जनवादी लेखक संघ कमाल का संगठन है यह संगठन सामयिक संसार के साथ संवाद कम से कम करता है। विगत छह महीनों में इस संगठन की साहित्यिक पत्रिका 'नयापथ' के दो 'युवा अंक' आए हैं। इन दोनों अंकों के सम्पादकीय और प्रकाशित सामग्री को देखकर यह महसूस होगा कि भारत के युवाओं की कोई समस्या नहीं है। उनकी एकमात्र समस्या है क्रांतिकारी प्रेरणा का अभाव। इस अभाव की पूर्ति को केन्द्र में रखकर दोनों अंक तैयार किए गए हैं। विचारणीय सवाल यह है कि अगर हिन्दी-उर्दू लेखकों की पत्रिका में युवालेखन के मूल्यांकन के नाम पर यदि शून्य है तो भारत का भविष्य क्या होगा ? क्या हिन्दी-उर्दू के युवा लेखकों के मूल्यांकन की जरूरत नहीं है ? सवाल उठता है कि हिन्दी-उर्दू से लेकर भारत की किसी भी भाषा के सामयिक युवा लेखन को संपादकों ने मूल्यांकन योग्य क्यों नहीं समझा ? युवा लेखन के प्रति इस उपेक्षाभाव की जमकर आलोचना की जानी चाहिए। अप्रैल-जून 2009 के अंक में एकमात्र बजरंग बिहारी तिवारी का '' भारतीय दलित लेखन:मौजूदा परिदृश्य''नामक लेख है। दो अंकों में युवालेखन के मूल्यांकन पर मात्र चार पन्ने। अनेक युवा लेखकों की रचनाएं दोनों अंकों में हैं। लेकिन मूल्यांकन नहीं है। हिन्दी उर्दू का कोई युवा आलोचक भी उन्हें नहीं मिला जिसकी आलोचना पर चर्चा कर लेते।
सवाल यह है कि क्या भारत के युवा को सिर्फ प्रेरक पुरूषों की जरूरत है ? युवाओं को प्रेरणा देने का तरीका आज पूरी तरह पिट चुका है। युवाओं के दिल,दिमाग, जीवनशैली ,विचारधारा आदि को प्रेरक पुरूषों के संस्मरण लेखन से प्रभावित नहीं किया जा सकता । आज के युवा समुदाय की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है,आज वह ज्यादा यथार्थवादी और व्यवहारवादी है। क्या उसकी समस्याओं पर चर्चा किए बगैर उसका दिल जीता जा सकता है ? ऐसा क्यों हुआ कि जनवादी लेखक संघ के संपादकद्वय (मुरली मनोहरप्रसाद सिंह और चंचल चौहान) अतिथि संपादक संजीव कुमार, युवाओं की किसी भी समस्या को विवेचन लायक नहीं समझते ? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि युवाओं के सामने समस्याओं की जो फेहरिस्त संपादकद्वय ने गिनायी है उसमें से किसी भी समस्या को विश्लेषित करने योग्य क्यों नहीं समझा गया ? क्या राजनीतिक दलों की तरह युवा समस्या का वर्णनात्मक गद्य ही युवाओं के प्रति सही समझ बनाने के लिए काफी है ? युवा समस्याओं को यदि राजनीतिक नारेबाजी की शक्ल में प्रस्तुत किया जाएगा तो न तो समस्या समझ में आएगी और न युवावर्ग ही समझ में आएगा। भारत के युवावर्ग के दिलो-दिमाग और सर्जनात्मकता के मूल्यांकन में दोनों अंक एकदम विफल रहे हैं। इस पहलू को लेकर कोई भी सामग्री इन दोनों अंकों में नहीं है। दूसरी ओर इन दोनों अंकों में भारत के युवावर्ग के प्रति अवैज्ञानिक समझ का जमकर महिमामंडन किया गया है। युवाओं की सर्जनात्मकता ,आनंद,मनोरंजन, जीवनशैली के प्रति अविश्वास,संशय, हिकारत और धिक्कार भाव व्यक्त हुआ है। संपादक द्वय ने लिखा है '' युवा वे ही देख पा रहे हैं जो इस भूमंडलीय वित्तीय पूंजी का निर्लज्जतापूर्वक प्रचार करने वाले मीडिया तंत्र द्वारा दिखाया जा रहा है।यह तंत्र युवाओं को बता रहा है कि उनके लिए सत्य केवल पैसा और पद है और इसी के पीछे भागते जाना ही वास्तविक संघर्ष है और इसके लिए दूसरों को धोखा देना बौद्धिक प्रतिभा का सही उपयोग है। जीवन की सार्थकता उसकी सफलता में है,चाहे उसे कैसे भी हासिल किया जाए। यदि आज हम सफल हैं तो दुनिया कल रहे या न रहे,यह हमारी चिन्ता क्यों बने।क्या इस स्वार्थ-लोलुप विकृत मानसिकता के साथ एक बेहतर दुनिया का निर्माण संभव है ?''
इन दोनों अंकों की सबसे बड़ी कमजोरी है युवा अस्मिता और युवा संस्कृति को स्वतंत्र रूप में न देख पाना। जनवादी पहले चाहते हैं कि युवा कैसे बनें और इसके लिए उन्होंने अपने पसंदीदा आदर्श पुरूषों का विवेचन पेश किया है। युवाओं के प्रति यह नजरिया सही नहीं कहा जा सकता। यह तो वैसे ही हुआ कि पहले युवा फिदेल कास्त्रो,भगतसिंह आदि जैसे बनें ,क्रांतिकारी बनें, अथवा पूर्ण स्वाधीनता के मार्ग को अर्जित करें। उसके बाद वे अपने बारे में सोचें। इस तरह देखने से युवाओं के दिल,दिमाग,जिंदगी का हमने बाह्य उद्देश्यों के साथ संबंध जोड दिया है। क्या युवाओं का अभीप्सित लक्ष्य क्रांति हो सकता है ? क्या युवाओं का लक्ष्य खद्दरधारियों का देश निर्मित करना लक्ष्य हो सकता है ? क्या युवाओं को चरखे, राष्ट्रीय ध्वज आदि के साथ नत्थी किया जा सकता है। क्या युवाओं का एकमात्र लक्ष्य अपने देश के गौरवमय इतिहास को याद रखना और उसका पारायण करते रहना है ? क्या युवाओं को बाह्य सवालों और सरोकारों से बांधकर सही मार्ग पर लाया जा सकता है ? हम अपने युवा में पूर्ण मनुष्यत्व का उदबोधन क्यों नहीं करना चाहते, क्या पूर्ण मनुष्यत्व के आह्वान के बिना युवाओं को जाग्रत किया जा सकता है ? क्या किसी दल विशेष का राजनीतिक एजेण्डा युवाशक्ति को पूर्णत: जाग्रत कर सकता है ? जी नहीं, हमने युवाओं में पूर्ण मनुष्यत्व का विवेक पैदा करने की कभी कोशिश ही नहीं की। दलीय एजेण्डे के साथ युवाशक्ति का कल्याण हो जाता तो युवाओं को दलीय एजेण्डे के बाहर जाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती, दलीय एजेंडे से युवा शक्ति को पूर्ण मनुष्यता नहीं मिलती। यह बात में हमें सोवियत संघ के पराभव और चीन के बदलावों से सीखने की जरूरत है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी आज युवाओं को क्रांतिकारी पाठ पढाने की स्थिति में नहीं है। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का युवा संगठन तो समाप्त ही हो गया है। युवाओं को यदि आप सिर्फ बाह्य एजेण्डे से बांधेंगे तो इससे युवा शक्ति जगने वाली नहीं है। हमें युवाशक्ति को समग्रता में वर्गीय और दलीय एजेण्डे से भिन्न बृहत्तर मानवीय लक्ष्यों की ओर ले जाना होगा। भारत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और वामदलों का पश्चिम बंगाल के युवा समुदाय में सबसे बड़ा संगठन है। तकरीबन एक करोड़ युवा वामदलों के विभिन्न युवासंगठनों में हैं,इसके बावजूद स्थिति क्या है ? क्या इन युवाओं में किसी भी किस्म की बृहत्तर मानवीय उदबोधन के भाव का वाम राजनीति निर्माण कर पायी है ? कहने का तात्पर्य यह है कि युवाशक्ति को इच्छित विचारों और लक्ष्यों में ढालकर हमने संकुचित और संकीर्ण बनाया है।
'नयापथ' के संपादक युवाओं को किसी न किसी सामाजिक इकाई के सहयोगी समूह के रूप में देखते हैं। युचावर्ग किसी का सहयोगी या पूरक समुदाय नहीं है। युवाओं के बारे में किसी भी किस्म का सरलीकरण और साधारणीकरण संभव नहीं है। किसी भी देश में युवा समुदाय कैसा और उसका मानसिक-सामाजिक संरचनात्मक स्वरूप क्या है इसे गंभीरता के साथ परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में समझने की जरूरत है। हमें यह तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि रोजगार,उद्योग-धंधे,शिक्षा,राष्ट्रप्रेम,पार्टी प्रेम,क्रांतिकारिता आदि के खूंटे से बांधकर यदि युवाओं को देखा जाएगा तो हमेशा गलत निष्कर्ष निकलेंगे। हम भारत को सोवियत संघ जैसा बेरोजगारी रहित देश कभी नहीं बना सकते। सोवियत संघ में तकरीबन साठ बरसों तक युवाओं में अशिक्षा,बेकारी आदि का नामोनिशान नहीं था आज क्या स्थिति है वहां के क्रांतिकारी युवा संगठन की ? चीन ने अपने निर्माण काल के दौरान जिस आदर्श को युवाओं का कंठहार बनाया था आज क्या स्थिति है उसकी ? सारी दुनिया के क्रांतिकारी संगठनों से लेकर बुर्जुआ संगठन अपने को परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। लेकिन भारत के क्रांतिकारी यह काम करना नहीं चाहते।
भारत में कभी भी युवा संस्कृति को देखने और परिभाषित करने का प्रयास ही नहीं किया गया। युवासंस्कृति को हमारे जनवादी समझते नहीं हैं। जनवादियों की युवाओं को सीख क्या है ? पहले क्रांतिकारी विचारों को जानो,मानो तब ही असली युवा बनोगे। युवाओं को क्रांतिकारी बनाने से सामाजिक परिवर्तन नहीं आएगा,इससे युवा सुधरने से रहा। इससे देशभक्ति भी पैदा नहीं होगी। युवाओं में मनुष्यता के प्रति आग्रह पैदा किया जाए,उनके स्वायत्त संसार की हर स्थिति में रक्षा,संवर्द्धन किया जाए,युवा संस्कृति के वैविध्यमय संसार को स्वीकृति दी जाए और हजार फूल खिलने दो कि तर्ज पर युवाओं में सांस्कृतिक-राजनीतिक बहुलतावाद की रक्षा की जाए। युवाओं को एक ही सॉंचे में ढालने के अभी तक के सभी प्रयास अंतत: असफल हुए हैं। हमें युवाओं से प्यार करना चाहिए,उन्हें संस्कृति और मूल्यबोध के आधार पर वर्गीकृत करके प्यार नहीं करना चाहिए। हमें युवा संस्कृति के अंदर मौजूद विभिन्न स्तरों और सांस्कृतिक वैविध्य को गंभीरता से लेना चाहिए। युवा संस्कृति को संस्कृति के जरिए अपदस्थ नहीं करना चाहिए। युवा संस्कृति को यदि किसी भी किस्म के स्टीरियोटाईप विचारों के जरिए अपदस्थ किया जाएगा तो युवाओं को आकर्षित नहीं किया जा सकता। हमें भारत में युवा संस्कृति के पैराडाइम की तलाश करनी चाहिए। हमें युवा संस्कृति को मातहत संस्कृति के रूप में ,घृणा और धिक्कार की संस्कृति के रूप में नहीं देखना चाहिए। युवा संस्कृति मूलत: विरेचन की संस्कृति है। हमारे जनवादी संपादक युवाओं को जो चीज परोस रहे हैं उसका युवा संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। युवा को आप किसी एक विचारधारा, संस्कृति और एक ही किस्म की राजनीति और एक ही किस्म के मूल्यबोध में बांधकर देखेंगे तो युवा समुदाय समझ में नहीं आएगा। 'नयापथ' के संपादक खास किस्म के नजरिए के खूंटे से बांधकर युवा को मातहत सामाजिक इकाई के रूप में देखते हैं। फलत: उन्हें न तो भारत का युवा नजर आया और नहीं युवा संस्कृति ही दिखाई दी।
हमें विचार करना चाहिए कि भारत में क्रांतिकारियों,जनवादियों और प्रगतिशीलों ने युवा संस्कृति और युवा अस्मिता को स्वतंत्र सामाजिक इकाई के रूप में क्यों नहीं देखा, जब भी युवा संस्कृति के सवाल आते हैं वे 'पतन हो गया' 'पतन हो गया' का राग अलापना क्यों शुरू कर देते हैं ? युवा संस्कृति का बुनियादी आधार संस्कृति और क्रांति के तथाकथित पैराडाइम के बाहर है। उसे संस्कृति के परंपरागत पैराडाइम में लाकर जब भी देखा जाएगा उससे न तो युवा समझ में आएगा और न युवा संस्कृति ही समझ में आएगी। क्या युवा संस्कृति का कोई भी विमर्श मासकल्चर के बिना संभव है ?
युवा संस्कृति पर कोई भी चर्चा मासकल्चर के प्रति अविवेकपूर्ण नजरिए से आरंभ नहीं हो सकती। 'नयापथ' के दोनों 'युवाअंक' मासकल्चर और युवा के अन्तस्संबंध को देख ही नहीं पाते। वे यह भी नहीं देख पाते कि युवा संस्कृति में अनेक उपसंस्कृतियां भी हैं। इनके शास्त्र हैं। युवा संस्कृति के अज्ञान का परम सौंदर्य को इन दोनों अंकों के संपादकीय में भरा पड़ा है। हमारे संपादकगण भूल ही गए हैं कि युवाओं में किसी खास विचार, विचारक,क्रांति आदि का असर क्षणिक होता है,दीर्घकालिक प्रभाव युवा संस्कृति का होता है, युवा अस्मिता का होता है। इसकी धुरी है मासकल्चर।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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आज इन जनवादी पत्रिकाओं को कोई भी युवा पढना नहीं चाहता. इसका एक सीधा सा कारण जो आपने सुझाया है वह सही होकर भी अपर्याप्त है. ये जनवादी कहलाने वाले युवाओं से भयभीत रहते हैं. खुद पढना लिखना इस भरोसे छोड चुके थे कि जब पार्टी के साथ रहने से काम चलता है, मान मिलता है तो पढने लिखने के बजाए क्यों न नेताओं की डफली बजायी जाए. अब जब मार पडी है तो बौखलाए हुए कुछ से कुछ करते हैं, आंय बांय सांय लिखते हैं. इन पर सीधा हमला करना असली जनवाद के लिए ज़रूरी है. साधुवाद!
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