थानीय रेडियो स्टेशनों के माध्यम से इंटरनेट पर उपलब्ध माध्यम सामग्री के ज्यादा से ज्यादा उपयोग की संभावनाओं पर सोचना होगा।
इंटरनेट पर काम करने के लिए साइबर पध्दतियों के बारे में हमें अपनी समझ साफ रखनी होगी।इंटरनेट के चार काम हैं। 1.अभिव्यक्त करना,2.संरक्षण करना,3.सूचना संकलन और 4.हस्तक्षेप करना।अभिव्यक्त करने के कामों में ई मेल,चाट,वेबसाइड अपलोडिंग,फाइल शेयरिंग।संरक्षण कार्यों में प्रमाणीकरण,फिल्टरिंग,इन्क्रिपटिंग, रीमेलिंग। सूचना संग्रह में वब ब्राउजिंग,वेब डाटा संकलन, हेकिंग पर नजर रखना,जासूसी।हस्तक्षेप करने के क्षेत्र में हासिल न करने देना,सेवा देने से इंकार,वेबसाइड को हटाना,विकृत कोड भेजना,डोमेन को कब्जे में लेना,तोड़फोड़ करना।
आज इंटरनेट ग्लोबल फिनोमिना है।जनतांत्रिक सोच,जनतांत्रिक प्रक्रिया और अधिकारबोध को पैदा करने और सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ाने में सबसे आगे है।यह भी संभव है कि इंटरनेट के जरिए जनता को गकया जाए।जातीय और जनजातीय सामाजिक समूहों में चेतना का विस्तार करने ,उनके अतीत का ज्ञान कराने का महत्वपूर्ण उपकरण है।ग्लोबलाइजेशन ने समुदाय और अस्मिता के सवालों को हमारे घरों तक पहुँचा दिया है।पहले ये दोनों राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य से बंधे थे।किंतु ग्लोबलाइजेशन के कारण राष्ट्र-राज्य अपनी सीमाओं को तोड़ने को मजबूर हुआ।आज वह ग्लोबल अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।आज उसे ग्लोबल अर्थव्यवस्था के विश्वासों पर खरा उतरना है।ग्लोबल अर्थव्यवस्था के रास्ते पर चलने के कारण पूंजी ,जनता की सीमापार यात्राएं,शरणार्थी सवस्या,देश की सीमा का अतिक्रमण आदि मसले प्रमुख हो उठे हैं।
दूसरी ओर ग्लोबल पूंजी अपने प्रतिस्पर्धीभाव में तेजी से इजाफा कर रही है।पुराने राष्ट्र-राज्य ने एक खास तरह के कामकाज का अंदाज,आदतें,संस्कार बनाया था।संचार और संप्रेषण के तौर-तरीके विकसित किए थे।किंतु नई परिस्थितियों ने इन सब क्षेत्रों में तब्दीलियां कर दी हैं।यही वजह है कि नई संचार तकनीकी के प्रति जगह-जगह प्रतिरोध भी व्यक्त हो रहा है।किंतु इस तरह के प्रतिरोध के ज्यादा समय तक टिके रहने की संभावनाएं नहीं है।समाज के उत्पादक वर्गों में बदलती हुई सच्चाईयों ने तेजी से असर छोड़ा है।आज मजदूरवर्ग तेजी से नई तकनीकी के अनुरूप अपने को ढ़ाल रहा है।नई तकनीकी के आने के कारण वह अपने पुराने परिवेश की यादों,पुराने राष्ट्र-राज्य के गौरवपूर्ण अतीत की स्मृतियों को नए जगत में किसी न किसी रूप में संजोए रखना चाहता है।
आज बड़े पैमाने पर लोगों को अपने स्थान से बेदखल होकर जाना पड़ रहा है।जो लोग अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं।हटाए जा चुके हैं।वे अपनी छोटी सी नई दुनिया में अतीत की स्मृतियों को संजोए हुए हैं।यह नये युग के परिवर्तनों का आम लक्षण है।इसे अनेक उत्तर औपनिवेशिक लेखकों ने महिमा मंडित किया है।उनका मानना है कि नया अंतर्राष्ट्रीयतावाद भूगोल और जनसंख्या की रिहाइश में मूलगामी परिवर्तन पैदा कर रहा है।यह मूलत: उत्तर औपनिवेशिक माईग्रेशन है।इसमें अस्मिता के जो रूप निर्मित हो रहे हैं उन्हें आप राष्ट्र-राज्य के दायरे में बांध नहीं सकते।
आज भारतीय और भारतीयता के सवाल केन्द्र में आ गए हैं।एक तरफ उनकी समस्याएं हैं जो यहां रहते हैं।दूसरी तरफ उनकी समस्याएं हैं जो भारत के बाहर रहते हैं।एनआरआई हैं।उन्हें अपनी भारतीयता के बोध ने सताया हुआ है।अस्मिता की पहचान के इन दोनों रूपों के बीच संवाद,संघर्ष और विरेचन की प्रक्रिया एक साथ चल रही है।इससे यह भी पता चलता है कि अस्मिता कोई बनी-बनायी चीज नहीं है।बल्कि निरंतर निर्मित होनेवाली चीज है।यह बहुस्तरीय है।हमें यह भी देखना होगा कि भारत में एनआरआई का पूंजी निवेश,रूचि आदि इंटरनेट और ग्लोबल अर्थव्यवस्था आने के बाद किस तरह बढ़े हैं।खासकर 1985-86 के बाद से इनके रूझान बदले हैं।इसमें इंटरनेट की बड़ी भूमिका है।उसने राष्ट्रवाद को नई अंतर्वस्तु दी है।पहले राष्ट्रवाद का झंड़ा उठाने वाले देसी लोग ही होते थे।आज राष्ट्रवाद का झंड़ा अप्रवासी भारतीयों ने उठाया हुआ है।उनके अंदर हिन्दुत्व की तेज लहर चल रही है।ज्यादातर आप्रवासियों का हिन्दुत्ववादी संगठनों से गहरा संबंध है।वे आज उनके सबसे बड़े वित्तीय समर्थक भी हैं।आप्रवासियों में राष्ट्रवाद की लहर ने भारतीय और भारतीयता के सवालों को केन्द्रीय स्थान दिला दिया है।सोनिया के देसी-विदेशी के विवाद में भारतीय और भारतीयता के सवाल छिपे हैं।
भारतीय और भारतीयता में भारतीयता पाखंड है।छद्म है।इसका कहीं अस्तित्व नहीं है।भारतीय का आधार है।जबकि भारतीयता परिस्थितियों पर निर्भर है।इसकी परिभाषाएं बदलती रही हैं। भारतीयता को विखंडित करके पढें तो शायद उसके अंदर छिपे खोखलेपन को समझ सकते हैं। भारतीयता की पहचान की उन्हें जरूरत है जो भारतीय नहीं हैं।जो भारतीयता की हिमायत में खड़े हैं वे शायद नहीं जानते कि अस्मिता के निर्माण के कुछ ऐतिहासिक और भौतिक आधार होते हैं।जबकि भारतीयता का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।इसके विपरीत भारतीय का ऐतिहासिक और भौतिक आधार है।इसे कानून और संविधान ने परिभाषित किया है।भारतीयता को इनमें से किसी ने भी परिभाषित नहीं किया।प्रवासी भारतीयों या 'एनआरआई' पदबंध में तात्पर्य उन लोगों से है जो अपनी इच्छा से देश छोड़कर चले गए अथवा बल प्रयोग के कारण देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर हुए।गुलाम बनाकर इन्हें भारत से बाहर ले जाया गया।किंतु किसी न किसी रूप में देश से जुड़े रहे।
आज जो भारतीय विदेशों में हैं उनकी कई किस्म की पहचान है।वे अपने-अपने देश में अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान कर रहे हैं।इनमें कुछ लोग हैं जिन्हें अतीत याद आता है।भारतीय संस्कार याद आते हैं।कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें जाति संस्कार याद आते हैं।कुछ ऐसे हैं जो पश्चिमी संस्कृति में पूरी तरह रंग चुके हैं।इन्हें न अपनी संस्कृति याद आती है और न देश याद आता है।किंतु इनकी पहचान के इन सब रूपों को राष्ट्र अपने अंदर समाहित कर सकता है।वे जिस देश में रह रहे हैं वहां पर इन सब चीजों के लिए खूब जगह है।
ध्यान रहे अस्मिता भाषा से बनती है।आप्रवासी भारतीयों की मुश्किल यह है कि वे अपनी जातीयभाषा,जातीय संस्कारों से घृणा करते हैं या ये दोनों तत्व उनके लिए गैर-जरूरी हैं।आज भारतीयता के नाम पर अस्मिता की राजनीति का जो खेल चल रहा है।उसने जातीयभाषा के तौर पर हिन्दी के सामने विभाजन का खतरा पैदा कर दिया है।उत्तरांचल और झारखण्ड के गठन से इन राज्यों में हिन्दी की बजाय स्थानीय बोलियों को राज की भाषा बनाने की मांग तेजी से जोर पकड़ती जा रही है।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारतीयता के नाम पर जो विदेशी पूंजी आ रही है वह यहां निवेश के लिए कम और मुनाफे और ज्यादा ब्याज दर के कारण ज्यादा आ रही है।इसका राष्ट्र प्रेम से कोई संबंध नहीं है।आप्रवासी भारतीयों के बारे में एक बात ध्यान में रखनी होगी।कि उनके लिए देश सिर्फ कल्पना की चीज है।वास्तविकता तो यह है कि वे जहां रह रहे हैं।वही उनका देश है।देश का संबंध रहने से है।देश का संबंध्र कल्पना से कम है।कल्पना का देश अवास्तविक होता है।कहानी-कविता-उपन्यास में अच्छा लगता है।किंतु वास्तव जीवन में काल्पनिक देश के प्रति प्रेम खोखला प्रेम है।आप्रवासी भारतीय किसी एक जातीय समूह के लोग नहीं हैं।बल्कि भिन्न जातीय समूहों के लोग हैं।इनकी जातीय संस्कृति,जातीय भाषा,जातीय संस्कार आदि सब कुछ अलग-अलग हैं।यह भिन्नता ही इनकी विशेषता है।भारतीयता के नाम पर इस भिन्नता को हम अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते।बल्कि 'भिन्नता' ही आप्रवासी और भारतीय की धुरी है।भारतीयता इस भिन्नता को छिपाती है,अस्वीकार करती है,इसके लिए हिन्दुत्व की तर्कप्रणाली और विचारधारा का इस्तेमाल करती है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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