जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
शुक्रवार, 4 सितंबर 2009
घिन आ रही है राजेन्द्र यादव ?
राजेन्द्र यादव जी, आप पूरी तरह चुक गए हैं, नामवर सिंह को छोटा बनाकर अपने बडे बनना चाहते हो,बडा घिनौना खेल है यह। अपने बारे में बोलो इतने खोखले हो क्यों गए हो ?'हंस' पत्रिका का इस तरह का दिशाहीन संपादकीय कैसे लिख पाते हो़ ? तुम्हारे लिखे को देखकर लगता ही नहीं है कि कभी तुमने अरून्धतीराय और रामचन्द्र गुहा से भी कुछ सीखा है ? बताओ राजेन्द्र यादव तुम इतने बौद्धिकताविहीन क्यों हो ? क्या प्रेमचंद तुम्हें इस हाल में देखकर स्वर्ग में अपना सिर नहीं धुन रहे होंगे ? सच -सच बताओ राजेन्द्र यादव तुम्हारे अंदर गांव के किसानों के लिए कितना दर्द है ? कितने संपादकीय लिखें हैं किसानों पर ? और कितनी कहानियां लिखी हैं ? नामवर सिंह को उनके हाल पर छोड दो,उनसे फिर कभी निबट लेना, वैसे भी वे जब बोल रहे थे तब ही क्यों मसले को निबटा नहीं लिया ? किसने रोका था वहां पर नामवर सिंह की 'धुनाई' करने से। जानते हैं राजेन्द्रजी यह सम्पादकीय बेईमानी है पीछे से हमला करना। नामवर सिंह से सामने बोले होते तो ज्ञान के सारे अंजर-पंजर ढीले कर देते। अब पीछे से पत्रिका के संपादकीय पन्नों का दुरूपयोग कर रहे हो। घिन आती है ऐसी पत्रकारिता पर। यह सिर्फ हिन्दी में ही संभव है। प्रतिष्ठानी प्रेस से कम से कम संपादकीय उसूल तो सीख लेते। कम से कम प्रेमचंद से ही सीख लेते। वैसे मैं 'टायरवाला' के तर्कों का कायल हूं। क्षमता हो तो संपादकीय लिखकर 'टायरवाला' की बातों का जबाव दो। (देशकाल डॉट कॉम पर प्रकाशित इस माह के 'हंस' के संपादकीय की प्रतिक्रिया में )
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