यह लेखक और लेखन के अवमूल्यन का दौर है। इस दौर में लेखन का मूल्य आंकना सबसे मुश्किल काम है। लेखकीय प्रमोशन लेखन के बल पर नहीं होरहा बल्कि प्रमोशन योजनाओं के जरिए हो रहा है। लेखकों में आज के सवाल और आज का साहित्य गंभीरता के साथ विश्लेषित नहीं हो रहा बल्कि प्रचार अभियान में शिरकत का महत्व बढ़ गया है। सब कुछ प्रायोजित हो रहा है। समीक्षा से लेकर सम्मेलन के बहस-मुबाहिसों तक प्रायोजन का चक्र चल रहा है।
बुर्जुआ विचारधारा पर बातें करने की बजाय निहितस्वार्थ के सवालों पर बातें कर रहे हैं। भुखमरी और मजदूरों की कम पगार ,छंटनी आदि के सवालों पर बातें करने की बजाय श्रम के कमोडिफिकेशन पर बातें कर रहे हैं। उपभोग,विनिमय और वितरण के सवालों पर सतही विमर्श कर रहे हैं। प्रति व्यक्ति स्कूल और कॉलेज में क्या व्यय किया जा रहा है उन पर बातें कर रहे हैं। अथवा हम स्वयं को महत्व देने वाले सवालों पर ज्यादा चर्चा कर रहे हैं। अन्य के बारे में बातें करने की फुरसत ही नहीं है। अथवा जब मौका मिल जाता है तो मार्क्सवाद को कैसे बदनाम किया जाए उसकी साख कैसे नष्ट हो रही है अथवा कैसे उसकी साख नष्ट की जाए ,इसके बारे में मशगूल हैं। इस तरह का विमर्श अच्छे बौध्दिक परिवेश का लक्षण नहीं है।
स्लोवाक ज़ीजेक के शब्दों को उधार लेकर कहें तो यह फैंटेसी की महामारी का दौर है। इमेजों ने हमारी तर्कबुध्दि को पूरी तरह घेर लिया है। ऑडियो-वीडियो मीडिया ने इसे चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया है। हमारी समूची कार्यप्रणाली पर सीडीरूम पध्दति हावी हो गयी है। सीडीरूम पध्दति का अर्थ है '' यहां क्लिक करो, वहां जाओ, इस फ्रेगमेंट का इस्तेमाल करो, अथवा इस स्टोरी और सीन का इस्तेमाल करो।'' फैंटेसी की महामारी का व्यवहार में परिणाम यह निकला है कि अब प्रत्येक काम अर्जेंसी के रूप में किया जाता है।
इस युग की मुख्य लाक्षणिक विशेषता है कि इसमें पूर्व-आधुनिक विचारधाराएं हठात् केन्द्र में आ गयी हैं। इसके अलावा फंडामेंटलिज्म,राष्ट्रवाद, जनजातिवाद आदि तमाम किस्म की इरेशनल विचारधाराएं भी केन्द्र में आ गयी हैं। प्रगति अमूर्त हो गयी है। व्यवहारवादी तर्क केन्द्र में हैं। कॉमनसेंस का प्रभुत्व बढ़ गया है। यह '' गैर-विचारधारा'' अथवा '' उत्तर-विचारधारा '' का क्षेत्र है। लोग यह भी कहने लगे हैं कि विचारधारा के युग का अंत हो गया है। जबकि सच यह है कि यह सब भी विचारधारा का क्षेत्र है।
'उत्तर विचारधारा' में आत्म की प्रस्तुति पर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा है। आत्म पर जोर के कारण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में विचारधारा के सवालों को हमने त्याग दिया है। 'मैं' और सिर्फ 'मैं' में लेखक उलझा हुआ है। 'मैं' की भूमिका महत्वपूर्ण होकर रह गयी है। विचारधारात्मक सरोकारों की जगह निजी सरोकारों ने ले ली है। निजी रूचि,इच्छा,मंशा आदि की अभिव्यक्ति ने ले ली है। अब विचारधारा को सांस्कृतिक विश्लेषण के एक उपकरण के रूप में हमने इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। 'आत्म' अथवा 'मैं' पर जोर देने के कारण हमारे लेखक अब नव्य उदारतावादी राजनीति की सेवा में लग गए हैं।अब उन्होंने परिवर्तनकामी विचारधारा की सेवा करनी बंद कर दी है। इसमें हमारे वामपंथी लेखकों का अधिकांश हिस्सा शामिल है।
'' उत्तर -विचारधारा'' के युग में मीडिया निर्मित इमेजों और सेतुओं से हम गुजर रहे हैं। उन्हीं के गर्भ से जो सवाल उठ रहे हैं उनमें उलझ रहे हैं। प्रतीकों की व्यवस्था के शिकार बन रहे हैं और स्वयं भी प्रतीक बन रहे हैं। हमने विचारधारा के आधार पर विश्लेषित करना एकदम बंद कर दिया है। हम जब इस तरह करने लगते हैं तो व्यक्ति को पूरी तरह गुलाम बना देते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि व्यक्ति के औपनिवेशिकरण को कैसे खत्म किया जाए,इसके उपाय सोचने की जरूरत है। आज व्यक्ति और परमानंद के बीच का अंतराल खत्म हो चुका है। आनंददायी फेंटेसियों ने हमें घेरा हुआ है। हम जब चाहते हैं हमें आनंद उपलब्ध है। आनंद और व्यक्ति के बीच की दूरी का खात्मा बहुत ही बड़ी त्रासदी है। आज आप किसी भी किस्म की मनोवैज्ञानिक फैंटेसी को संगठित कर सकते हैं। उसका प्रबंधन कर सकते हैं। अब युध्द भी फैंटेसी में बदल चुका है। मौत अथवा त्रासदी के आख्यान फैंटेसी का हिस्सा हैं।
नव्य उदारतावादी जनतंत्र अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं के अधूरे समाधान पेश कर रहा है। असमानता चरमोत्कर्ष पर है। इसे दूर करने का परवर्ती पूंजीवाद के पास कोई समाधान नहीं है। वे यह भी बता पा रहे हैं कि आखिरकार पूंजीवाद की अबाधित विजय के बावजूद असमानता निरंतर क्यों बढ़ती रही है। यहां तक कि कल्याणकारी राज्य का सपना भी असमानता को खत्म नहीं कर पाया। इतनी बड़ी असफलता के बावजूद परवर्ती पूंजीवाद के विचारक दावा कर रहे हैं कि उन्होंने बाजी मार ली !
परवर्ती पूंजीवाद का सबसे बड़ा गुण है वह फेक अथवा नकली को मूल्यवान बना देता है। नकली में ही हम असली का आनंदबोध लेने लगते हैं। नकल को असल समझने लगते हैं। नकल को वर्चुअल के जरिए ग्रहण करते हैं, देखते हैं। फेक का वर्चुअल होना और वर्चुअल अभौतिक होना अथवा अप्रासंगिक होना स्वयं अनेक किस्म की समस्याओं को पैदा कर रहा है। फेक और वर्चुअल के नेटवर्क ने अपना भौतिक आधार बना लिया है। आज वह स्वयं भौतिक शक्ति बन गया है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति ऐतिहासिक और परा-ऐतिहासिक दोनों ही रूप में एक साथ नजर आ रहा है। वर्चुअल तकनीक ने व्यक्ति और समाज की नए किस्म की भूमिकाओं को जन्म दिया है। नए किस्म के सरोकार पैदा किए हैं। नए किस्म का आनंद और नये किस्म की ज्ञानचर्चा को जन्म दिया है। यह वर्चुअल की नयी मुक्तिदायी शक्ति है जिसे समझने की जरूरत है। हमें वर्चुअल रियलिटी के बारे में संकीर्णतावादी नजरिए से नहीं देखना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि किस तरह नयी वर्चुअल अवस्था ,वास्तव अवस्था से भिन्न है। किस तरह वर्चुअल यथार्थ ,सामाजिक यथार्थ से भिन्न है।
वर्चुअल यथार्थ में और सामाजिक यथार्थ में बुनियादी अंतर है। वर्चुअल यथार्थ एक तरह से सामाजिक यथार्थ का फैंटेसीमय तर्क है। यह सामाजिक यथार्थ का चरम है। इसी वजह से परिचित और अपरिचित दोनों लगता है। वर्चुअल रियलिटी और सामाजिक यथार्थ के बीच के अंतराल का साइबरस्पेस रेडीकलाइजेशन कर देता है। यही हमारे आत्मगतबोध का निर्माता है। यहां तक कि हमारी ईगो को भी वर्चुअल बना देता है।
साइबर संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में यदि लेखक और लेखन को देखें तो नए किस्म की चीजें सामने नजर आएंगी। आज प्रामाणिक अथवा ऑथेन्टिक के सवाल केन्द्रीय सवाल हैं। साइबर संस्कृति में प्रामाणिकता की पुष्टि पहले की जाती है। बाद में अन्य बातें होती हैं। पहले व्यक्ति स्वयं प्रमाण था। आज उसे प्रमाण देना होता है। आज आप जब फोन करके अपना बिल का पता करना चाहते हैं तो फोन पर बैठी साइबर कन्या प्रमाण मांगती है। जन्ततिथि पूछती है। जन्मतिथि आपकी प्रामाणिक पहचान बन गयी है। यदि जन्मतिथि ठीक नहीं बता पाते हैं तो मामला गड़बड़ा सकता है। साइबर संस्कृति का मंत्र है '' बनाओ और दो।'' इसके बीच में यथार्थपरक प्राथमिकताएं काम नहीं करतीं। आप जब अपनी प्रामाणिकता का प्रमाण दे रहे होते हैं तो यह भी बता रहे होते हैं कि आप क्या हैं और क्या करना चाहते हैं। इसी अर्थ में क्या हैं और क्या करना चाहते हैं , को अलग करके नहीं देखा जा सकता।
लेखक या पत्रकार के नाते हम किसी घटना या विषय का चयन करते हैं और फिर उसे पेश करते हैं। लोग जानते हैं कि घटना घटी है तो उसका क्या अर्थ है ? हम घटना की छवि लेते हैं। उसके बारे में लिखते हैं। हम भरसक कोशिश करते हैं कि प्रामाणिक रूप में पेश करें। प्रामाणिक प्रस्तुति मीडिया में भी करते हैं और साहित्यिक विधाओं में भी प्रामाणिक प्रस्तुति पर जोर देते हैं। लोग देखते और पढ़ते हैं। वे समझते भी हैं। किंतु ज्योंही आप अपनी बात कहकर खत्म करते हैं तो लोग उम्मीद करते हैं घटना का भिन्न रूप प्रस्तुत क्यों नहीं किया गया। क्योंकि किसी भी घटना अथवा विषयवस्तु की प्रस्तुति अनेक रूपों में हो सकती है। भिन्न रूप में चीजों को सजाया भी जा सकता है। लेखक अथवा पत्रकार से यथार्थ की भिन्न प्रस्तुति की मांग के प्रति हमेशा प्रतिरोध व्यक्त किया जाता है। यह प्रतिरोध और कोई नहीं स्वयं लेखक अथवा पत्रकार करते हैं। वे सत्ता के आख्यान और नजरिए से इस कदर बंधे होते हैं कि भिन्न प्रस्तुति कर ही नहीं पाते। यथार्थ की भिन्न प्रस्तुति के कारण ही गोदान महान रचना बन पायी। कफन कहानी क्लासिक कहानी बन पायी। यथार्थ की भिन्न प्रस्तुति के प्रति लेखक यहां अपना प्रतिरोध व्यक्त नहीं करता। यही वह बिंदु है जहां हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। एक ही घटना की प्रस्तुति में अनेक किस्म के नजरिए सक्रिय रहते हैं। घटना में शामिल सभी पक्ष अपने तरीके से यथार्थ को पेश करना चाहते हैं और अपने ही पक्ष पर बल देना चाहते हैं। किंतु यदि सीधे-सीधे घटना में शामिल वर्गों या समूहों अथवा व्यक्तियों की बातों को सीधे पेश कर दिया जाए तो इससे न तो यथार्थ के मर्म को संप्रेषित कर पाएंगे और न इससे यथार्थ का दर्जा ही ऊँचा उठा पाएंगे। यथार्थ का दर्जा ऊँचा उठाने के लिए जरूरी है कि घटना में अथवा यथार्थ में शामिल पात्रों के नजरिए से पेश करने की बजाय भिन्न नजरिए से मर्म को चित्रित किया जाए। प्रेमचंद के समूचे चित्रण विशेषता है कि वह यथार्थ के मर्म को पात्रों से भिन्न नजरिए से उद्धाटित करते हैं। यह वह मर्म है जो छिपा है। हमें कथानक कहते समय यह ध्यान रखना चहिए कि आखिरकार हम किस फ्रेमवर्क में अपनी बातें कह रहे हैं।
हमें यह भी सवाल करना चाहिए कि आखिरकार लेखन क्या है ? रोलां बार्थ ने सही लिखा है कि लेखन प्रत्येक आवाज ,प्रत्येक विचार के उदय का विध्वंस है। लेखन तटस्थ,सामंजस्यपूर्ण,विकल्प के स्थानों से भरा, जिसमें व्यक्ति छिपा रहता है। नकारात्मक इस अर्थ में कि इसमें सभी किस्म की अस्मिताओं का लोप हो जाता है। जबकि उसका आरंभ ही अस्मिता और लेखन से होता है। लेखक जब लिखता है तो वह स्वयं का ही लोप कर बैठता है। लेखन का आरंभ लेखक की मौत है।
( भड़ास ब्लाग पर 14 सितम्बर 2009 को प्रकाशित)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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