सदानंद गोडबोले जी, आपने मेरी बात को समझा ही नहीं है। आपने लिखा है ''मगर जगदीश्वर चतुर्वेदियों सरीखों का ये कहना कि दोनों ग़लत नहीं थे, या दोनों सही हैं एक और तरह की अवसरवादिता है। वे संतुलन के सिद्धांत पर काम करके दोनों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं जबकि सचाई ये है कि दोनों ने ही ग़लती की है। उदयप्रकाश जी ने माफी माँगी है मगर उनका माफीनामा पढ़कर कोई भी कह सकता है कि वे मन से नहीं मजबूरी में ऐसा कर रहे हैं। नामवरजी तो खैर वाक्छल से खुद को बरी कर लेंगे और फिर उनके चेलों की लंबी जमात भी तो है।''
गोडबोले जी, यह चेला गुरू का मामला नहीं है।यह अवसरवादिता भी नहीं है। यह नेट संवाद और लेखन है। यहां पर चेला-गुरू जैसी कोई चीज नहीं होती, यहां लेखन ही परिचय है। उदयप्रकाश माफी मांगे या कल नामवर सिंह प्रायश्चित करने लगें तो क्या उससे वह सच्चाई बदल जाएगी जिसका मैंने अपनी पहली टिप्पणी में जिक्र किया है। दोस्त चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने से ही सही समझ बनेगी। सही परिप्रेक्ष्य के लिए सही समझ का होना बेहद जरूरी है। आप यह खोज रहे हैं कि किसने गलती की और किसने सही किया,यह सही-गलत नेट पर नहीं होता। नेटयुग में कोई भी बहस भिन्न नजरिए की मांग करती है। हमारा पैराडाइम ही बदल चुका है। बहस का,समाज का,राजनीति का,संस्कृति का मूलाधार ही बदल चुका है। आज कोई भी चीज पहले जैसी नजर नहीं आती,कोई भी व्यक्ति पहले जैसा व्यवहार नहीं कर रहा। नामवर सिंह को अपनी हिमायत के लिए अपने चेलों की जरूरत नहीं है। उनका व्यवहार ही उनकी हिमायत होता है। हमारी लेखक के व्यवहार पर नजर होनी चाहिए, लेखक का व्यवहार लेखन में नजर आता है, लेखन ही उसका कर्म है। नामवर सिंह वाचिक परंपरा के विद्वान हैं अत: उनका कर्म वाचन में भी दिखता है,संभवत: हिन्दी के वह अकेले आलोचक हैं जो अपनी बात थोपते नहीं हैं। उनकी पूजा करने वालों की कमी नहीं है,लेकिन उनसे आलोचनात्मक प्रेरणा लेने वालों की संख्या चेलों की संख्या से हजार गुना ज्यादा है। वे आलोचना के शिखरपुरूष यदि आज हैं तो किसी अर्जुन सिंह अथवा प्रधानमंत्री अथवा किसी प्रभाष जोशी-अशोक बाजपेयी की प्रशंसा अथवा कृपा या गुटबंदी के कारण नहीं हैं। उनकी आलोचनात्मक साख है यह इस बात का प्रमाण है कि लेखन ही सर्वस्व है,बाकी चीजें अप्रासंगिक हैं। नामवर सिंह को व्यक्तिगत,जातिगत,सांगठनिक आदि किसी भी आधार पर परखने जाओगे तो अंतत: निराशा हाथ लगेगी। नामवर सिंह ने पता नहीं कैसे अपना लोप करके अपने कथन,बयान,लेखन को बड़ा बनाया है, इसके रसायन को तो वे ही जानें, हमें ही नहीं सबको वह रास आता है, आकर्षित करता है,बांधता नहीं है ,बल्कि खोलता है,बोलने के लिए मजबूर करता है। हिंदी में यह चीज दुर्लभ है। हिंदी में सुलाने,भुलाने और भ्रमित करने वाले लेखक बहुत हैं, लेकिन आलोचना के लिए,बोलने के लिए उदबुद्ध करने वाले अकेले नामवर सिंह हैं। उनका यह गुण हम सभी की संपदा है। यह वास्तविकता है। नामवर सिंह आपको असहमत होने के लिए मजबूर करते हैं, उनका यही असहमति पैदा करने वाला भाव उन्हें कमप्लीट आधुनिक आलोचक बनाता है। उन्हें आप चाहे जो कहें,जैसे कहें,जिस तरह से निंदा करें या आलोचना करें,इसके बावजूद अपने बीच पाना चाहते हैं, उनके बोले पर उत्सुकता से ध्यान देते हैं, अनेक बार वे निराश करते हैं,अनेक बार प्रेरित भी करते हैं, उनसे असमहत होना,उन्हें पास रखना और उनको सुनना या पढना,एक ऐसी लंबी सांस्कृतिक प्रक्रिया में फेंकता है जिसकी पाठक ने कल्पना नहीं की थी। कहने का अर्थ है नामवर सिंह से विवाद किए बगैर आप जा नहीं सकते। काश यह क्षमता हम सबमें होती,हमें हिंदी समाज के लिए सैंकडों नामवर सिंह चाहिए।
सदानंद गोडबोले ने सवाल उटाया है ,''प्रगतिशीलों में दोहरापन बढ़ता जा रहा है। कौन लोग हैं इसके लिए ज़िम्मेदार, कौन सी प्रवृत्तियाँ हैं जो सच पर काली छाया डाल रही हैं। इसे चिन्हांकित किया जाना बेहद ज़रूरी है। '' बंधु इस दोगलेपन की जड़ें मध्यवर्ग में ही हैं,इसवर्ग की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि इस पर भरोसा नहीं जमता, इसके कई मुखौटे हैं। मध्यवर्ग से आए बुद्धिजीवी,लेखक,शिक्षक,वकील,राजनेता,बैंकर, अफसर सभी में इसका प्रतिबिम्बन देख सकते हैं। मध्यवर्ग की 'अन्य' के प्रति,दूसरों के प्रति कुछ कर गुजरने की भावनाएं जब से कम हुई हैं,तब से मध्यवर्ग के बहुरंगी और बहुरूपी चेहरे ज्यादा दिखने लगे हैं। प्रगतिशील लेखकों पर भी इस सामाजिक प्रक्रिया का असर हुआ है, भूमंडलीकरण आने के बाद तो यह वर्ग और भी ज्यादा दलदल में गया है। प्रगतिशील लेखकों में भूमंडलीकरण आने के पहले सऩ 1975 तक कुछ कर गुजरने और अन्य के बारे में लिखने पढने का जज्बा था ,आपातकाल लागू होने के बाद प्रगतिशील लेखकों पर जैसे वज्रपात हुआ और साथ ही समूचे मध्यवर्ग ने जिस तरह आपातकाल का स्वागत किया उसने प्रगतिशील लेखकों को भी पक्षाघात का शिकार बना दिया और यही पक्षाघात कालान्तर में पक्षपात में बदल गया। तब से प्रगतिशील लेखक वहीं फंस हुआ है,लेखक का ईमानदारी के साथ लिखकर जीना दूभर हो गया और लेखकों को सामान्य से जीवन यापन के लिए रोज समझौते करने पड रहे हैं। लेखक आपातकाल के बाद से वस्तुत: अनाथ हो गया।उदयप्रकाश जैसे प्रतिभाशाली सैंकडों लेखक हैं जो अपने लिए एक साधारण जीवन यापन लायक नौकरी तक जुगाड़ नहीं कर पाते। क्योंकि वे किसी बडे लेखक की 'गुडबुक' में नहीं हैं। आपातकाल के पहले प्रगितशील लेखकों के पास 'गुडबुक' नहीं थी, 'गुडराईटिंग' थी,'गुड कमिटमेंट' था । आपातकाल के बाद समूचे देश का सामाजिक राजनीतिक पैराडाइम बदला है। प्रगतिशील लेखकों को पहले से ही अनेक सामंती बीमारियों थीं जो इस दौरान और 'क्रॉनिक' शक्ल अख्तियार कर चुकी हैं। आपातकाल के बाद लेखक ज्यादा कमजोर,एकाकी,निहितस्वार्थी बना है। छोटी चीजों के पीछे भागने लगा है। उसे बड़े लक्ष्य अपील नहीं करते, दूसरों की तकलीफें देखकर गुस्सा नहीं आता,इसके विपरीत उसमें परपीडक आनंद की संवृत्ति का प्रसार हुआ है। लेखकीय भाईचारा,जनता और लेखक के बीच का भाईचारा कमजोर हुआ है। आज बेहतर लिखने के लिए जितने साधन और निश्चिंतता के भाव की लेखक को जरूरत है वह चीज उसके लिए उतनी दुर्लभ होती जा रही है। मध्यवर्ग के बहुरंगी मुखौटों वाली संस्कृति पर आपातकाल के बाद से जाति और हैसियत के सामंती रंग ने प्रभाव जमाया और इससे कमोबेश सभी प्रभावित हुए हैं। लेखक भी प्रभावित हुआ है। दूसरा बडा परिवर्तन यह हुआ है कि लेखकों के पास वैकल्पिक एजेण्डा लंबे समय से नहीं है,फलत: पुरानी और नई सांस्कृतिक व्याधियों ने उन्हें धर दबोचा है। लेखक अब सत्य से कम सत्याभास से ज्यादा प्यार करते हैं। जब तक वे सत्य को खुली आंखों से देखते नहीं हैं,तब तक उनके लिए मौजूदा यथार्थ पकड में नहीं आएगा। मेरी बात यह अर्थ नहीं है कि सभी लेखक वैसे ही हैं जैसा मैंने लिखा है, बल्कि यह कहना चाहता हूं ज्यादातर वैसे ही हैं,उनके पास कई मुखौटे हैं। वे यथार्थ से कटे हैं।
( देशकाल .कॉम पर मेरी टिप्पणी पर लिखी टिप्पणी पर व्यक्त प्रतिक्रिया के जबाव में )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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