अफगानिस्तान में पश्चिमी लोकतंत्र का प्रहसन चल रहा है। हाल ही में वहां पर राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुए हैं और यह कहा जा रहा है कि यह लोकतंत्र की जीत है। पहली बात यह कि अफगानिस्तान में लोकतंत्र नहीं नाटो का सेनातंत्र है। नाटो लोकतंत्र पश्चिम का नया फिनोमिना है। सैन्य मौजूदगी और अफगानी जनता की संप्रभुता को रौंदते हुए राष्ट्रपति चुनाव सम्पन्न हुए हैं। यहां पर पक्ष-विपक्ष दोनों का ही फैसला पेंटागन और सीआईए के नीति निर्धारकों ने किया था। इस चुनाव को जनतंत्र कहना और अफगानिस्तान प्रशासन को संप्रभु सुशासन का नाम देना सही नहीं होगा।
20 अगस्त 2009 को राष्ट्रपति के पद के लिए मतदान हुआ और अभी तक ( 16 सितम्बर 2009) परिणाम नहीं आए हैं। विदेशी पर्यवेक्षकों से भरा निगरानी कमीशन 2,740 शिकायतों की जांच कर रहा है। उन तमाम मतदान केन्द्रों पर दोबारा मतगणना के आदेश दिए गए हैं जहां पर राष्ट्रपति करजई को शत-प्रतिशत मत मिले हैं। उल्लेखनीय है कि जिन मतदान केन्द्रों पर 600 से ज्यादा वोट पड़े हैं उन सभी मतदान केन्द्रों पर करजई को शत-प्रतिशत वोट मिले हैं।
8 सितम्बर को 92 प्रतिशत वोटों की गिनती के बाद जारी प्राथमिक परिणामों में करजई को 54 प्रतिशत,मुख्य विपक्षी उम्मीदवार अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 28.1 प्रतिशत वोट मिले हैं। 'डेमोक्रेटिक इंस्टीटयूशन एंड ह्यूमन राइटस' संगठन का कहना है कि गणना किए गए मतों में से कुल 1,253,806 वोट जाली पाए गए हैं। यानी 23 प्रतिशत जाली मत ड़ाले गए हैं। यदि जाली मतों को करजई के मतों में से निकाल दिया जाए तो उन्हें मात्र 47.48 प्रतिशत मत ही प्राप्त हुए हैं। जो उन्हें विजयी घोषित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। विजयी घोषित करने के लिए 50 प्रतिशत से ज्यादा मत प्राप्त करना जरूरी है। मजेदार तथ्य यह है कि तकरीबन चार मिलियन मतदाताओं ने वोट ड़ाले हैं इनमें मात्र 17 मिलियन रजिस्टर्ड मतदाता हैं। सवाल यह है कि गैर रजिस्टर्ड मतदाताओं ने वोट कैसे डाले ? यह सीधे चुनावी धांधली है।
अमेरिका ने अफगानिस्तान में लोकतंत्र का जो नाटक किया है वैसा नाटक वह और भी अनेक देशों में कर चुका है। इसमें पक्ष और विपक्ष कौन होगा,क्या मसले होंगे,कौन वोट देगा और कौन जीतेगा इत्यादि फैसले मतदान के पहले ही सीआईए के द्वारा ले लिए जाते हैं और मतदान के परिणामों के बहाने उनकी घोषणा कर दी जाती है। अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों की सेना का कब्जा बुनियादी तौर पर अवैध है,यह इन दोनों देशों की संप्रभुता का हनन है। अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठने वाला कोई हो वह अमेरिका की कठपुतली की तरह काम करने के लिए मजबूर है। लैटिन अमेरिका के देशों में कठपुतलियों को नचाने का अमेरिका को गाढ़ा तजुर्बा है। लैटिन अमेरिका में ही सेना और भाड़े के सैनिकों बलबूते पर लोकतंत्र का नाटक भी वर्षों चला है। अफगानिस्तान में लैटिन अमेरिका का प्रयोग ही दोहराया जा रहा है।
अफगानिस्तान में नाटो की सेनाओं के रहते हुए अफगानी तालिबानों के हमले बढे हैं। विभिन्न इलाकों में उनकी हमलावर कार्रवाईयों में तेजी आयी है। अफगानिस्तान में नाटो की सेनाओं की संख्या बढी है,भाड़े के सैनिकों की संख्या में बढोतरी हुई है।अफगानिस्तान का सन् 2007-08 की मानव विकास रिपोर्ट में शामिल 178 देशों में से 174वां स्थान है। यह दशा तब है जब अफगानिस्तान पर नाटो के कब्जे को आठ साल हो चुके हैं।
विभिन्न बहुराष्ट्रीय जनमाध्यमों के पत्रकार अपनी खबरों में अफगानिस्तान के चुनाव की प्रक्रिया पर ही लिखते रहे जबकि अफगानिस्तान में समस्या चुनावी प्रक्रिया की नहीं उसकी संप्रभुता की है। अफगानिस्तान जब तक नाटो सेनाओं के कब्जे में है किसी भी किस्म के चुनाव का कोई अर्थ नहीं है चाहे वह अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगरानी हो अथवा किसी अन्य की निगरानी में हो। चुनाव की महत्ता तब है जब अफगानिस्तान विदेशी सेनाओं की कैद से मुक्त हो जाए। उसके बाद वहां की जनता तय करे कि शासनप्रणाली कैसी हो।
अफगानिस्तान की आंतरिक जनसंख्या संरचना में 42 फीसदी पख्तून जनजाति के लोग हैं। लेकिन इनका शासन में कोई खास दखल नहीं है। बल्कि शासन की मशीनरी जैसे पुलिस,सेना,गुप्तचर सेवा आदि प्रशासनिक हल्कों में ताजिक जाति का ही वर्चस्व है। ताजिक जाति अल्पसंख्यक हैं। मोहम्मद करजई का प्रशासन ताजिकों पर पूरी तरह निर्भर है। अभी तक तालिबान का अफगानिस्तान में प्रभाव बने रहने का बड़ा कारण पख्तून जनजाति में तालिबान का बने रहना। पख्तूनों में तालिबानों की पकड़ अभी भी बरकरार है। करजई प्रशासन ने विगत पांच सालों में पख्तूनों का दिल जीतने के लिए कोई भी प्रभावशाली कदम नहीं उठाया और इस उपेक्षा को तालिबान ने अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील किया है।
20 अगस्त 2009 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में व्यापक धांधली के आरोप लगाए गए हैं। राष्ट्रपति करजई के खिलाफ आधा दर्जन उम्मीदवार खड़े हुए थे इनमें भू.पू. विदेशीमंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे और इन सभी विपक्षी उम्मीदवारों ने चुनाव में व्यापक पैमाने पर धांधली का आरोप लगाया है। किस माहौल में चुनाव हुआ है इसका आदर्श उदाहरण है दक्षिणी अफगानिस्तान के दो प्रांत कंधहार और हिलमंद । इन दोनों प्रान्तों में नाटो सेना और गुरिल्लाओं के बीच घमासान युद्ध चल रहा था और उसी दौरान मतदान भी चल रहा था। युद्ध के दौरान लोग घर से नहीं निकल पाए थे।विभिन्न पर्यवेक्षकों और मीडिया वालों ने भी रिपोर्ट किया कि मतदान पांच प्रतिशत से भी कम हुआ है। लेकिन राष्ट्रपति करजई ने घोषणा की कि इन दोनों राज्यों में 40 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। स्वतंत्र में मीडिया में धांधली की व्यापक खबरें प्रकाशित हुईं इसके बावजूद ओबामा प्रशासन ने मतदान में व्यापकस्तर पर जनता की शिरकत का दावा किया है। व्यापक धांधली की शिकायतों को अमेरिकी प्रशासन के द्वारा लोकतंत्र के दर्द की संज्ञा दी गयी।अफगानिस्तान में धांधली के वीडियो प्रमाण दिखाए जाने के बावजूद अमेरिकी प्रशासन ने अफगानिस्तान के चुनाव को निष्पक्ष कहा है। इसके विपरीत ईरान में 12 जून 2009 को सम्पन्न हुए चुनाव के बारे में मतदान खत्म होते ही बहुराष्ट्रीय मीडिया और ओबामा प्रशासन ने हंगामा आरंभ कर दिया और कहा कि ईरान के चुनावों में व्यापक पैमाने पर धांधली हुई है। मतदान खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति अहमदिनिजात के विरोधी उम्मीदवार मीर हुसैन मासवी ने,जिसे अमेरिका समर्थन और पैसा दोनों हासिल था,उसने अपने को विजयी घोषित भी कर दिया था। अमेरिका से यह सवाल किया जाना चाहिए कि अफगानिस्तान और ईरान के लिए दो तरह पैमाने क्यों अपनाए गए ? अफगानिस्तान के लिए अमेरिका के द्वारा नियुक्त विशेषदूत हॉलब्रुक ने कहा कि अफगानिस्तान में यदि 10 प्रतिशत मतों की गिनती न किए जाने को कोई धांधली नहीं माना जाए। इसके विपरीत ईरान में चुनाव मतपत्रों की गणना शुरू होने के पहले ही अमेरिकी प्रशासन ने ईरान के चुनावों में धांधली का हल्ला शुरू कर दिया। आखिरकार अफगानिस्तान और ईरान को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण का अमेरिकी प्रशासन ने परिचय क्यों दिया ?
ईरान और अफगानिस्तान के चुनाव में दूसरी महत्वपूर्ण समानता यह है कि ईरान के राष्ट्रपति के समर्थकों ने मतों की गिनती शुरू होने के कुछ ही घंटे बाद दो-तिहाई मतों से जीत की घोषणा कर दी। अमरीकी मीडिया ने ईरान में चुनावी धांधली का इसे सबसे बड़ा प्रमाण माना और विदेशी माध्यमों में यह प्रचार आरंभ हो गया कि वोटों की गिनती खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति को दो-तिहाई मतों से ईरानी प्रशासन ने विजयी कैसे घोषित कर दिया । मीडिया के अनुसार यह सीधे धांधली है। मजेदार बात यह है कि ईरान के राष्ट्रपति पद के अमेरिका समर्थित विपक्षी उम्मीदवार ने मतदान के खत्म होने के पहले ही अपने को विजयी घोषित कर दिया था। इसी तरह अफगानिस्तान में करजई प्रशासन में वित्तमंत्री हजरत उमर जखीलवाल ने मतदान खत्म होने के तीन दिन बाद ही 23 अगस्त को ही प्रेस को विस्तार के साथ बता दिया कि करजई जीत गए हैं। उन्हें 68 प्रतिशत वोट मिले हैं,साथ ही उन्होंने मीडिया को सटीक वोटों का विस्तार के साथ ब्यौरा भी दे दिया। उन्होंने कहा कि करजई को तकरीबन तीन मिलियन वोट यानी 68 प्रतिशत वोट मिले हैं। जबकि अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 1.5 मिलियन वोट मिले हैं। अन्य उम्मीदवारों को पांच फीसद से भी कम वोट मिले हैं। समूचे चुनाव में पांच मिलियन वोट पड़े थे। हजरत उमर साहब ने जिस समय मीडिया को ये जीत के आंकड़े जारी किए उस समय तक साढ़े चार लाख वोटों की गिनती होनी बाकी थी। समस्या यह है कि गिनती खत्म होने के पहले ही ईरान के राष्ट्रपति के चुनाव परिणाम की घोषणा को बहुराष्ट्रीय मीडिया ने चुनावी धांधली करार दिया लेकिन अफगानिस्तान के वित्तमंत्री की गिनती खत्म होने के पहले करजई की जीत की घोषणा को चुनावी धांधली नहीं माना। अफगानिस्तान में छह हजार मतदान केन्द्र बनाए गए जिनमें से मात्र 500 मतदान केन्द्रों के मतों की गणना के आधार पर ही करजई को निर्वाचित घोषित कर दिया गया।इन सब तथ्यों की ओर से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय मीडिया आंखें बंद किए रहा। इसी को कहते हैं कारपोरेट मीडिया की अमेरिकी हितों की पक्षधरता। अमेरिकी कारपोरेट मीडिया का अमरीका की विदेशनीति से नाभिनालबद्ध संबंध है। यह तथ्य भी इससे पुष्ट होता है।
( मोहल्ला लाइव पर भी प्रकाशित)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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