अशोक बाजपेयी साहित्य के धुरंधर विद्वान हैं। परमादरणीय हैं । लेकिन लिखते हैं 'मासूमियत' और 'चालाकी' के साथ। हाल ही में 'जनसत्ता' (6 सितम्बर 2009) के स्तम्भ 'कभी कभार' में जो लिखा है वह गंभीर चिन्ता की चीज है। उनके लिखे को पढकर लगता है दुनिया के बारे में वे बहुत जानते हैं,लेकिन देश के बारे में 'कम' जानते हैं अथवा 'मासूम' और 'भोले' हैं। उन्होंने सलमान रूशदी के बहाने कुछ बातें कही हैं। बाजपेयी ने लिखा, '' एक बातचीत में रूशदी ने कहा कि वे हमेशा ही ऐसी पुस्तक (उपन्यास) लिखना चाहते रहे हैं जो राजनीतिक न हो।'' सवाल यह है कि क्या अशोक बाजपेयी की भी यही राय है ? क्या उनका मकसद रूशदी को उद्धृत मात्र करना है ? यदि वे असहमत थे, कहीं पर लिखा क्यों नहीं ? उपन्यास गैर राजनीतिक विधारूप नहीं है। उपन्यास के स्वभाव में राजनीति है। यह रूशदी का 'भोलापन' नहीं 'काईंयापन' है । वे जानबूझकर ऐसी गलतबयानी कर रहे हैं। किसी भी विषय पर उपन्यास लिखें,राजनीति से बच नहीं सकते। यहां तक कि आधुनिककाल में किसी भी विषय और विधा में लिखें राजनीति से बच नहीं सकते। साहित्य और राजनीति के गहरे संबंध की स्थापना का श्रेय उपन्यास को जाता है। उपन्यास के आने के पहले साहित्य में राजनीति प्रच्छन्न हुआ करती थी। उपन्यास विधा आने के बाद साहित्य और राजनीति का गहरा रिश्ता बना है। अशोक बाजपेयी ने लिखा है ,'' सलमान को लगता है कि अब निजी जिंदगी और सार्वजनिक जिंदगी के बीच जगह गायब हो गयी है।'' अरे सलमान भाई आपको दो सौ साल बाद पता चला ! आश्चर्य की बात है कि सलमान रशदी ने एक बडी ही घटिया बात कही है। अपमानित करने वाली और असत्य बात कही है। उसे पढकर किसी भी भारतीय को और खासकर अशोक बाजपेयी जैसे विद्वान को तो गुस्सा आना चाहिए था, लेकिन नहीं आया। सलमान की अवास्तविक टिप्पणी अशोक बाजपेयी के शब्दों में पढें,लिखा '' मुंबई आज पचास-साठ के दशकों के बंबई के मुकाबले ज्यादा अंधेरा शहर हो गया है।'' यह बयान एकसिरे से गलत और तथ्यहीन है। मुंबई पहले की तुलना में ज्यादा सहिष्णु और उदार बना है। सर्जना का सबसे बड़ा महानगर है। भाईचारे का सबसे बडा केन्द्र है। सर्जना का महाकेन्द्र नहीं होता तो व्यापार और मासकल्चर का विश्व का हॉलीवुड के बाद का सबसे बडा केन्द्र ही नहीं बन पाता। सलमान और अशोक बाजपेयी जानते हैं कि विगत साठ सालों में हॉलीवुड ने सारी दुनिया को सांस्कृतिक तौर पर रौंदा है, हॉलीवुड की पराजय का महाकाव्य मुंबई ने ही लिखा है। हॉलीवुड की सांस्कृतिक दुर्बलता अगर किसी के सामने नजर आती है तो वह है मुंबई का सिनेमा उद्योग।आज हॉलीवुड से लेकर पाकिस्तान तक के कलाकार ,चाहे वे मुसलमान हों या क्रिश्चियन हों ,मुंबई को अपना घर मानते हैं। हम सलमान को याद दिलाना चाहेंगे, भारत विभाजन के समय मंटो रह नहीं पाए थे मुंबई में, उन्हें पाकिस्तान जाना पडा था । भारत चिभाजन के बाद,खासकर 90 के मुंबई के बदनाम दंगों, शिवसेना और दाउद के उत्पातों के कारण किसी भी कलाकार ने मुंबई नहीं छोडा है। सवाल यह है सलमाल रूशदी विदेश में रहते हैं, वे यहां के यथार्थ से कम से वाकिफ हैं। लेकिन अशोक बाजपेयी तो भारत में ही रहते हैं। उन्होंने सलमान रूशदी के बयान का खण्डन क्यों नहीं किया ? रूशदी का मुंबई का मूल्यांकन 'अयथार्थ' और घृणा से भरा है।सलमान रूशदी का यह बयान एक बड़े फिनोमिना का अंश है।संक्षेप में जान लें यह फिनोमिना क्या है।
अमीरों ने 'यथार्थ' को 'अयथार्थ' में तब्दील किया है। 'यथार्थ' को 'अयथार्थ' में तब्दील करने का नेटवर्क चारों ओर फैला है। हम लोग इस 'अयथार्थ' को पैसा देकर खरीदते हैं। आनंद लेते हैं। और कुछ समय बाद इसकी ही नकल करने लगते हैं। इसको ही सच मानने लगते हैं। नए युग के सांस्कृतिक युद्ध में मानवीय यथार्थ दांव पर लगा है। कुछ लोग हैं जो इस परिघटना से आंखें बंद किए हैं। कुछ हैं जो इस परिघटना को वैसा महत्व नहीं देते जैसा वे अन्य चीजों देते हैं। साधारण नागरिक को लगने लगा है 'अयथार्थ' ही 'यथार्थ' है। 'यथार्थ' के सतही,अतिरंजित और किस्सागो रूपों की हमारे बीच में बाढ आयी हुई है। हमने 'यथार्थ' के साथ हो रहे अहर्निश हिंसाचार के बारे में चिन्तित होना बंद कर दिया है। 'अयथार्थ' के रूपायन के कारण संस्कृति में प्रतिगामिता बढी है। 'अयथार्थ' के उत्पादन ने गैर कथा विधाओं को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है। सलमान रूशदी का मुंबई मूल्यांकन इसकी आदर्श मिसाल है।
रूशदी ने एक और तथ्यहीन बयान दिया है। अशोक ने लिखा है '' उनके अनुसार वहां की अनकही कहानी राजनीतिक गिरोहों और अपराधी गिरोहों के बीच की लड़ाई की है।'' अरे मासूमो सरलीकरण और सतहीपन बेहद घटिया चीज है।मूल्यांकन में इसे स्टीरियोटाईप लेखन कहते हैं। यह गद्य का घटिया रूप है। इस तरह मुंबई का चित्रण करोगे तो कोई भी मुंबई वाला नाराज हो जाएगा। मुंबई गिरोहों में बंटा शहर नहीं है। अभी मुंबई ,कोलम्बिया नहीं बना है।अपराधी गिरोह,माफिया, शिवसेना आदि मुंबई के बृहत्तर लोकतांत्रिक यथार्थ का बेगाना और बहुत छोटा हिस्सा हैं,इन्हें मुंबई का समग्र समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।
[ deshkaal.com और मोहल्ला लाइव डॉट कॉम पर 9 सितम्बर2009 को प्रकाशित )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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