पत्रकारिता के भविष्य को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं इलैक्ट्रोनिक मीडिया से लेकर प्रेस तक पत्रकारों को गंभीर असुरक्षा के साए तले जीना पड़ रहा है। रिपोर्टिंग के स्तर में तेजी से गिरावट आयी है। पत्रकारिता के बारे में सभी लोग एक ही सवाल कर रहे हैं कि आखिरकार इसका भविष्य क्या है ? युद्ध के मोर्चे से लेकर घरेलू खबरों के मोर्चे तक खबरों में झूठ ने अपने पैर पसार दिए हैं। युद्ध संबंधी असत्य खबरों का साक्षात् प्रतीक है इराक। इराक में आज जो कुछ घट रहा है उसमें मीडिया की असत्य खबरों की सबसे बड़ी भूमिका रही है। दूसरी ओर यह भी देखा जा रहा है कि मीडिया के मुनाफों का विस्तार हुआ है। मीडिया की आमदनी में इजाफे को मीडिया के सुखद भविष्य के रूप में देखें अथवा मीडिया में जिस तरह असत्य ने विराट रूप में अपने पैर फैला दिए हैं उसे मीडिया के भविष्य के रूप में देखें ?
कारपोरेट मीडिया के सत्य के प्रति बढता अलगाव और असत्य को प्रमाण के साथ पेश करने की कला के आदर्श उदाहरण हैं, कोसोवो,इराक,पनामा पर हमले। उसी तरह हाल ही में जिस आर्थिकमंदी से हम जूझ रहे हैं इसके बारे में कभी भी मीडिया ने पहले से आगाह तक नहीं किया। नव्य उदारतावाद और बैंकिंग व्यवस्था के बारे में जमकर झूठ बोला गया और यह बताया ही नहीं गया कि अमरीका से लेकर जापान तक समूचे विकसित पूंजीवादी जगत में बैंकिंग व्यवस्था अनियमितता,नियमहीनता और अराजकता में फंस गयी है। वित्तीय अखबार और व्यापार चैनल बाजार में उछाल का नकली राग अलापते रहे और समूची दुनिया गंभीर मंदी में फंस गयी।
यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पत्रकारिता के भविष्य का फैसला सत्य और मुनाफा में से किसके आधार पर किया जाए ? खासकर बैंकिंग व्यवस्था में जिस तरह की अराजकता सामने आई है उसने वित्तीय पत्रकारिता की पोल खोलकर रख दी है। भारत में कारपोरेट मीडिया ने जिस अंधभक्ति के साथ नव्य उदारतावाद की हिमायत की है , गरीबों को सब्सीडी दिए जाने का विरोध किया है और सेज के बहाने किसानों की जमीन लिए जाने का अंध समर्थन किया है उससे कारपोरेट मीडिया की गरीब विरोधी छवि सामने आयी है।
कारपोरेट मीडिया की ही चालाकियां हैं कि हम व्यापक बजट घाटे के बावजूद यह नहीं जानते कि आखिरकार विशाल बजट घाटे का हमारे सामाजिक भविष्य पर क्या असर पड़ेगा। पर्यावरण से लेकर अर्थनीति तक क्या बुरे प्रभाव हो सकते हैं इनके बारे में कारपोरेट मीडिया एकसिरे से आंखें बंद किए हुए है। रात को प्राइम टाइम खबरों में विभिन्न चैनलों में पेश किए जाने वाले आधिकारिक लोग वे होते हैं जो सांसद, राजनेता, वकील,संपादक,पत्रकार,राजनयिक,सैन्य एवं पुलिस अधिकारी होते हैं। साधारण आदमी खबरों में प्रमाण के रूप में कम से कम नजर आता है। प्रामाणिकों में भी ज्यादातर हिन्दू होते हैं। इन्हें देखकर यह लगता ही नहीं है कि भारत सांस्कृतिक बहुलता वाला देश है। खबरों में गरीब को तो कभी प्रमाण के रूप में पेश ही नहीं किया जाता। आम तौर पर अमीर ,अभिजन और हिन्दू ही खबरों के प्रमाण और व्याख्याकार होते हैं। ऐसी स्थिति में खबरें किसके हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं इसके बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है।
कारपोरेट मीडिया बार-बार युद्ध और शांति के सवाल पर फेल हुआ है,हाल ही में चीन के खिलाफ जिस तरह का उन्माद पैदा करने की कोशिश की गयी और जिस तरह का असत्य प्रचार किया गया वह दरशाता है कि मीडिया शांति के नहीं युद्ध के पक्ष में है और युद्ध भड़काने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है। जबकि चीन और भारत दोनों ही देशों की सरकारों ने किसी भी किस्म की भूल-गलती होने की खबरों को एकसिरे से खारिज किया।
यही हाल किसानों और मजदूरों की खबरों का भी है, इन दोनों वर्गों की खबरें प्रधान कारपोरेट मीडिया में से तकरीबन नदारत हैं जबकि विगत दो दशकों में किसानों और मजदूरों की स्थिति में गिरावट आयी है। सिर्फ इन वर्गों की हिंसा की ही खबरें संक्षिप्त खबर बन पाती हैं। मुख्य खबर तो वह कभी बन ही नहीं पाती। इसी तरह दलितों ,अछूतों अल्पसंख्यकों और गांवों की खबरें यदा-कदा ही दिखती हैं। आमतौर पर महानगर, अभिजन और मध्यवर्ग की खबरें ही अधिकांश जगह घेरे रहती हैं।
मीडिया में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़ पैदा हुई है। मुनाफे का ही तरह-तरह से प्रचार किया जाता है फलत: प्रासंगिक खबरें हाशिए पर पहुँच गयी हैं। अब मुनाफा ही सर्वस्व है। पहले कभी खबर ही सर्वस्व हुआ करती थी। मजेदार बात यह है कि मीडिया के बडे घरानों में बृहत्तर सामाजिक स्वार्थ के सवालों में कोई दिलचस्पी ही नहीं रह गयी है। आज कारपोरेट मीडिया के मालिक मानकर चल रहे हैं कि खबर या बडी खबर ज्यादा मुनाफा नहीं देती।
नव्य-उदारतावाद के मौजूदा दौर में समाचार की बजाय जंक समाचार ज्यादा आ रहे हैं। ये वे समाचार हैं जो देखने में चटपटे किंतु सारहीन होते हैं। इनका सामाजिक मूल्य नहीं होता । इस तरह के समाचारों का टीवी कवरेज से लेकर प्रिंट मीडिया तक फैल जाना इस बात का संकेत है कि मौजूदा दौर समाचार का नहीं जंक समाचार का युग है। इसके अलावा जो सारवान समाचार दिखाए जा रहे हैं उनमें खास किस्म का मनमानापन झलकता है। मसलन् हमेशा आधी-अधूरी कहानी बतायी जाती है। भ्रमित करने वाली शीर्ष पंक्तियां बनायी जाती हैं। तथ्यों में सुधार चुनिंदा ढ़ंग से किया जाता है। जिस कहानी में किसी तरह का तथ्य अपुष्ट प्रमाणों को समाचार कहानी बनाकर पेश किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खबरों में ऐसी स्टोरियों और तथ्यों से बचा जाता है जो अमेरिकी नीति के लिए ठीक न हों। अथवा उनके बारे में नकारात्मक प्रभाव पैदा करने वाली हों।
आज समाचार के नाम पर सिर्फ मनोरंजन की खबर होती है,आकर्षक चेहरे की खबर होती हैं। 'चेहरा' आज टीवी खबरों में बड़ा कारक तत्व बनकर सामने आया है खासकर महिला समाचारवाचिका अथवा एंकर के रुप में सुंदर चेहरे की लड़की ज्यादा पसंद की जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि एंकर के रुप में अमिताभ बच्चन से लेकर जॉनी लीवर तक को सहज ही देखा जा सकता है। यह आकर्षक चेहरे,सैलीब्रेटी चेहरे और सुंदरता की परेड है। इससे टीकी एंकर की परंपरा ही बदल गयी है। यही स्थिति खेलों की है। अब खेल के कार्यक्रमों में खेल संवाददाता नहीं बल्कि स्वयं खिलाडी ही अपना मूल्यांकन करते रहते हैं,खिलाड़ी खिलाडी के बारे में बताता रहता है,इससे खेल पत्रकारिता का भी चरित्र बदला है। जब खिलाडी ही व्याख्याकार हो जाएगा,जब फिल्म के बारे में निर्देशक और अभिनेता ही मूल्यांकन करने लगेंगे तो ऐसा मूल्यांकन विश्लेषण और वस्तुगतता से रहित होगा। इस तरह की प्रस्तुतियों में आत्मगत तत्व हावी रहेगा। बल्कि यह भी कह सकते हैं कि समाचारों में सुंदरता और आत्मगत भाव की परेड हो रही है।
टीवी वाचक के चेहरे हाव-भाव ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठे हैं। साथ ही समाचार का गप्प, सनसनी और निर्मित विवादों में रुपान्तरण कर दिया गया है। इस तरह की खबरें जनता की बुध्दि पर हमला है, उसका अपमान है,ये यथार्थ जीवन के संदर्भ की उपेक्षा करती हैं, बर्नस्टीन के शब्दों में '' अच्छी पत्रकारिता जनता को चुनौती देती है,वह उसका विवेकहीन ढ़ंग से शोषण नहीं करती।'' आज स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि सरकारी सूत्रों से हासिल सूचनाओं और ब्यौरों को बगैर किसी तहकीकात के सीधे पेश कर दिया जाता है। इस संदर्भ में विश्व विख्यात पत्रकार वॉब बुडवर्ड के शब्दों को स्मरण करना प्रासंगिक होगा। बुडवर्ड ने लिखा है कायदे से सरकारी स्रोत से निकली खबर की संवाददाता को अपनी खोज के जरिए पुष्टि करनी चाहिए। इससे जनतंत्र का विकास होता है किंतु जब संवाददाता सिर्फ सरकारी स्रोत के आधार पर ही खबर देने लगे तो इससे सर्वसत्तावादी समाज का निर्माण होता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो सामयिक खबरें जनतंत्र का नहीं सर्वसत्तावादी समाज का निर्माण कर रही हैं। उल्लेखनीय है वाटरगेट कांड से लेकर इराक युध्द तक वुडवर्ड ने बड़े पैमाने पर रहस्योद्धाटन किए हैं। वुडवर्ड कहता है हमें उस केन्द्रीय कारक की तलाश करनी चाहिए जिसके कारण सरकार उस तरह की सूचनाएं दे रही है। जनतंत्र में प्रेस दूसरा स्रोत मुहैयया कराता है। उसके आधार पर नागरिक तय कर सकते हैं कि क्या सही है। कौन सी स्टोरी सही है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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